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34 - न्यूयार्क की सैर भाग - 3

26 जुलाई 2003 
न्यूयार्क की सैर

 पिछली रात सोते-सोते 12 बज गए थे। घूमते-घूमते पैरों में दर्द भी हो रहा था पर शहर घूमने की तमन्ना में सुबह 6 बजे ही नींद खुल गई। स्वादिष्ट जलपान कर खिलते चेहरे लिए हम टूरिस्ट बस में जा बैठे। एक अन्य गाइड टूरिस्ट बस में पहले से ही सवार हो गया था। उसे महत्वपूर्ण स्थलों की काफ़ी जानकारी थी। उसका नाम जॉन था। मैं उससे खोद-खोदकर पूछ रही थी कि समूह से बिछुड़ने पर उससे कैसे संपर्क किया जा सके और कहाँ पहुँचा जाए। अपने सीने से चिपके मोबाइल में सब नोट करती जा रही थी। विदेशी भूमि पर कुछ ज़्यादा ही सतर्क थी। उसकी वजह -कड़वे अनुभव के कारण अतीत की दरार में मेरा एक पैर हमेशा फँसा रहता है। पिछले साल यूरोप जाते समय मैं मोबाइल नहीं ले गई थी जिसका खामियाजा मुझे भुगतना पड़ा।

बात उन दिनों की है जब मैं भार्गव जी के साथ इटली गई थी। वहाँ के प्रसिद्ध शाही महल से कुछ दूरी पर बस खड़ी हो गई और हम यात्री गाइड के साथ पैदल ऊँचाई पर चढ़कर महल पहुँचे। छोटी छोटी दुकानों में रंगबिरंगे, छोटे-बड़े मुखौटे बड़े ही लुभावने थे। उनको देखने और ख़रीदने में इतनी मशगूल हो गई कि भार्गव टूर के साथ गाइड की बात सुनते-सुनते कब आगे बढ़ गए पता ही नहीं चला। मुखौटों का सम्मोहन कम हुआ तो मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। कोई सहयात्री नज़र नहीं आया। मेरे तो होश उड़ गए। अब मैं क्या करूँ? रास्ता पूछूँ तो कैसे पूछूँ? वहाँ 99%फ्रेंच बोली जाती है। अँग्रेज़ी के भी ज्यादा जानकार नहीं फिर हिन्दी बोलने–समझने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। 

डेढ़ घंटे तक कोई मुझे खोजने नहीं आया। सोच रहे होंगे, अभी तो समय है आ जाएगी। दुकानों के आगे खड़ी-खड़ी अनजानी जगह मेरी हिम्मत जबाब देने लगी। वैसे जिस होटल में हम ठहरे थे उसका और भार्गव जी का फोन नंबर मेरे पास था पर मोबाइल नहीं था। फोन बूथ के लिए मैंने कई लोगों से इंगलिश में पूछा –ताज्जुब! न बात समझे न इशारे समझे। अगर फोन के चक्कर में वहाँ से चल भी देती तो लौटकर वहाँ आ पाती या नहीं। मैं उस जगह को छोड़कर जाना भी नहीं चाहती थी क्योंकि वहीं से मैं ग्रुप से अलग हुई थी। विश्वास था कि कोई तो ख़ुदा का बंदा मुझ पर रहम करेगा और ढूँढने आएगा। इसी बीच मैंने ग्रुप के कुछ लोगों को जाते देखा बस हो ली उनके साथ। डूबते को सहारा मिल गया। 

अकेले देख एक महिला पूछ बैठी,“अरे आप अकेली...?”

“हाँ, ग्रुप के साथ बिछुड़ गई हूँ।” 

“और आपके पति साहब ?”

