प्रिय मित्रो,
पिछले संपादकीय में हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? प्रश्न के कई पक्षों पर संक्षेप में लिखा था। पाठकों की प्रतिक्रिया को देखते हुए इस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत चर्चा को आरम्भ कर रहा हूँ। आपकी प्रतिभागिता की प्रतीक्षा रहेगी।
बात हम बच्चे के जन्म से आरम्भ से करते हैं। भारतीय विचारधारा के अनुसार बच्चा माँ के गर्भ में रहते हुए भी सुनता है। यह तथ्य आज के विज्ञान द्वारा सिद्ध भी हो चुका है। मैंने अधिक आयु पश्चिमी समाज में बिताई है इसलिए मेरी विचार प्रक्रिया का आधार भी पश्चिमी जगत ही है। आप लोगों से आग्रह है कि कृपया मेरे विचारों को केवल इसलिए न नकार दें क्योंकि यह पश्चिमी समाज पर आधारित हैं। मत भूलें कि जितनी गति के साथ विश्व की संस्कृतियाँ घुल-मिल रही हैं, हो सकता है कि एक वैश्विक संस्कृति हमारे जीवन-काल में हमारे सामने पैदा हो जाए। धार्मिक जगत की बात नहीं कर रहा, केवल सामाजिक संदर्भ में ऐसा मेरा विचार है। ऐसी स्थिति में महत्व जीवन पद्धिति से बढ़ कर मानवीय मूल्यों का रह जाता है। मानवीय मूल्यों की शिक्षा में साहित्य की भूमिका को नहीं नकारा जा सकता। इसलिए साहित्य मानव के जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उसका जीवन। बात अटपटी लगती है कि विश्व भर के आदिवासी समाज क्या साहित्य के बिना जीवित नहीं रहते? मत भूलें कि उनका साहित्य लिखित नहीं मौखिक है। वह भी कहानियाँ सुनते और सुनाते हैं, गीत रचते हैं – गाते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी इनकी धरोहर भी छोड़ जाते हैं। महत्व इस बात का है की किसी समाज या भाषा की कहानियों, गीतों में (लिखित या मौखिक) कहा क्या गया है। उनमें मानवीय मूल्यों का उल्लेख किस तरह से किया गया है।
पिछले दिनों मेरी पुत्रवधू के लिए “बेबी शॉवर” का आयोजन किया गया। यह प्रथा “गोद भराई” के आस-पास की है। मेरी पुत्रवधू ने लोगों से आग्रह किया था कि “बेस्ट विशिज़ कार्ड” की बजाय “बेबी बुक्स” दें। यानी ऐसी पुस्तकें जो कि रंगबिरंगे चित्रों से सजी और रोचक कहानियों की हों और जिन्हें माँ अपने छोटे से बच्चे को गोदी में बिठा कर सुना सके। रंगीन चित्रों को देखता हुआ बच्चा कहानी को सुनता रहे। यह साहित्य का बीजारोपण है। निश्चित रूप से यह एक दिन अंकुर बन कर फूटता है। अब प्रश्न यह है कि भारत में माँ बच्चे को अँग्रेज़ी की पुस्तक पढ़कर सुनाती है या हिन्दी की? क्या ऐसी हिन्दी की पुस्तकें उपलब्ध हैं? पश्चिम में यह एक बहुत बड़ा व्यवसाय है। बहुत से प्रकाशक हैं जो केवल बच्चों की ही पुस्तकें प्रकाशित करते हैं। एक पूरा व्यवसायिक तंत्र बच्चों की “मार्केट” पर ही जीवित रहता है। लेखक, चित्रकार, प्रिंटर, प्रकाशक, विक्रेता इत्यादि। यहाँ तक कि इन पुस्तकों की कहानियों के चरित्रों पर आधारित टी.वी. प्रोग्राम और फ़िल्मों का निर्माण तक होता है।
अपने बचपन को याद करता हूँ तो कुछ पत्रिकाएँ याद आती हैं। सबसे पहली पत्रिका याद आती है “राजा-भैया”। इसमें कुछ स्तम्भ थे जैसे कि रंग भरो, चुटकले इत्यादि। कुछ छोटी-छोटी कहानियाँ और कविताएँ होती थीं बड़े-बड़े शब्दों में लिखीं ताकि बच्चे आसानी से पढ़ सकें। यह पत्रिका मैं पाठशाला में दाख़िल होने से पहले पढ़ता था। थोड़ा बड़ा होने पर मेरी प्रिय पत्रिका “चंदामामा” हो गयी, फिर पराग। पराग पढ़ते-पढ़ते कब धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका तक पहुँच गया इसका मुझे याद नहीं। कहना यह चाहता हूँ कि यह पारिवारिक वातावरण है जो कि साहित्यिक पाठक की नींव धरता है। उपहार में दी गयी पुस्तकें कभी भी व्यर्थ नहीं जातीं। बस यह ध्यान देना आवश्यक है कि पुस्तकें बच्चे की आयु के अनुसार हों। बच्चों का मनोरंजन केवल वीडियो गेम्स, टी.वी. तक ही सीमित न हो। बाल साहित्य भी उसके मनोरंजन का महत्वपूर्ण भाग होना चाहिए।
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
सादर –
सुमन कुमार घई
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सम्पादकीय (पुराने अंक)
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