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प्रिय मित्रो,

अन्ततः अपनी आँखों की समस्या से छुटकारा पाकर एक बार फिर साहित्य कुंज को आरम्भ कर रहा हूँ। मैं अपने डॉक्टरों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिनके उपचार से एक बार फिर से ठीक देख पा रहा हूँ और उन जनों की आत्मा की शान्ति के लिए करबद्ध हूँ जिनके नेत्रदान से मेरी आँखें ठीक हो सकीं।

अंतरजाल पर विभिन्न मंचों पर हिन्दी की स्थिति के विषय में चर्चाएँ हो रही हैं जो कि सार्थक सोच का परिणाम है। इन मंचों पर युवा हिन्दी-भाषी लोगों या लेखकों के विचार पढ़ने को नहीं मिलते। इसके क्या कारण हैं इस पर भी विचार होना चाहिए ताकि हम युवा पीढ़ी से सुन सकें कि वह हिन्दी के विषय में क्या सोचती है और उसकी क्या समस्याएँ हैं कि वह हिन्दी लिख-पढ़ नहीं रही है। भारत से आए युवाओं की अंग्रेज़ी सुन और समझ कर एक बात तो समझ आती है कि कम से कम यह पीढ़ी सोच तो अभी भी मातृभाषा में ही रही है, क्योंकि उनकी भाषा में अनुवाद की झलक रहती है। यह एक आशाजनक तथ्य है।

एक मंच पर यह चिंता भी व्यक्त की गई कि भावी पीढ़ी हिन्दी भाषा को बिल्कुल भूल जाएगी क्योंकि वह हिन्दी भी रोमन में लिख रही है, देवनागरी में नहीं। यह शोचनीय बात है। यद्यपि अब देवनागरी में टाईप करने के विकल्प उपलब्ध हैं और सहजता से उपलब्ध हैं; तो फिर देवनागरी की बजाय वह हिन्दी को रोमन में क्यों लिख रहे हैं? हिन्दी टाईपिंग को अपनाने की झिझक क्यों? रोमन की-बोर्ड द्वारा एक बार हिन्दी टाईप करने की आदत पड़ जाने के बाद देवनागरी के की-बोर्ड का अभयस्त होने के लिए परिश्रम तो करना ही पड़ेगा, परन्तु रोमन की-बोर्ड द्वारा सही हिन्दी भी तो नहीं लिखी जा सकती है। पीड़ा तो तब होती है जब मेरी पीढ़ी के लोग स्थिति को ज्यों का त्यों रखने का तर्क देने लगते हैं। ऐसे लोग इतने से ही सन्तुष्ट हैं कि युवा पीढ़ी कम से कम हिन्दी तो लिख रही है चाहे रोमन में ही क्यों न हो। भाषा के उच्चारण की शुद्धता का प्रश्न उठते ही यह कोई भी विकल्प नहीं सुझा सकते क्योंकि किसी भी भाषा के सही उच्चारण के लिए उसी भाषा की लिपि अनिवार्य है। रोमन में लिखने का ही परिणाम है कि अब मेरी पीढ़ी के लोग भी की-स्ट्रोक की गिनती कम करने के चक्कर में हिन्दी की दुर्दशा कर रहे हैं। चन्द्र बिन्दु का प्रचलन ही लुप्त होता जा रहा है। ड़ या ढ़ के नीचे बिन्दी लगाने में सुस्ती दिखाई देती है। में अब मे बन चुका है और नहीं, नही हो चुका है। गत कुछ वर्षों से यह सुन रहा हूँ कि लोग अब बोल भी वही रहे हैं जो वह लिख रहे हैं।

कुछ माह पहले भारत से आए एक सेवा निवृत्त प्राध्यापक से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। जहाँ ठहरे थे एक कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ, उनसे पहली बार वहीं मिला। भारत लौटने से पहले वह मुझसे मिलना चाहते थे, सो उन्हें मैंने अपने घर आमन्त्रित किया। इस बार वह केवल मुझसे ही मिलना चाहते थे, इसलिए अन्य साहित्यप्रेमी मित्रों को न बुला सका। मन में यह प्रश्न भी बार-बार उठ रहा था कि मुझसे अकेले क्यों मिलना चाह रहे हैं… क्या अनजाने में कोई धृष्टता कर दी है; उम्र से मुझसे बड़े थे, इसलिए मेरी चिंता भी स्वाभाविक थी। ख़ैर आवभगत के बाद जब मैं और वह अलग ड्राईंग रूम में बैठे तो चर्चा हिन्दी भाषा और साहित्य कुंज की होने लगी। अचानक वह बोले, “सुमन जी आप तो बेकार में ही वर्तनी सुधारने पर ज़ोर देते हो; क्या फ़र्क पड़ता है कि चन्द्रबिन्दु है या बिन्दी - आंख को आप पढ़ेंगे तो आँख ही। वैसे अगर लिखने वाले बिन्दी ख पर भी लगा दी यानी आखं लिख दिया तो भी आप फिर भी इसे आँख ही पढ़ेंगे।” इसके बाद जितना समय भी वह बैठे, बस मैं इधर-उधर की ही बातचीत करता रहा। भाषा और साहित्य की बात क्या करता? अगले दिन डॉ. शैलजा सक्सेना से इस विषय पर बात हुई तो दोनों के मन को यह प्रश्न सालता रहा कि जिन विद्यार्थियों को इन्होंने वर्षों तक विश्वविद्यालय में पढ़ाया होगा, उनका भाषा ज्ञान क्या होगा?

भारत से दूर रहते हुए जब भारतीय हिन्दी टीवी के कार्यक्रम या फ़िल्में देखता हूँ तो हिन्दी के प्रति चिंतातुर हो जाता हूँ। टीवी के कुछ सीरियल हैं जिनमें अब शुद्ध हिन्दी के शब्द सुनने को मिल रहे हैं, जो कि अच्छा लगता है, परन्तु जब इन्हीं कार्यक्रमों से पहले या नीचे अस्वीकरण इत्यादि दिखाये जाते हैं तो वर्तनी की दुर्दशा देख मन खिन्न हो जाता है। एक कॉमेडी शो है जिसके निर्देशक या लेखक इस तथ्य से अनिभिज्ञ नहीं हैं अपितु इसका उपयोग वह व्यंग्य के रूप में कर रहे हैं। इस सीरियल में जब सीन की पृष्ठभूमि में दुकानों के साईन बोर्ड या दीवारों पर पुते विज्ञापन दिखाये जाते हैं, उनमें जानबूझ कर ग़लत वर्तनी के द्वारा हास्य को पैदा करने का प्रयास किया जाता है। यानी कुछ तो सजग लोग हैं जो इस समस्या को अपने ढंग से या अपनी कला द्वारा सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं।

इस विषय पर आपके विचार आमन्त्रित हैं। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

– सादर
सुमन कुमार घई

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