प्रिय मित्रो,
पिछले तीन दिनों से वर्षा निरन्तर चलती रही। धीमे-धीमे परन्तु निरन्तर। आज सुबह भी बारिश के साथ ही आरम्भ हुई। अप्रैल का महीना, यहाँ पर वर्षा ऋतु का ही होता है। अग्रेज़ी की कहावत भी है कि “अप्रैल शॉवर्ज़ ब्रिंग मे फ़्लॉवर्स” यानी “अप्रैल की बौछारें लाती हैं मई में फूल”। जब भारत से कैनेडा आए अभी अधिक समय नहीं हुआ था तो अप्रैल में वर्षा ऋतु समझ नहीं आती थी। वर्षा ऋतु का क्रम भारत के अनुसार तो ग्रीष्म ऋतु के बाद होना चाहिए। इस संदर्भ में एक स्मृति है। एक वर्ष अनुभूति ई-पत्रिका की सम्पादिका पूर्णिमा वर्मन जी ने “ग्रीष्म महोत्सव” के लिए कविताएँ आमन्त्रित कीं तो मुँह से शब्द निकले—ग्रीष्म महोत्सव का आमन्त्रण आया और चली आई बरसात! प्रायः प्रवासी लेखकों पर भारतीय आलोचक नॉस्टेलजिया/गृह-विरह/अतीत में जीने के दोष लगाते हैं और इसे प्रवासी साहित्य का अवगुण भी मान लिया जाता है। क्या यह दोषारोपण उचित है? विशेषकर उन आलोचकों के द्वारा जिन्होंने गृह-विरह की अनुभूति को जिया ही नहीं है।
मेरे कम्प्यूटर के मेज़ के पीछे यानी मेरे सामने खिड़की है। क्योंकि मेरे घर से सड़क घूमती है, इसलिए जब लैपटॉप से आँख ऊपर उठती है तो सामने ख़ाली सड़क और मेरे लॉन की दायीं तरफ़ पाँच स्प्रूस/सरल वृक्ष दिखाई देते हैं। इस लगभग १०० मीटर लम्बी सड़क के अंत में दायीं और इतने ही चीड़ के पेड़ हैं। पंजाब के मैदानी इलाक़े में पले-बढ़े मुझ जैसे व्यक्ति के लिए इन पेड़ों के साथ तादात्म्य नहीं बन पाता। यह जानते हुए भी कि पिछले पचास वर्षों से यही वास्तविकता है। परन्तु “दिल है कि मानता ही नहीं” फिर से लौट-लौट कर बचपन की गलियों की और सरपट भाग निकलता है। वर्षा ऋतु की पहली बूँद के साथ माटी से उठती सुगंध को मैं यहाँ खोज नहीं पाता। दूर क्षितिज पर छाते मानसून के बादलों को देखते ही लुधियाना के “रक्ख बाग़” में जमा हुआ हमारा क्रिकेट का खेल बिखर जाता था। बादलों से साथ हमारी स्पर्धा आरम्भ हो जाती थी कि किसी तरह बग़लों विकटें दबाए, निक्कर की जेब में गेंद को ठूँसे, भागते हुए फ़व्वारे वाला चौंक पार कर गौरों की क़ब्रों वाली सड़क के दायें हाथ के पाँच पार्कों के अन्त वाली गली में अपने घर बिना गीले हुए पहुँच जाएँ। कभी हम जीत जाते तो जीतने की ख़ुशी, और अगर भीग जाते तो बरसात में नहाने का आनन्द। पहली बूँद शरीर पर गिरते ही भागना थम जाता। अब खेल पूरी तरह से भीगने में बदल जाता। कितने सुन्दर दिन थे।
तीन वर्ष पहले की बात है। कोविड काल था। बेटा और बहू “वर्क फ़्रॉम होम” कर रहे थे। सुबह मैं जाकर अपने पोते युवान को अपने यहाँ ले आया करता था। गर्मियों के दिन थे। उस दिन अचानक बादल घिर आए और मोटी-मोटी बूँदों वाली बरसात बरसने लगी। पिछले आँगन में बुदबुदों की बारात चलने लगी। मैं और मेरी पत्नी नीरा, किचन के काउंटर पर बैठे बाहर देख अपना बचपन याद कर रहे थे। युवान अपना मुँह शीशे के दरवाज़े पर चिपकाए वर्षा को देख विस्मित हो रहा था। मेरे और नीरा के मन में एक ही समय एक ही विचार आया। गर्मी तो बहुत है और ऐसे में अगर हम दोनों युवान को लेकर पिछले आँगन में निकल जाएँ तो! दरवाज़ा खोला और हम अपने बचपन में लौट गए बस अंतर यह था कि साथ गोद में तीन वर्षीय पोता भी था।
हम तीनों हँस रहे थे। नीरा खिलखिला रही थी, “युवान भी तो जाने, बरसात में नहाने का मज़ा क्या होता है!”
