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प्रिय मित्रो,

देर से सही पर साहित्य कुंज का नया अंक और इस वर्ष का पहला अंक आपके समक्ष है। समय-समय पर साहित्यिक मंचों से अनुपस्थित हो जाता हूँ, परन्तु परोक्ष में साहित्य से अनुपस्थित नहीं होता। इन दिनों "बाज़ारवाद" से लाभ उठाने के लिए हिन्दी साहित्य को पुस्तक बाज़ार.कॉम पर ई-पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करने में व्यस्त हूँ। अभी तक एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और बिकनी भी आरम्भ हो चुकी हैं। ऐसा नहीं कह सकता कि आरम्भिक अड़चने नहीं आ रहीं, एक तरह से इनकी प्रतीक्षा सी थी। एक-एक करके इनसे उबर रहे हैं, आप लोगों का भरपूर समर्थन मिल रहा है जिसके लिए आप सभी का कृतज्ञ हूँ।

पिछले शनिवार को हिन्दी राइटर्स गिल्ड की मासिक गोष्ठी थी। गोष्ठी को दो भागों में बाँटा गया था। पहला सत्र विचार-विमर्श का था जिसके बारे में अपने संपादकीय में चर्चा करना चाहता हूँ। चर्चा का विषय था – नव वर्ष में लेखकीय संभावानाएँ! चर्चा कैनेडा के संदर्भ में थी परन्तु एक तरह से सार्वभौमिक भी।

प्रायः देखा जाता है कि साहित्य की एक विचारधारा मुख्य साहित्यिक मंच के मध्य में स्थापित हो जाती है, क्योंकि वह उस समय की आवश्यकता होती है। यह प्रक्रिया समस्या तब बन जाती है जब संपूर्ण साहित्य केवल मंच के इसी क्षेत्र तक ही सीमित हो जाता है। या यूँ कहूँ कि केवल वही साहित्य सामने आता है (प्रकाशन के विभिन्न माध्यमों द्वारा) जो अपने आपको इस बहती नदिया के किनारों में सीमित रख पाता है। इन किनारों से परे की सृजनत्मकता हाशिये पर चली जाती है। प्रवासी-साहित्य (हालाँकि इस परिभाषा से मैं सहमत नहीं हूँ) अपने-आपको दो दिशाओं से पिटता हुआ पाता है। एक ओर विदेशों में रहने वाले लेखक अपने आपको तब तक सफल नहीं समझते जब तक उनके नाम का डंका भारत के मंचों पर नहीं बजना आरम्भ हो जाता। इसलिए भारत में न रहते हुए भी, भारत ही की बात उनके साहित्य का मुख्य विषय रहती है। मेरे विचार के अनुसार ऐसा करने से उनकी रचना का कथानक बेमानी-सा हो जाता है। जिन परिस्थितियों को आपने जिया नहीं उसके बारे में अपने अनुमानित अनुभव की नींव पर आप कैसे अपने साहित्य का सृजन कर सकते हैं? मानवीय विषय और संदर्भ सार्वभौमिक और सार्वकालिक होते हैं। इन की संवेदनाओं के संप्रेषण में नारेबाज़ी नहीं होती। त्रासदी है कि इन्हें मंच का मध्य कम ही प्राप्त होता है। विशेषता इस बात की है कि ऐसे ही साहित्य की आयु लम्बी होती है।

दूसरी ओर प्रवासी लेखक आधुनिक साहित्य से अपरिचित रहते हुए, अपने आपको उस काल में सीमित कर लेता, जिस काल का साहित्य उसने प्रवास से पहले पढ़ा था। पुराने बिम्ब, पुराने रूपक, पुराने विषय, पुरानी भाषा, पुरानी संवेदनाएँ और बार-बार इन्हीं को दोहराने का बासीपन। फिर कुंठा उत्पन्न होती है अप्रकाशित रहने की। चर्चा में इन्हीं समस्याओं से उबरने के लिए समाधानों के सुझाव, विचार-विमर्श से सामने आये। उपस्थित लेखकों को नया आधुनिक साहित्य पढ़ने और उस पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। विदेश में रहते हुए एक अन्य समस्या जो साहित्य प्रेमियों के सामने आती है वह है अच्छे आधुनिक साहित्य की दुर्लभता। यद्यपि यहाँ के पुस्तकालय हिन्दी भाषा की पुस्तकें भी रखते हैं परन्तु अधिकतर पुस्तकें वही पुराने लेखकों की होती हैं जो बीसियों वर्ष पहले भारत में भी पढ़े थे। ऐसा नहीं है कि हिन्दी राइटर्स गिल्ड ने इस दिशा में प्रयास नहीं किया। पुस्तकालयों से संपर्क करने पर एक ही उत्तर मिलता है कि लोग पुस्तकालय से हिन्दी की किताबें इशु नहीं करवाते और इसी कारण से हिन्दी की पुस्तकों की ख़रीददारी का बजट कम होता जा रहा है। सदस्यों को प्रोत्साहित किया गया कि जैसी भी हों, परन्तु हिन्दी की पुस्तकों को इशु करवाएँ ताकि आँकड़े पुस्तकालय को हिन्दी की पुस्तकें खरीदने के लिए विवश करें।

तीसरा सुझाव पुस्तक बाज़ार.कॉम जैसे ई-पुस्तक विक्रेताओं से ई-पुस्तकें खरीदने का था। क्योंकि ई-पुस्तकें खरीदनी सस्ती और आसान हैं। पढ़ने के लिए भी अब हाथ के उपकरण (टैबलेट्स, ई-रीडर और स्मार्ट फोन) उपलब्ध हैं और पुस्तक बाज़ार.कॉम की एंड्रायड उपकरणों की ऐप्प भी निःशुल्क गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड की जा सकती है। पीसी के लिए भी ईरीडर निःशुल्क उपलब्ध है। इसलिए ऐसा कोई भी कारण नहीं है कि ई-पुस्तक न पढ़ी जा सके। हाँ यह बात अलग है कि जिनका "रोमांटिक" संबंध मुद्रित पुस्तकों के साथ है वह ही ई-पुस्तक के लिए बाधा बन सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में तो विदेशों के हिन्दी साहित्य प्रेमियों के साधन सीमित ही रहेंगे।

अंत में संकल्प किया गया कि व्यक्तिगत लेखन में सुधार के लिए इन गोष्ठियों में रचनाओं की विवेचना भी की जायेगी। भाषा और शिल्प के लिए कार्यशालाएँ भी आयोजित की जाएँगी। स्थापित लेखकों की रचनाओं पर नियमित चर्चा की जाएगी और प्रत्येक गोष्ठी में हर उपस्थित व्यक्ति बताएगा कि पिछले महीने के दौरान उसने क्या नया पढ़ा।

साहित्य कुंज के वैश्विक मंच पर स्थानीय समस्याओं की चर्चा इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि यह समस्याएँ किसी न किसी रूप में दुनिया के हर कोने के लेखकों के सामने आती हैं और आप पाएँगे कि समाधान भी एक से ही हैं।

– सादर
सुमन कुमार घई

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