“उनके तो दिमाग़ मेँ ही नहीं आया होगा कि अनजानी जगह में मैं ऐसी मूर्खता कर सकती हूँ। पीछे मुड़कर देखा ही नहीं होगा। वे गाइड के साथ-साथ चलना ज़्यादा पसंद करते हैं ताकि नए देश का इतिहास–भूगोल पता लग सके। चलते क्या हैं भागते हैं हिरण की तरह। मेरी चाल ठहरी कछुए की सी। उनका पीछा करने मेँ मेरा तो साँस फूल जाता है।” 

मेरी बात पर वे लोग ज़ोर से हँस पड़े। मेरा तनाव भी कुछ कम हुआ। वे एक ही परिवार से थे। ख़ूब मस्त। हँसी मज़ाक, ख़रीदारी खान-पान एक साथ। सच्चे अर्थ में यात्रा का आनंद उठा रहे थे। हम दूसरे रास्ते से बस की ओर चल दिए। पहुँचने पर भार्गव जी को बस में बैठे देखा –बड़ा ग़ुस्सा आया –मुझे ढूँढ़ने भी नहीं गए। तभी 2-3 युवक बस में हाँफते घुसे। थक कर चकनाचूर थे। चिंता की लकीरें माथे पर साफ़ झलक रही थीं। 

 उनमें से एक युवक बोला, "ओह आंटी आप आ गईं?” मुझे देख उनकी साँस में साँस आई। 

 दूसरा बोला, “आंटी आप कहाँ चली गई थीं?अंकल बहुत घबरा गए थे। वे आपको खोजने जा रहे थे। हमने उनको नहीं जाने दिया। वे भला आपको कहाँ-कहाँ खोजते? हमने आपको महल के चारों तरफ़ देखा... दुकान... दुकान खोजा। बस आप आ गई... सबसे अच्छी बात!” 

 इनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। साथ ही मुझ पर ग़ुस्सा भी आ रहा होगा पर समय की नज़ाकत देख होंठ सी लिए। तब से गाँठ बाँध ली कि साथ-साथ ही रहूँगी और मोबाइल को गले में लटकाकर रखूँगी। अपना वायदा मैं भूली नहीं। न्यूयार्क के लिए जबसे चली हूँ गले में मोबाइल के साथ कैमरा भी झूल रहा है। डर के मारे इन्हें नहीं देती कि कहीं फिर से गुम हो गई तो...। 

चायना बाज़ार

चायना बाज़ार की सस्ती चीज़ें ख़रीदने का सबपर नशा छाया हुआ था। कुछ ही देर में भीड़-भड़क्के से दूर चायना बाज़ार के पास बस रुकी और हमें दो घंटे का समय दिया गया। सुन रखा था वहाँ बड़ी सस्ती चीज़ें मिलती हैं। पूछने पर कपड़े, घड़ियाँ, कलात्मक क्रॉकरी न जाने क्या क्या गिनाने लगते। बस के रुकते ही हम ऐसे भागे जैसे मुफ़्त का माल बँट रहा हो, ज़रा देर हुई कि ख़तम। 

धूलभरी ऊँची-नीची पथरीली सड़क! ऐसी सड़कें यहाँ! हम मियां-बीबी ने हाथ पकड़कर सड़क पार की। कार ,बस शोर करती तेज़ी से सुरर से निकल जाती। पर हमें तो चायना मार्केट का लुत्फ़ लेना था सो पहुँच गए वहाँ। एक हिस्से को देख कलकत्ते की याद आ गई। एकदम फुटपाथिया बाज़ार ...फुटपाथ से लगीं छोटी-छोटी दुकानें पर गहरी, सामान से लदी-फदी। उसके अलावा दुकान के बाहर दोनों ओर समान टिका पड़ा था और निगरानी को एक आदमी भी स्टूल पर जमा बैठा था। अब ऐसी गुफा सी दुकान में एक आदमी के खड़े होने की तो जगह नहीं अगर 3-4 आदमी एक साथ अपनी तकक़र आज़माने घुस गए तो पैर के कुचलने में तो कोई कसर बचेगी नहीं। दुकानों के सामने ही कुछ दूरी पर ज़मीन पर टोपी, घड़ियाँ, टी-शर्ट लिए बैठे थे। अंदर बाहर, दायें-बाएँ सौदेबाज़ी की चटर-पटर –कें-कें –चीं—चीं-पूरा मछली बाज़ार था –मछली बाज़ार। 

