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साहित्य मौलिक रूप से स्वतन्त्र भावाभिव्यक्ति है - ऐसा मैं समझता हूँ। ऐसे साहित्य पर बाहरी दबावों का कोई प्रभाव नहीं होता, क्योंकि किस भी दबाव से प्रभावित हुई अभिव्यक्ति स्वतन्त्र नहीं हो सकती, समझौता हो सकती है, दया याचना हो सकती है या मिथ्या प्रशंसा हो सकती है। दूसरी ओर स्वतन्त्र अभिव्यक्ति लेखक के मानस की उपज है। उसकी संवेदना उसके साहित्य में मुखरित होती हैं। इन संवेदनाओं का जन्म लेखक के अंतस में व्यक्तिगत अनुभव, प्रवृत्ति इत्यादि से होता है। आंतरिक उद्वेग या हर्षातिरेक, पीड़ा या आनन्द आदि की संवेदनाओं की कोख से भावों का जन्म होता है और संवेदनाओं की गोद में ही यह पलते और विकसित होते हैं; समय आने पर यह स्वतः ही प्रकट होते हैं ठीक वैसे ही जैसे एक माँ बच्चे को जन्म देती है। किसी भी साहित्य में लेखक परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित रहता है। इसीलिए चित्त की मूल अवस्था से उत्पन्न हुए भावों की अभिव्यक्ति स्वतन्त्र है और साहित्य है।

राजनैतिक, सामाजिक या धार्मिक बाहरी परिस्थितियाँ हैं जिनसे लेखक प्रभावित होता है, परन्तु उसकी संवेदना तब तक जागृत नहीं होती जब तक कोई परिस्थिति उसके हृदय को झिंझोड़ न दे या उसे आनन्द की लहर में न बहा ले जाए या उसके होंठों पर मुस्कान न बिखेर दे। अगर लेखक स्वयं इन परिस्थितियों के गुज़रे, देखे या सुने तब उसका यह व्यक्तिगत अनुभव होगा और उसकी संवेदना जागृत होगी। दूसरी और अगर राजनैतिक, सामाजिक या धार्मिक दबाव डालते हुए लेखक से कहा जाए इसे अनुभव करो संवेदना जागृत करो और भावों को अभिव्यक्त करो तो - क्या लिखना संभव है? 

विमर्शों की यही समस्या है। पहले लेखक ने साहित्य रचना की और बाद में साहित्य सत्ता ने विमर्शों की परिभाषा तय की और फिर विमर्शों के खांचे में साहित्य को विभिक्त कर दिया। विमर्शों के चलन से पहले भी बहुत से लेखक हुए हैं जिनके साहित्य में इन समस्याओं, सामाजिक विसंगतियों, राजनैतिक और धार्मिक शोषण के विरोध को स्वर दिया गया। इनकी कृतियाँ आज भी साहित्य प्रेमियों और साहित्य के विद्यार्थियों के लिए एक उदाहरण हैं। अभी तक जो भी मैंने कहा वह विमर्शों  के विरोध में नहीं कहा क्योंकि विमर्श शब्द का अर्थ ही विचार, विवेचन, परीक्षण, तर्क और समीक्षा है। मुझे परेशानी केवल इसलिए है कि बहुधा ऐसा होता है कि कुछ विद्वानों और विदुषियों पर विमर्श इस तरह हावी हो जाते हैं कि वह हर रचना को अपने प्रिय विमर्श की कसौटी पर ही परखते हैं। अगर कोई रचना, चाहे वह साहित्य की उत्कृष्टता की पराकाष्ठा को छूती हुई क्यों न हो, उनकी कसौटी पर न खरी उतरे तो वह उसे साहित्य न मानने में झिझकते नहीं। मैंने ऐसे कई स्थापित या प्रतिस्थापित विद्वानों और विदुषियों को तुलसीदास से लेकर मुंशी प्रेमचन्द को हाशिये पर रखते देखा है।

यह विमर्शों की साहित्य सत्ता है जिसमें प्रकाशकों, सम्पादकों, समीक्षकों और अध्यापकों/प्राध्यपकों के हाथ में अंकुश है और वह साहित्य की दिशा निर्धारण की निरन्तर चेष्टा करते रहते हैं। विमर्शों की परिभाषाएँ प्रतिदिन संकीर्ण होती जाती हैं और नए से नए विमर्श जन्म लेते रहते हैं। लिखना लेखक की विवशता है क्योंकि वह संवेदनशील है। वह उद्वेलित होने से पहले, या हर्षातिरेक को अनुभव करने से पहले परिस्थिति, घटना और अनुभव को किसी विमर्श के तराजू में नहीं तौलता। वास्तविक लेखक किसी विमर्श की परिधि में अपने लेखन को नहीं बाँधता। वह तो उन्मुक्त प्राणी है, उसकी उड़ान एक पंछी की उड़ान है - चला जाए जिधर पवन ले जाए!

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