भावना को समझो
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुशील यादव13 Feb 2013
वे आदमी बुरे नहीं हैं।
ज़ुबान फिसल जाती है। उनकी फिसली ज़ुबान पटरी पर चढ़ा दी जावे या उनके कहे के मर्म को समझ लिया जावे, तो कोई दिक़्क़त पेश नहीं आती।
अभी-अभी उन्होंने कह दिया, "जो डाक्टर काम नहीं करते उनके हाथ काट देने चाहिएँ"।
क्रोधित स्टेथेस्कोप ने काम बंद करने की धमकी दे डाली।
उन्होंने सफ़ाई दी, "हमने तो कहावतों, मुहावरों का इस्तेमाल किया था बस।"
अब उनके जैसे विद्वान को सफ़ाई देने की नौबत आ जाए, तो प्रशासन कौन नत्थू-ख़ैरा सम्हालेगा?
बातों के सफ़ाई अभियान में, पाँच साल कब निकल जायेंगे, बेचारे को पता ही न चल पायेगा?
बेचारा ठीक से अपने धूप-बदली-बरसात के लिए, इंतिज़ाम भी न कर पायेंगे? उनकी तरफ़ से चलो हमीं, माफ़ी-साफ़ी की औपचारिकताएँ पूरी किये देते हैं, भाई सा, भैन जियो, भावनाओं को समझो...?
ये भी मान के ग़म खा लो, कि वे अभी देहात के हैं। ज़रा शहरी मैल जम जाए, तब किसी अच्छे डिटर्जेंट से चाहे तो जी भर, धो डालियेगा। \
एक उलट बात और.....।
मुझे ऐसे समाचार पढ़ने में ख़ूब मज़ा आता है....।
मैं इन धमकी भरे समाचारों का अचार, "दो सौ साल पहले की मटकी में" डाल के कल्पना के ख़ूब चटकारे लेता हूँ।
यदि सचमुच कोई सुलतान-बादशाह अपनी रियासत में "....ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर..." वाला हुक्म सुनाये, चलाए तो क्या नज़ारा होगा ...?
"ओय ख़बीस का बच्चा....तुम किधर की डाक्टरी पास किया है....? ढोर का इंजेक्शन आदमी को दिए फिरेला है....?"
हमारे राज में ढोर बिना इंजेक्शन के बेमौत मर रहे हैं, कुछ खबर तुसां नूँ है कि नइ....? आदमी की जान अलग लिए फिरता है, यानी हमारे राज में एक हाथ से दो-दो वारदात...। बहुत नाइंसाफ़ी है.....
"दरबान! सिपाहियों से कहो, इस जुर्म करने वाले डाक्टर को ले जाएँ। इनके हाथ यूँ काट दें कि किसी दूसरे को, जुर्म करने का साहस न हो। इनके कटे हाथ को देख कर ...लोग हमारे न्याय को याद रखें। इस मनहूस को हमारी नज़रों से इसी दम ओझल करो.....!"
"अगला मुजरिम पेश हो,".....बुलंद आवाज़ दरबान की गूँजती है।
पेशकार द्वारा चार्ज पढ़ा जाता है। हुज़ूरे आला, "मुजरिम पेशे से आपकी रियायत के एक क़स्बे की म्युनिस्पेलटी में डाक्टर का ओहदा रखता है। ये अपने सेनापति जी का साला है। उनकी ही सिफ़ारिश पर आपने नज़दीक के, खटीक गाँव की म्युनिस्पेलटी में इन्हें नरेगा के तहत स्पेशल अपॉइंटमेंट दे के, दो इन्क्रीमेंट के साथ रखा है। हुज़ूर... मुजरिम की गुस्ताख़ी ये है कि इनने, बी.पी. के पेशेंट को "आयोडीन साल्ट" नाम की दवाई लिख मारी। शुगर वालों को "पार्ले जी", खीर-पूड़ी भर पूर खा के हेल्थ बनाने का ये मशवरा दे डालते हैं।
हुज़ूर...! मरीज़ों की "टैं" बोलने की नौबत आ गई। वो तो अच्छा ये हुआ कि अपने हकीम साहब तालाब में दातुन करते-करते इस मरीज की हरकत पर ग़ौर फरमा लिए। "सेम्प्टन" देख के वे ताड़ गए कि हो न हो ये मुनेस्पेलटी हास्पिटल के मरीज हैं। वे सैकड़ों बिगड़े केस वहीं तालाब किनारे निपटा देते हैं हुज़ूर। वे ही इन मरीजों को बचा पाए वरना राम नाम सत्य है हो जाता....मरीज की, "लाई" लुट जाती जनाब।
महामहिम से फरियाद है, इस "झोला छाप" को सख्त से सख्त सजा दी जावे। अपने हकीम साहब को हुज़ूर जो इनाम इअकर्म बख्शना चाहे वो अलग मर्जी......
अपने राज में इस जुर्म की सज़ा, महामहिम ने हाथ काटने की मुकर्रर की है जनाबे आला!"....