इस छोटे, गंदे, भीड़-भाड़ से अटे बाज़ार को देख आधा उत्साह ठंडा पड़ गया। भार्गव जी की दुकानों में घुसने की तो हिम्मत ही नहीं हुई। हाँ, उपहार स्वरूप देने के लिए बाहर से ही कुछ टी-शर्ट्स और टोपियाँ खरीद लीं। कलाकृतियों में पोर्सलीन के बने चायनीज़ चेहरे अवश्य आकर्षक व सुंदर थे। 

भार्गव जी को अपने एक मित्र मिल गए। वे तो बातों में मशगूल हो गए और मुझे से कहा- यदि तुमको दुकानों से कुछ ख़रीदना है तो चली जाओ। मैं यहीं खड़ा हूँ। मैं दुकान में घुसकर एक चाबी के गुच्छे का मोलभाव करने लगी। उस पर एक ओर एम्पायर स्टेट बिल्डिंग बनी थी और दूसरी ओर लिबर्टी का स्टेच्यू। पीतल का वह लटकता मुझे बड़ा सुंदर लग रहा था। इतने में एक महिला आई। उसने दुकान दार को 20 डॉलर का नोट देकर10 डॉलर का कुछ समान खरीदा। दुकानदार ने उसे पैकिट थमाया और मेरी तरफ़ मुड़ा। 

महिला जल्दी में थी। बोली, “पहले आप हमें 10 डॉलर बकाया दे दीजिए। फिर दूसरे ग्राहक से बात कीजिए।” 

दुकानदार झट से हिन्दी में ही बोला, “आपने मुझे 10 डॉलर ही दिए थे।10 डॉलर का समान हो गया, सो हिसाब बराबर।” 

महिला हतप्रभ हो गई, “अरे मैंने आपको 20 डॉलर दिए थे।”

“आपको ध्यान नहीं, आपने10 ही दिए थे।“ 

कुछ देर बहासा-बहसी होती रही पर दुकानदार अपनी बात पर ही अड़ा रहा। महिला अनमनी होकर चली गई। पता नहीं किसकी भूल थी। 

हमारे कुछ साथी ख़रीदारी करते-करते बहुत दूर निकल गए। जब बस में मिले तो एक दूसरे को अपनी घड़ियाँ दिखाने लगे। हर एक के हाथ में स्विस घड़ी थी जो रूपरंग से लुभा रही थी। मुझे भी वे सुंदर सस्ती और टिकाऊँ लगी। अफ़सोस होने लगा, मैंने क्यों नहीं ख़रीदी... 10-15 डॉलर में इतनी शानदार! फिर याद आया – मेरा बेटा भी तो इतने ही दाम में कनाडा से दो रिस्टवाच ख़रीदकर लाया था। मुश्किल से 2-3 साल ही चली होंगी और ये मेरे टाइटिन की घड़ी –इसे तो आठ साल से बाँध रही हूँ। चलते-चलते ज़रा भी नहीं थकी। अच्छा हुआ लालच में नहीं आई। मैं भली और मेरे यह प्यारी घड़ी भली। इस तरह से अपने को सांत्वना देने लगी या यों कहो, अंगूर नहीं मिले लोमड़ी को तो कहने लगी खट्टे हैं।

थियेटर प्रेम के कारण हम सब साथी क़रीब पाँच बजे दो दिशाओं की ओर चल पड़े। एक समूह मैरियट कोर्ट यार्ड होटल लौट गया जहाँ हम सब ठहरे थे। वे ब्रोडवे शो देखने के इच्छुक न थे। दूसरे समूह में हम जैसे थियेटर प्रेमी शो देखने वाले थे। उन्हें थियेटर गेट पर उतारते हुए गाइड ने एलान कर दिया - “शॉपिंग कीजिए या विंडो शॉपिंग परंतु 8 बजते ही थियेटर के गेट पर खड़े मिलिएगा। जिन्होंने थियेटर के टिकट नहीं लिए वे बस से होटल लौट जाएँ। शो समाप्त होने पर टूरिस्ट को लेने बस दुबारा लेने आएगी। उस समय भी ग्रुप के सब लोग थियेटर के बाहर खड़े मिलें।”

