प्रिय मित्रो,
पिछले अंक यानी जुलाई के द्वितीय अंक के सम्पादकीय में मैंने राष्ट्रवाद की चलते-चलते विवेचना की थी। कोई गहन विश्लेषण नहीं किया था। मैं उन मित्रों को धन्यवाद कर रहा हूँ जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत की और उन्होंने उसे साहित्य कुञ्ज के व्हाटसऐप समूह पर भी पोस्ट किया। कुछ पाठकों सम्पादकीय कमेंट में भी अपने विचार साझा किए। साहित्य कुञ्ज की लेखिका शैली जी और लेखक राजनन्दन सिंह जी की टिप्पणियाँ विश्लेषणात्मक थीं। राजनन्दन जी ने एक औपचारिक सम्पादकीय-प्रतिक्रिया लिख कर प्रकाशन के लिए भी भेजी जो कि इस अंक (अगस्त प्रथम अंक) में प्रकाशित हो रही है। शीर्षक है— लोक प्रथम या राष्ट्र प्रथम? आशा है कि आप प्रतिक्रिया के शीर्षक पर क्लिक करके पढ़ेंगे और अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवगत करवाएँगे।
आज का सम्पादकीय भी पिछली बार की तरह ही राजनैतिक विचार धाराओं के विषय पर ही होगा।
अंक प्रकाशन से एक दिन पहले मैं कहीं बाहर नहीं जाता, क्योंकि मेरा मस्तिष्क पूर्णतया अंक को समेटने पर केन्द्रित रहता है। आज भी ऐसा ही था परन्तु कल एक मित्र ने नीरा को फोन कर के गोल-गप्पे खाने की इच्छा प्रकट की थी। वैसे तो वह फिलिपींस से है पर समय-समय पर उसे गोल-गप्पे खाने की धुन सवार हो जाती है। उसने, मेरी पत्नी के साथ लगभग पच्चीस वर्ष तक पोस्ट ऑफ़िस के एक ही विभाग में काम किया है। इन दिनों सेवानिवृत्त होने के बाद उसने अपना घर फ़िलीपींस में बना लिया है। वह सर्दी के पाँच महीने वहाँ काटता है और गर्मियों में कैनेडा लौट आता है। पिछले सप्ताहांत पर नीरा ने गोल गप्पे और पापड़ी-भल्ला चाट के लिए चटनियाँ और गोल-गप्पे का पानी बनाया था। अधिक ताम-झाम तो करना नहीं था, इसलिए महीने का अन्तिम दिन होते हुए भी, उसे आमन्त्रित कर लिया था। बाक़ी काम तो संभाल ही चुका था, केवल सम्पादकीय लिखना बाक़ी था। सोचा टोनी के जाने के बाद भी लिखने के लिए पर्याप्त समय है। बस विषय का चयन करना होगा। टोनी के आने से विषय भी मिल गया।
टोनी की एक कट्टर राजनीतिक विचारधारा है। विशेष बात यह है कि वैसे तो वह एक फिलिपीनीस-कनेडियन है परन्तु वह यू.एस.ए. की राजनीति में कैनेडा की अपेक्षा अधिक गहन रुचि लेता है। वह कट्टर ट्रंप विरोधी है। अभी तक वह बाइडन के कारण यू.एस.ए. के चुनाव के प्रति उदासीन था। आज जब मैंने उसके लिए घर का दरवाज़ा खोला, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट फैली थी, बोला, “सुनो सुमन, कमला तो ट्रंप की अच्छी-ख़ासी पिटाई कर रही है।” क्योंकि मैं भी राजनीति में रुचि रखता हूँ, इसलिए उसे मेरे साथ राजनीति पर बात करना अच्छा लगता है। अन्दर आकर हालवे की कुर्सी पर बैठ कर जूते उतार कर वहीं बैठ गया।
मैंने अपनी प्रतिक्रिया को अधर में लटकाते हुए कहा, “टोनी, अब यू.एस.ए. के चुनाव में गरमी आएगी।” यानी मैंने कमला हैरिस के पक्ष न तो कुछ कहा और न ही ट्रंप का खंडन किया।
टोनी ने मुझे उकसाने का प्रयास किया, “जानते तो ट्रंप तो कमला को गालियाँ निकालने पर उतारू हो गया है।”
उसे पूरी आशा थी कि क्योंकि कमला आंशिक रूप से भारतीय मूल की है, इसलिए शायद मैं भड़क उठूँगा। मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “इसमें क्या नया है? पिछले चुनाव में भी तो ट्रंप यही कुछ कर रहा था। कभी गालियाँ और कभी ‘फेक मीडिया’ की दुहाई—यही तो उसकी चाल है।”
उधर नीरा उत्सुक हो रही थी कि यह दोनों अगर राजनीतिक बातचीत में उलझे तो उसकी तैयारी बेकार जाएगी। उसने आवाज़ दी, “टोनी, इधर काउंटर पर बैठो और फिर जितना दिल चाहे ट्रंप को कोसना।”
काउंटर पर बैठते हुए टोनी अंतिम बाण छोड़ा, “ट्रंप आया तो यू.एस.ए. में प्रजातन्त्र समाप्त हो जाएगा।”
“यू.एस.ए. में प्रजातन्त्र है ही कहाँ?” मैने उसे उकसाया। परन्तु वह मुझे अच्छी तरह जानता है। मेरी टिप्पणी को अनसुना करते हुए उसने नीरा को कहा, “मेरे गोल-गप्पों में ऊपर से धनिया अवश्य डालना।”
नीरा ने कटिंग बोर्ड सामने रखते हुए कहा, “बाहर किचन-गार्डन में एक गमले में केवल तुम्हारे लिए ही धनिया बीज रखा है। जितना मर्ज़ी खाओ।”
टोनी मेरी ओर पलटा, “तुम कैसे कह सकते हो?”
