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प्रिय मित्रो,

दीपावली बीत गई! यहाँ अब क्रिसमस की तैयारियाँ आरम्भ हो रही हैं। बाहर पतझड़ अपने यौवन की ओर बढ़ रहा है। बस कुछ ही सप्ताह की बात है कि शरद ऋतु द्वार खटखटाने लगेगी। जब से तापमान गिरने लगा है, प्रायः मैं अपने आप को टीवी के सामने बैठा रिमोट से चैनल बदलते हुए पा रहा हूँ। इसी प्रक्रिया में एक दिन ‘ब्रह्मास्त्रा’ (मूवी में ऐसा ही कहा जा रहा था) पर जाकर अटक गया। सोचा इसे देखूँ या न देखूँ? समय कितना लगेगा, कितना बरबाद होगा। मैं इस बात पर सदा से गर्व करता रहा हूँ कि मैं किसी भी प्रकार और किसी भी स्तर की मूवी देखने/झेलने की क्षमता रखता हूँ। इसलिए ‘प्ले’ का बटन क्लिक कर दिया। पत्नी घर नहीं थी इसलिए मैं बिना किसी रोक-टोक के कुछ भी देख सकता था। कोई भी मेरी बौद्धिक क्षमता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता था। मूवी आरम्भ हो गई। नेपेथ्य से गंभीर स्वर से विभिन्न अस्त्रों का ज्ञान बाँटा जा रहा था। इसे सुनते ही मन उलझने लगा कि क्या यह पौराणिक सत्य है या साहित्य? अगर यह पौराणिक साहित्य है तो क्या उस साहित्य की सही विवेचना है? फिर विचार हावी होने लगा कि अब यह फ़िल्म देखनी आरम्भ कर ही चुके हो तो अपनी मेधा को कुछ पल विश्राम करने के लिए सुला दो। निश्चिन्त हो कर नकारात्मकता में से साकारात्मकता खोज निकालो। स्क्रीन पर धूम-धड़ाका-विस्फोट होने लगे थे। उल्काएँ खण्ड-खण्ड हो रही थीं और मैं भी इन उल्काओं के साथ शून्य की सीमाओं की ओर चल दिया।

मैं अंग्रेज़ी की वैज्ञानिक-कल्पित कथा साहित्य (Si Fi) की फ़िल्मों को भी आनन्द पूर्वक देखता हूँ तो उसी विधा में हिन्दी मूवी भी तो देख सकता हूँ। ‘मन रे . . . फ़िल्म का आनन्द ले, बिना बात के तर्क के अवरोध मत खड़े कर’ स्वयं को समझाता रहा। परन्तु मेधा थी की सोने का नाम नहीं ले रही थी। किसी तरह से पूरी फ़िल्म देखी। जैसी भी थी, आनन्द खोज ही लिया कि स्पेशल इफ़ेक्ट्स की कसौटी पर फ़िल्म खरी उतरी। फ़िल्म की समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं है। जो भी था, सो था; जैसा भी था, वैसा ही था . . .बस देख लिया। बात आई-गई हो गई।

कल फिर टीवी के सामने बैठा। इस बार पत्नी साथ थी। कहने लगी, “चलो आज पंजाबी फ़िल्म देखते हैं।” मैंने ‘तीजा पंजाब (तीसरा पंजाब)’ चुनी। पत्नी की सहमति से फ़िल्म देखनी आरम्भ की। साफ़-सुथरी बिना गाली-गलौच के संवाद सुनना, कीचड़ में सने होने पर वर्षा की शीतल फुहार सा प्रतीत हुआ। सीधी-सादी ग्रामीण वेश-भूषा में, बिना भारी मेकअप के ग्रामीण जीवन सजीव हो उठा। पंजाब की गाँवों की समस्याओं की व्याख्या करता हुआ कथानक आगे बढ़ता रहा। भोला किसान नायक, अपनी शराब की लत के चलते पैसे लेकर अपनी वोट को बेच देता है। पुराना सरपंच फिर से जीत जाता है। अपनी मीठी ज़बान की चाशनी में नायक को अपनी बातों में फँसा कर उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है। यानी कि पंजाब के गाँवों की सभी समस्याओं को लेखक और निर्देशक ने सकुशलता से प्रभावी संवादों के साथ दर्शकों के समक्ष रख दिया। कहानी यहीं नहीं रुकती। लेखक ने इस कथानक को पहले किसान आन्दोलन/धरने के साथ जोड़ दिया है। इस धरने को ही लेखक ने “तीजा पंजाब” कहा है, क्योंकि गाँव के गाँव आन्दोलन में भाग लेने के लिए आए या आने के लिए विवश हुए। नायक भी अपनी ज़मीन को वापिस लेने के लिए सरपंच के दबाव में आन्दोलन में सम्मिलित होता है। लेखक ने  इस विरोध प्रदर्शन की  राजनीति को छूने का प्रयास मात्र किया है। उसका ध्यान इस किसान आन्दोलन की पृष्ठ भूमि, झूठे प्रचार, स्वार्थ सिद्धि और सामाजिक प्रभावों को दिखाने पर अधिक केन्द्रित रहा है। पटकथा लेखक, निर्देशक इत्यादि ने बिना किसी राजनीतिक दलदल में फँसे अपनी बात कह भी दी और कही भी नहीं। 