जल्दी ही वर्षा बन्द हो गई। युवान “मोर, मोर” की रट लगाने लगा। उसका मन अभी भरा नहीं था। मैं उसे मनाने का प्रयास कर रहा था। नीरा को कुछ सूझा, कहने लगी कि मैं उसे मुड़े हैंडल वाला छाता ला दूँ। उसके बाद दादी ने पोते को गोदी में उठाया और मेपल के पेड़ की निचली शाखाओं को हैंडल में फँसा कर युवान के लिए बारिश फिर से शुरू कर दी।
घर में आकर तौलिए से बदन पोंछा तो एसी में ठंड लगी। फिर बरसात की शाम को चाय और पकौड़ों की तलब सताने लगी। पंद्रह बीस मिनट में यह हसरत भी पूरी हो गई। उस दिन पहली बार युवान भी हमारे साथ चाय पीने बैठा। उसे एक कप में तीन-चार बूँद चाय डाल दी। वह इतने में ख़ुश था कि दादा-दादी के साथ चाय पी रहा है।
आज सुबह लगभग साढ़े साथ बजे बारिश बन्द हुई। युवान दादी के साथ सो रहा था। हर सप्ताहांत में किसी एक रात के लिए सोने के लिए आ जाता है। सुबह नाश्ते के बाद, नौ बजे तक उसे वापस छोड़ कर आना था। नाश्ते के बाद जब उसे साथ लेकर निकला तो बादल छँटने लगे थे। नीला आकाश बादलों में से झाँकने लगा था। बादलों के किनारे सुनहले हो रहे थे। मैं मिसिसागा के पश्चिमी छोर पर रहता हूँ। मिसिसागा से सटा हुआ शहर है ओकविल जहाँ मेरा बेटा रहता है। मुख्य सड़क की अपेक्षा मैं पुरानी सड़क “बर्नहमथॉर्प रोड” लेता हूँ। यह ग्रामीण इलाक़े से होकर गुज़रती है। सड़क के दोनों ओर खेत हैं, जो धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। ओकविल पश्चिम से पूर्व की ओर सरक रहा है। संभवतः अगले दो-तीन वर्षों में खेत नहीं रहेंगे। मिसीसागा और ओकविल जुड़ जाएँगे। यह सभी खेत और गाँव देखने से ही लगता है कि किसी सहस्त्रों वर्ष पुरानी, दो-तीन किलोमीटर चौड़ी नदी की तल पर बसे होंगे। एक खेत के एक कोने में सदा पानी रहता है, मिट्टी भी गीली ही रहती है। आज सुबह वह भाग तीन दिन की वर्षा के बाद एक नदी का रूप ले रहा था। मैं सोच रहा था, कि हज़ारों वर्ष पहले यह कितना सुन्दर क्षेत्र रहा होगा। दो-तीन किलोमीटर की चौड़ाई वाली नदी ओंटेरियो झील में गिरती होगी। क्योंकि इस क्षेत्र में अभी भी पानी का स्तर सतह के बहुत समीप है, इसलिए घरों के बीच में तालाब बनाए जा रहे हैं। ताकि पानी उनमें एकत्रित होता रहे और घरों की बेसमेंट में पानी न रिसे। मानव स्वार्थ के लिए किस तरह पर्यावरण पर, भूगोल पर नकेल डाल रहा है।
अब आप ही बताएँ, इस सम्पादकीय में स्मृतियाँ तो स्मृतियाँ हैं—नॉस्टेलजिया क्या, वास्तविकता क्या!
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2024/04/21 08:34 PM
अपने सभी उत्तरदायित्व निभाने के पश्चात प्रौढ़ावस्था में ख़ाली समय में भूली-बिसरी यादों को यदा-कदा तरो-ताज़ा कर लेना स्वभाविक ही है। वरना मशीन की भाँति दौड़ती-भागती दिनचर्या में किसी को उन सुखद स्मृतियों को बाँटने का समय कहाँ मिल पाता होगा।साधुवाद।
महेश रौतेला 2024/04/19 09:17 PM
स्मृतियां जीवन की अभिन्न अंग हैं। चीड़ मेरे बचपन से जुड़ा है। उत्तराखंड में बहुत होता है। साथ में बुरांश( उत्तराखंड का राज्य वृक्ष), काफल, बांज आदि। आपने मोपल वृक्ष का नाम लिया । हम बेटी के जन्मदिन पर(१३अप्रैल) मोपल-99 में खाना खाने गये तो मैं बच्चों से पूछ बैठा "मोपल" का क्या अर्थ होता है!उन्होंने चित्र दिखाकर मुझे बताया।
सरोजिनी पाण्डेय 2024/04/16 04:34 PM
आदरणीय संपादक जी, आज का संपादकीय पढ़कर यह विश्वास और दृढ़ हो गया का उम्र के साथ मनुष्य अपनी जड़ों सेऔर अधिक गहराई से जुड़ता जाता है। गृह विरह को दोष मानना हृदय की कोमला का हनन है। मर्मस्पर्शी !!
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- उलझे से विचार
शैलजा सक्सेना 2024/04/25 09:07 PM
मन हमेशा सुंदर की ओर लौटता है, सुंदर और मीठी यादें...और सुंदरता की सोचते ही उसकी पहली छापें याद आती हैं, माँ, घर, बचपन, उसके साथी। "मेघदूत" आपको मिसीसागा से ’रक्ख बाग" ले गए..यह याद कितनी सरल, सुंदर और मीठी है। अब युवान के साथ की मीठी याद उसके कॉलेज चले जाने के बाद भी रहेगी। आप उसे याद दिलाते रहेंगे उस घटना का तो उसे भी इस मिठास का आनंद मिलेगा क्योंकि तीन साल के बच्चे को शायद स्मृति न रहे पर बाबा दादी के घर आकर सोने की याद उसकी मीठी और सुंदर यादों में शामिल हो रही है। श्रुति और स्मृति साहित्य का भारतीय साहित्य में विशेष महत्व है। जो उन्हें नकारते हैं वे शायद उसकी अति या सर्वाति को नकार सकते हैं अन्यथा ऐसा कौन हो सकता है जो अपनी स्मृतियों से अलग हो सकता है। स्मृति, नॉस्टेलिजिया ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है, वर्तमान भी तो अतीत पर टिका है। आपके सुंदर संपादकीय ने चर्चा का नया बिंदु दिया और साथ ही लेखनी की सहजता और सरलता ने बारिश की बूँदों में भीगने का आनंद दिया। आपको बहुत-बहुत बधाई। पत्रिका के निरंतर प्रकाशन पर विशेष बधाई।