बस के जाते ही हम थियेटर प्रेमी ‘स्टार बॅक कॉफी’ का स्वाद लेने में मशगूल हो गए। 

अब प्रश्न था कि हम 5 से 8 बजे तक ब्रोडवे की सड़कों पर कहाँ-कहाँ घूमेंगे? कैसे इतना लंबा समय बिताएँगे? इत्तफ़ाक से एक युगल जोड़े से हमारी दोस्ती हो गई। वे आपस में बहुत कम बात करते थे। सज्जन हमसे भी बड़ी नपी-तुली बातें करके चुप्पी साध लेते परंतु थे बड़े घुमक्कड़ी स्वभाव के। हमारे संदेह व समस्याओं को सुलझाने में दिलचस्पी लेते थे। यूरोपियन होने के कारण उन्हें अँग्रेज़ी के अलावा फ्रेंच भी आती थी और अनेक देशों का तजुरबा था। इसलिए उनका साथ होने से अच्छा ही रहा। हम उनके साथ ब्रॉडवे थियेटर के आसपास शाम के 8बजे तक जवानों की तरह सड़कों पर चहलक़दमी करते रहे। 

धूप में घूमने से गला सूखने लगा। अपने पास का पानी ख़तम हो गया। फुटपाथ पर पानी–पेप्सी की बोतलें लिए बैठे थे। दो पानी की बोतलें ख़रीदीं जो पेप्सी और बीयर से महँगी थीं। हमारे मित्र तो धड़ाधड़ सिगरेट के पैकिट खाली कर रहे थे जिसके सहारे शायद उनकी भूख-प्यास उड़ गई थी पर हमें तो पानी चाहिए था। पेप्सी भी पी पर उससे शांति कहाँ! एक बार में एक-एक गिलास पानी पीने वाले एक एक घूँट पीकर समय काट रहे थे। हर जगह पानी मिलने वाला नहीं था। बड़े-बड़े स्टोर देखने के बाद थककर सड़क के किनारे बनी बैंचों पर बैठ जाते। कभी जंक फूड ख़रीदते तो कभी बिना किसी प्रयोजन के इधर-उधर निगाहें दौड़ाने लगते। 

थियेटर का कैबरे शो 

शाम का झुटपुटा होते ही न्यूयोर्क रंगबिरंगी रोशनियों से झिलमिलाने लगा था। 

रात्रि के आठ बजते ही हम ब्रोडवेज थियेटर के सामने जा खड़े हुये और भरपूर निगाहों से उसकी बहुमंज़िली इमारत को देखने लगे। जगह-जगह विज्ञापनों की भीड़ लगी थी। सड़क के किनारे खंभों पर टिके टीवी की तरह बड़ी-बड़ी स्क्रीनों पर दर्शनीय स्थल व विज्ञापनों की छवियाँ उभर रही थीं। देखते ही देखते वे अदृश्य भी हो जातीं। दूसरे पल वह स्क्रीन दूसरी दिशा में मुड़ती और कुछ अन्य ही दिखाई देने लगता। वहाँ का मीडिया और तकनीक इतना सशक्त व आधुनिक है कि एक ही जगह खड़े होकर लगता था कि पूरे न्यूयार्क पर नज़र है। 

थियेटर के प्रमुख द्वार से प्रवेश करके सीढ़ियों द्वारा पहली मंज़िल में गए। सभागार में घुसकर बालकनी की कुर्सी में आराम से बैठ गए। हर कुर्सी के साथ छोटी सी एक मेज लगी थी जिस पर टेबिल लैंप रखा था। गिलास रखने के लिए उसमें एक गोलाकार परिधि बनी थी जिससे गिलास या कप लुढ़क न जाय।