“आजकल प्रजातन्त्र हर देश में ख़तरे रहता है। चाहे भारत के चुनाव हों या यू.एस.ए. के। यह अमेरिका के डैमोक्रेट्स का बहाना और नारा है। जिस देश में डैमोक्रेटिक विचारधारा के अनुसार सरकार नहीं होती, वहाँ प्रजातन्त्र ख़तरे में आ जाता है। अन्य देशों के तानाशाह भी स्वीकार्य हो जाते हैं।”
“क्या मतलब?”
मैंने अपना तर्क दिया, “अब कमला हैरिस की उम्मीदवारी को ही ले लो। क्या उसका राष्ट्रपति पद के लिए उसका चयन प्रजातान्त्रिक है? नैन्सी पलोसी (अमेरिकी कांग्रेस/लोकसभा की अध्यक्ष) ने दबे स्वरों से चुनावी कंन्वेशन का सुझाव दिया था ताकि कमला हैरिस की उम्मीदवारी पर कोई प्रश्न चिह्न न लगाए। क्या किसी ने उसकी बात सुनी या डेमोक्रैट मीडिया ने उसकी बात की? एक के बाद एक ने डैमोक्रेट्स के नेताओं ने अनुमोदन कर दिया और कमला हैरिस राष्ट्रपति का कैंडीडेट बन गई।”
टोनी थोड़ी देर के लिए चुप रहा। फिर अचानक बोला, “साफ़ साफ़ बताओ कि तुम कमला के सपोर्टर हो या ट्रंप के?” वह तनाव में था। “कमला का समर्थन करते हो या ट्रंप का?”
“मैं किसी का समर्थन करूँ या विरोध, क्या अन्तर पड़ता है। मैं कैनेडियन हूँ, चुनाव यू.एस.ए. में है। टोनी, बस इस चुनाव के मनोरंजन का आनन्द लो।”
टोनी ने कहा, “एक बात पर तुम सहमत होगे कि यू.एस.ए. में जिसकी सत्ता होती है उसकी नीतियों का प्रभाव वैश्विक होता है।”
“हाँ, प्रभाव तो होता ही है। परन्तु कमला की क्या विचारधारा है, यह अभी तो कोई भी नहीं जानता। यू.एस.ए. के उप-राष्ट्रपति को कोई कितना जान सकता है। उनकी व्यवस्था ही ऐसी है कि उप-राष्ट्रपति पर्दे के पीछे अधिक रहता है। ऐसे में क्या तुम नहीं समझते कि डैमोक्रैट्स कितना बड़ा जुआ खेल रहे हैं। अभी कुछ महीने पूर्व तक कमला हैरिस की ग़लतियाँ चर्चा का विषय रहती थीं। और आज वह दल की सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हो गई। मैं तो कहता हूँ कि ट्रंप यूक्रेन युद्ध को तुरंत समाप्त करवाने का वायदा कर रहा है। कमला हैरिस अभी भी ज़ेलंस्की के समर्थन की बात कर रही है। वैसे वह स्पष्ट कह भी तो नहीं सकती कि राष्ट्रपति बाइडन की नीति ग़लत थी।
“पूरा यूरोप इस युद्ध से बर्बाद हो रहा है। इसी युद्ध के कारण विश्व की विकासशील अर्थ व्यवस्थाएँ डॉलर का विकल्प खोज रही हैं। तुम इस बात को समझ ही रहे होगे कि डी-डोलराइज़ेशन का कितना बुरा प्रभाव पश्चिमी देशों पर पड़ेगा।”
टोनी भड़का, “यानी तुम ट्रंप समर्थक हो।”
मैं हँसा, “हम कौन होते हैं। समर्थन या विरोध करने वाले।”
अब बातचीत नीरा की सहनशक्ति को पार कर रही थी। उसने चाट की दो प्लेटें हम दोनों की ओर सरकाईं और कहा, “तुम दोनों ने यू.एस.ए. का चुनाव तो तय कर लिया, अब चुपचाप चाट खाओ।”
हम दोनों ने मुस्कुराते हुए प्लेटें अपनी ओर खींची।
टोनी बोला, “इस पर ज़रा और धनिया डाल दो।”
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2024/08/02 09:02 PM