पेशकार को ध्यान से सुनाने बाद, शहंशाह, सेनापति को तलब करते हैं जो उनके साले हैं। "सेनापति जी .हम ये क्या सुन रहे हैं....? आपके साले होनहार नहीं थे तो....आपको बताना चाहिए था न हमें? हम कहीं और फिट कर देते...। अब इस मुसीबत से कैसे निपटें...? ..अगर सज़ा देते हैं तो मुसीबत! नहीं देते तो जनता का विशास हमारे न्याय से उठ जाएगा....।"
सेनापति ने, तत्काल दरबारी को तलब किया।
"वो जो पहला केस अभी-अभी निपटा है जिस पर हाथ काटने की सज़ा हुई है, उस पर तत्काल सज़ा मुल्तवी रखो कहना कि ये जनाबे आला की आसंदी से फरमान है। हम यहाँ से अगला आदेश बिना विलम्ब के भिजवाते हैं।"
सेनापति ने न्याय की पुस्तक मँगवाई।
सभासदों को इस विषय को गहराई से पढ़, नई व्याख्या करके, सुझाव देने को कहा गया।
सभासदों ने एक स्वर में स्वीकार किया कि "हाथ काट दो" का शाब्दिक अर्थ; पढ़े-लिखे विद्वान डाक्टरों के सन्दर्भ में, ज्यो का त्यों लगाना न्यायोचित नहीं है।
इसे मुहावरे या कहावत के रूप में इस्तमाल हुआ समझा जावे।
इस किसम के आरोपी को "सांकेतिक फटकार" की सज़ा काफ़ी है।
अस्तु हमारी स्तुति ये है की आरोपी को फटकार लगा कर छोड़ दिया जाये।
सांकेतिक फटकार वाला, ये "प्रयोग", आप भी, किसी भी समाचार पर प्रतिक्रिया स्वरूप करके, आए दिन के नीरस समाचार को रोचक बनाए रखने में कर सकते हैं। आप अपने रिटायरमेंट के "टाइम-पास" वाली भावना को इससे जोड़ देखो मज़ा आयेगा...? चलिए आगे जुड़ते हैं....
आजकल मीडिया वालों को खोया-पाया या भूल सुधार के लिए एक "टाइम स्लाट" अलग से फ़िक्स कर देना चाहिए। किसने कल क्या कहा....? जो दबाव पड़ने पर, कैसे यू टर्न वाली सफाई दिए फिर रहे हैं...।
अपनी पुरानी भावना को, किन नये शब्दों की चाशनी में डुबो के, आपके गले उतारने की कोशिश में लगे हैं.....?
ये वाकया राजनीति के अलावा और कहीं देखने को नहीं मिलता।
कोई स्कूल टीचर, कभी विस्तार से नहीं समझाता, कल जो हमने न्यूटन के सिद्धांत बताये थे कि हर क्रिया की प्रतिक्रया होती है, सेब ऊपर से नीचे गिरता है, ये विज्ञान में तो सही है। मगर राजनीति में कुछ कह नहीं सकते.....
वो चाह के भी इस अकाट्य सत्य को झुठला नहीं पाता।
उसे मालूम होता है कि राजनीतिज्ञ लोग आज के सच को कल झूठ, कल के झूठ को आज सच कर डालते हैं। दोस्ती-दुश्मनी का भी यहाँ कोई फिक्स रूल नहीं है।
उनके पास गुरुत्वाकर्षण की अलग थ्योरी, अलग ताक़त लिए होती है।
जनता के हाथ रखे सेब को छीन के, वे अपनी सबसे ऊँची शाख पर रख दे सकते हैं। उसे हर पाँच साल में इसी सेब के बूते फिर से वोट की राजनीति जो करनी है। उनका सेब कभी टपकता नहीं।
वे अपने "चुम्बक बल" सहारे विरोधियों को खींच लेते हैं। सरकार कचरे में गिरे "अणुओं" को धो-पोंछ के अपने काम के लायक़ बनाने में बड़े माहिर होते हैं। फ़ायदे के लिए समझौते की भावना स्वत: पैदा हो जाती है।
इनसे पंगा ले के देखो, "बेंजामिन के करेंट" वाले गाँव की सैर करा देंगे।
जनता इनकी मासूमियत से वाकिफ़ होते-होते सालों लगा देती है। निरीह जनता की भावना को समझो,.....
बचपन से मेरी भावनाओं को किसी ने नहीं समझा।
मेरी शिक्षा का लेबल उतना ही रखा गया, जिससे क्लर्की मिल जाए। ट्यूशन पढ़ने की इच्छा होती थी, घर वालों के .हाथ तंग होने, पिछले महीने के बिजली बिल, जो सात या आठ रुपये होते थे, अदा नहीं कर पाने से अवगत कर दिया जाता। मुझे भी उन भावनाओं के साथ जुड़ते-जुड़ते दुनियादारी के हिसाब-किताब समझ में आने लग गए थे। लिहाजा चुप किये रहता।
आज की नई पीढ़ी की भावनाओं को समझते-समझाते रीढ़ की हड्डियों में बेइंतिहा दर्द होता है। डाक्टरों के पास जाने से घबराते हैं, क्यों बेकार किसी के हाथ को कटने, कटाने या तोड़ने-तुड़ाने की सज़ा दी जाए....?
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