हमारे सामने मंच की ओर अँधेरा ही अँधेरा था। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। अचानक मंच की जगह कुछ आकृतियाँ तैरती नज़र आईं। धीरे-धीरे उजाला होने पर पूरा रंगमंच झिलमिला उठा। मंच के ऊपर बनी बालकनी में वाद्य-यंत्रों के कुशल कलाकार विभिन्न मुद्राओं में खड़े या बैठे हुए थे। उनकी बालकनी से बाएँ–दाएँ मंच की ओर सीढ़ियाँ आती थीं। संगीत की झंकार के साथ पर्दे हटे। नाटक के पात्र अपनी विभिन्न मुद्राओं से दर्शकों को लुभाते रहे। नृत्य के साथ साथ उनके अंग-अंग की थिरकन, अभिनय कौशल सभी तो आश्चर्य में डालने वाला था। इस नाटक में किशोरी की तरह प्रौढ़ नायिका जब बात-बात में लजा जाती है, प्रौढ़ प्रेमी का इंतज़ार करती है तो बहुत सुंदर ढंग से अपने प्रेमी हृदय की भावनाओं को व्यक्त करती है। वाद्य संगीत सोने में सुहागा था।

इस नाट्य प्रदर्शन से केवल मनोरंजन ही नहीं हो रहा था बल्कि यथार्थ बताकर एक गूढ़ संदेश मिल रहा था। मेरी समझ से जिसका सार था—

यह दुनिया रंग रंगीली है। हर कोई यहाँ भाग रहा है। कोई पैसे के पीछे, कोई जवानी के पीछे, कोई प्रेमी के पीछे तो कोई भावनाओं के पीछे। हर प्राणी के पैर में चक्र है जो उसे नचा रहा है।इस भागदौड़ में युवा पीढ़ी यह भूल जाती है कि माँ–बाप की उम्र ज़रूर हो गई है पर उनके भी हृदय है। वे प्यार करना जानते हैं और प्यार चाहते हैं। वे बूढ़े हो गए हैं पर उनका प्रेम बूढ़ा नहीं हुआ है। उनका दिल भी धड़कना जानता है। पल–पल वहाँ भी इंतज़ार होता है किसी के आने का और बूढ़ी शिराओं में स्पंदन होने लगता है। इस समय प्रौढ़ों को ज़रूरत पड़ती है बच्चों के सहयोग की, मित्रवत व्यवहार की। तभी तो उनको लगेगा कल उनका भी है। 

जन जागृति के लिए, युवाओं की सोच में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया यह शो अति प्रशंसनीय था। 

बहुत से लोग कैबरे शो को देखने इसलिए गए थे कि शायद अर्ध नग्न ख़ूबसूरती के दर्शन हो जाएँ। पर ऐसा कुछ नहीं था। प्यार व विरही दृश्य कलात्मक सौंदर्य लिए पेश किए गए थे। एक और विशेषता थी इस शो की। नाटक में लेने वाले कलाकार बहुकलाओं में पारंगत थे। वे ख़ुद गाते थे, वे ही नृत्य करते थे, साथ में उनका अभिनय भी चलता था। हर पात्र किसी न किसी वाद्य यंत्र को बजाने में निपुण था। हम तो यह देख हैरान हो जाते थे कि जो पात्र मंच पर अभिनय कर रहा है। वह दूसरे दृश्य में लय के साथ थिरककर नृत्य कर रहा है, पर्दा गिरने पर नज़र उठी तो उसे मंच पर बनी बालकनी में बैठे वोयलिन बजाते देखा। हमारे तो अचरज की सीमा न थी। 

इतने दक्ष कलाकारों के कारण ही ब्रॉडवे के इतिहास में कैबरे उन प्रसिद्ध संगीतमय नाटकों में से एक है जो दीर्घकाल तक दर्शकों की माँग पर उनका मनोरंजन करने में सफल रहा। इसको टोनी एवार्ड से भी पुरस्कृत किया गया है। 

नाटक रात के करीब साढ़े दस बजे समाप्त हुआ लेकिन आँखें झपकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। आलीशान थियेटर का अविस्मरणीय शो! उसकी यादें सँजोकर उठ खड़े हुए जो ज़हन में अब भी तरोताज़ा हैं। 

पूर्व निश्चित योजना के अनुसार हम दोनों बाहर आ गए और अपने उन साथियों को भी खोजने लगे जो थियेटर देखने आए थे। सबके चेहरे आनंद की चमक से झिलमिल कर रहे थे।

क्रमश : 


 

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टिप्पणियाँ

Dr madhu sandhu 2019/06/26 01:15 PM

पाठक को अपने यात्रा लोक का सहभागी बनाने वाला संस्मरण ।

कृपया टिप्पणी दें

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