नर संहार
काव्य साहित्य | कविता डॉ. परमजीत ओबराय15 Feb 2020 (अंक: 150, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
वर्तमान समय में बढ़ता,
जा रहा नरसंहार,
मनुष्य मनुष्य का शत्रु,
बनने को बैठा है तैयार।
नरसंहार के बाद,
लगे लाशों के ढेर,
देखा न जिन्हें,
किसी ने आकर,
होने लगी सवेर।
रक्त से हुए बर्बाद,
कई घरबार,
मिट्टी भी चुप थी,
पर अब करने लगी पुकार।
हे मानव,
तू पुत्र है मेरा,
फिर क्यों रहा -
मुझ पर इतना अत्याचार ?
ख़ून बहा पहन रहा तू,
ख़ूब जीत का हार।
कितनों की गोद सूनी कर,
कितनों के सिंदूर-
मिटा,
कितनों के भाई-बहन ले,
कितना किया,
तूने अत्याचार?
इसका नहीं है-
तुझे एहसास।
ख़ून धरा पर,
पड़ा सूख गया,
देख न आई तुझे दया?
सोच... ले रहा तू,
उन सबकी बद्दुआ,
जिनका ख़ुशियों का,
आँगन सूना तूने किया।
भर रहे मन में तेरे,
क्यों कुविचार?
दया व परोपकार है गहना तेरा,
पहन इन्हें तू,
जीवन अपना सुधार।
औरों के जीवन की,
जब न छीनेगा,
तू बहार,
तभी ख़त्म होगा यह संहार,
सुकर्मों को संचित कर
भविष्य अपना ले सुधार।
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