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शेर बच्चे थोड़े ही रोते हैं

 

साँझ हो चुकी थी। आकाश में धुँधलापन आने लगा था। भीड़ इधर से उधर आ जा रही थी। सब को कुछ ना कुछ शीघ्रता थी। गाड़ियों का शोर कानों के पर्दे फाड़ने में सक्षम। प्रकाश भारी क़दमों से भीड़ की धक्का-मुक्की में चलता या यूँ कहें भीड़ जहाँ धकेल देती है वह उधर हो लेता घर जाने की इच्छा न थी। भीड़ की नदी से निकल कर वह सड़क के किनारे लगे पेड़ के नीचे फ़ुटपाथ पर बैठ गया। कुछ अँधेरा भी गहरा हो गया था। पास खड़ी फलों की रेहड़ी पर मेंटल का गैस रोशन था। जो प्रकाश के मुख पर प्रकाश कर रहा था। थोड़ी देर तक वह वहाँ बैठ रहा। फिर अपने मार्ग हो लिया। 

घर पहुँचते ही उसकी पत्नी सुनंदा ने प्रश्न किया, “क्या हुआ कुछ बात बनी?” 

प्रकाश ने एक बार उसे देखा और बिना कुछ कहे पास रखी खाट पर बैठ गया। 

“लगता है आज फिर कोई बात नहीं बनी,” सुनंदा ने ख़ुद ही उत्तर दे दिया। 

प्रकाश ने गहरा निःश्वास लिया और एक टक छत को ताकने लगा। 

“कुछ कहोगे नहीं?” 

“क्या कहूँ?”स्वर में पीड़ा थी। 

“मैनेजर से बात नहीं हुई?” सुनंदा का अगला प्रश्न था। 

“हुई थी। पर वही उत्तर। फ़ैक्ट्री घाटे में चल रही है। छटनी होनी लाज़िमी है।”

“और तुमने जो इतने वर्ष वहाँ काम किया। उसका क्या?” 

“अब क्या कर सकता हूँ। मुझसे अधिक पढ़े-लिखे भी निकाले जा रहे हैं। मैं क्या बच सकता हूँ?. . .” कहते-कहते चुप हो गया। 

कुछ देर वातावरण में शान्ति रही। 

फिर सुनंदा बोली, “तुम आराम करो मैं बँटी को देख आऊँ। बाहर खेलने गया था। अभी तक नहीं आया।” 

प्रकाश खाट पर लेट गया। बल्ब की रोशनी आँखों में चुभ रही थी। उसने दूसरी ओर करवट ले ली। 

मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार आ जा रहे थे। ‘कल मेरा हिसाब हो जाएगा . . . सारा . . . दो-तीन महीने की तनख़्वाह मिलेगी—कुछ जमा पूँजी भी नहीं है। घर के ख़र्चे में सब समाप्त हो गया। अपनी छत भी नसीब ना हुई। किराए का मकान। कैसे गुज़ारा होगा?’ यह सोचते पलकें भीग गईं। 

इतने में सुनंदा बँटी को खींचते हुए कमरे में दाख़िल हुई। वह रोये जा रहा था। 

“लो सँभालो। आने का नाम नहीं ले रहा था,” धक्का देते हुए कहा। 

प्रकाश ने आँखें पोंछी और खाट पर से उठ के बँटी को पुचकारते हुए कहा, “गंदी बात। रोते नहीं। तुम तो शेर बच्चे हो और शेर बच्चे थोड़े ही रोते हैं,” और गले से लगा लिया। 

सुबह दफ़्तर पहुँचते ही उसके मैनेजर ने बुला लिया और कहा, “मिस्टर प्रकाश। आप अकाउंटेंट के पास जाकर अपना हिसाब क्लियर कर लें। कोई प्रॉब्लम हो तो कहें।”

प्रकाश ने कुछ कुछ ना कहा। वह अपना हिसाब ले कर फ़ैक्ट्री से बाहर आ गया। बाहर आकर उसने फ़ैक्ट्री का गेट निहारा। आँखों में आँसुओं की बूँदें झिलमिला पड़ीं। फिर थके-हारे क़दमों से चल पड़ा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सारे जहां में वही अयोग्य था। सभी चल रहे थे केवल वही रुक गया। 

घर पहुँच कर अपनी फ़ैक्ट्री की अन्तिम कमाई सुनंदा को थमा दी। वह समझ गई कि क्या हुआ। 

बँटी ने जब अपने पिता को देखा तो वह उससे लिपट गया। पता नहीं प्रकाश को क्या हुआ वह फूट पड़ा। अपने पिता को रोते देख बँटी ने नन्हे नन्हे हाथों से आँसू पोंछते हुए कहा, “शेर बच्चे थोड़े ही रोते हैं।”

प्रकाश ने उसे गले से लगा लिया। सुनंदा पास खड़ी सब देख रही थी। प्रकाश आँसू भरी आँखों से उसे देख मुस्कुरा दिया। उसकी आँखें भी नम हो गईं। 
 

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