फ़िल्म देखने के बाद मैंने नीरा को बताया कि दो दिन पहले मैं ब्रह्मास्त्रा देख के हटा हूँ। मुस्करा के बोली, “तो फिर . . .? मैं तो समय बरबाद नहीं करती।”

अब सोच रहा हूँ कि सिनेमा का साहित्य केवल ‘स्पेशल इफ़ेक्ट्स’ है या फिर सिनेमा में साहित्य की अपेक्षा करना ही मूर्खता है। . . . शायद हिन्दी फ़िल्मों के निर्माता, आंचलिक सिनेमा से कुछ सीख सकें जिन में लोक-साहित्य, संस्कृति और भाषा अभी भी जीवित है। 

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

प्रकाश मनु 2024/11/16 06:50 PM

प्रिय भाई घई जी, बहुत अनौपचारिक अंदाज में आपने सारी बातें कह दीं। और बिना कहे ही बहुत कुछ कह दिया। शायद बात कहने का यह सबसे अच्छा अंदाज है। मेरे गुरु रामदरश जी अकसर कहते हैं, सादगी से बड़ी सुंदरता कुछ और नहीं। और सहजता से बड़ी कोई कला नहीं। प्रेमचंद को पढ़ते हुए भी यही सीखा। मुझे याद है, दसवीं कक्षा तक आते-आते मैं लगभग उनका समूचा साहित्य पढ़ चुका था, और मुझे कोई मुश्किल नहीं आई। क्या यह लेखन का जादू नहीं, जो हम आज भी उनसे सीख सकते हैं। और जो चीज साहित्य में है, वही कला, संगीत, फिल्म जगत सब जगह देखी जा सकती है। आपने सहज ही एक बड़ा सवाल उठा दिया। बेशक उस पर गौर किया जाना चाहिए। मेरा स्नेह और साधुवाद, प्रकाश मनु

महेश रौतेला 2024/11/16 12:28 PM

हाल में मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल के भूतपूर्व प्रोफेसर( हिन्दी) को फेसबुक पर पढ़ा। उन्होंने "काफ्का" की बात की और" प्यासा" फिल्म की बात की। आगे लिखा जब नैनीताल में प्यासा फिल्म कैपिटल सिनेमा में लगी तो मध्यांतर के बाद पिक्चर हाँल में केवल चार लोग बचे थे। मैंने टिप्पणी की कि काफ्का ने भी लिखा था उनकी मृत्यु के बाद उनकी रचनाएं जला दी जायं वे महत्वपूर्ण नहीं हैं। लेकिन उनके दोस्त ने ऐसा नहीं किया। अगली पोस्ट में उन्होंने राजकपूर और प्रेमचन्द की बात ली। फिर आगे शैलेंद्र की "तीसरी कसम" की बात की है। इसी संदर्भ में देवानंद की बात याद आती है जो कहते थे तीन घंटा व्यक्ति पिक्चर हाँल में मनोरंजन करने जाता है,वास्तविक संसार को छोड़कर। आजकल की कुछ ही फिल्में ठीक होती हैं। पुराने गाने (५०-६०-७० दशक के) भूले नहीं भुलाये जाते।

Stichting Maitry मैत्री Vriendschaap voor iedereen 2024/11/15 12:02 PM

आपका संपादकीय बहुत सार्थक है। हम विदेश में रहने वाले लोग जब आज का भारतीय सिनेमा देखते हैं तो तीसरी दुनिया में पहुँच जाते हैं । क्योंकि हमारे लिए भारत का प्रगति करना यानी आधुनिकीकरण की ओर बढ़ना ले है न की अंधनंगे , फूहड़पन और असभ्य भाषा लेगा। भारत की प्रादेशिक सिनेमा में भी अब बदलाव आता जा रहा है। किन्तु कुछ प्रादेशिक फ़िल्में ऐसी भी हैं जो भारत के आधुनिक होने के साथ साथ भारत की संस्कृति व परंपराओं को भी विश्व में पहुँचाती है। अच्छे संपादकीय के लिए बहुत बहुत साधुवाद

सरोजिनी पाण्डेय 2024/11/15 09:27 AM

आदरणीय संपादक महोदय अपने प्रिय विषय पर संपादकीय पढ़कर बहुत अच्छा लगा।लोक भाषा, लोक संस्कृति, लोक कथा, लोकगीत, लोक परंपराएं इत्यादि मुझे बहुत लुभाती हैं और मेरा पूरा प्रयत्न रहता है कि किसी तरह उन्हें बचाने का प्रयास किया जाए ‌।यही कारण है कि मैं जो भी लिखती हूं उसमें जब आंचलिक शब्द आते हैं तो मैं उनका प्रयोग बेझिझक करती हूं। अक्सर मुझको दुख होता है कि जब मैं बच्ची थी, ननिहाल और अपने गांव जाने का अवसर अक्सर मिलता था ,उस समय मुझे इतनी बुद्धि क्यों न थी की नानी दादी से सुनी बातों , कहानियों को लिख कर संजो लेती और अब उन्हें संभाल कर रखने के बाद दुनिया को बताती। लेकिन बीता समय लौटकर नहीं आता।

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