चटपटी चाट के बहाने उससे भी अधिक मसाले में लिपटी राजनीति बहस का लाभ उठाने हेतु टोनी साहब ने एक पन्थ दो काज कर दिखलाये। आदरणीय सम्पादक जी सहित चाट बनाने वाली आदरणीया नीरा जी व धनिया से गार्निशिंग की हुई चाट के चटकारे लेने वाले बुद्धिमान मित्र को साधुवाद।
सरोजिनी पाण्डेय 2024/08/02 03:35 PM
आदरणीय संपादक जी, मैं हिंदी साहित्य की 'तकनीकी शब्दावली ''से परिचित नहीं हूं,परंतु अपनी साधारण बुद्धि से मैं लोक साहित्य को आदि साहित्य मनाना चाहती हूं।अधिकांश लोक कथाओं की शुरुआत ही होती है 'एक था राजा' अब जहां राजा होगा वहां राजनीति तो होगी ही !तो साधारण जनता चाहे जितना भी सोच ले कि "कोई नृप होहि हमहिं का हानी - - -" तो यदि हानि होती है तो जनता को तो होती ही है लाभ चाहे ना भी हो, हानि तो सदा जनसाधारण की ही होती हे
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राजनन्दन सिंह 2024/08/03 10:40 AM
राजनीतिक चर्चा गोलगप्पे के पानी और चाट से भी ज्यादा चटपटी एवं स्वादिष्ट होती है। वस्तुतः जब बात विचारधारा एवं व्यक्तिगत पसंद पर आती है तो हम उन पार्टियों उम्मीदवारों की हार जीत को भी अपनी इच्छा से जोड़ देते हैं जहाँ के हम न तो मतदाता होते हैं, न नागरिक और न ही वहाँ के चुनावी परिणाम हमें प्रत्यक्ष रुप से प्रभावित करता हैं। भारतीय राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह अक्सर यह देखा जाता है। भारत में विधानसभा चुनाव चाहे कहीं भी, किसी भी राज्य में हो। समुचा भारत उसमें अपने हिसाब से परिणाम की उम्मीदें रखता है। मनपसंद पार्टी की जीत पर खुश होता है और विपरीत पसंदी दलों की जीत पर दुखी। सबसे ज्यादा उम्मीदों में रहता है हमारा बिहार। वहाँ तो लोग अक्सर अपने दावे को सही ठहराने के लिए क्रिकेट परिणामों की तरह सट्टेबाजी पर उतर आते हैं और कभी-कभी तो हाथापाई मारपीट भी कर लेते हैं। अंत में जब परिणाम आता है तो जाकर शर्मिंदगी जाहिर करने में भी देर नहीं करते। "भईया मैं गलत था, आप हीं सही थे।" इस अंक के संपादकीय से पता चला कि ऐसी सोच भारत से बाहर विकसित देशों में भी है। टोनी साहब फीलिपिन्स एवं कनाडा में रहते हैं परंतु अमेरिका में लोकतंत्र समाप्ति का भय उन्हें भी सताता है। निष्कर्ष यही है कि विपरीत विचारधारा की जीत हम से दूर, चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हों। हमें डराती है। आहत करती है। ठीक उसी तरह जैसे समान विचारधारा की जीत, हम से दूर चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो। हमें एक खुशी और संतुष्टि देती है। कारण यही है कि हम वहाँ की राजनीति में भी दिलचस्पी रखते हैं जहाँ से हमारा कोई प्रत्यक्ष लेन देन अथवा राजनीतिक संबंध नहीं होता। परंतु राजनीति से ऊपर एक मानवता का संबंध हमें सारी दुनिया से होता है। मानवता के नाते अमेरिका के लोग दुनिया के लिए क्या सोचते है नहीं पता। मगर मानवता के नाते फीलिपिन्स के लोग भी नहीं चाहते कि अमेरिका में कोई ऐसी सरकार बने जिससे अमेरिका के लोग परेशान हों। इसलिए यदि हम फिर से गौर करें तो पाएंगे कि राजनीतिक चर्चा जो स्वादिष्ट चाट से भी ज्यादा चटपटी है वह बेरस नहीं है। उसके पीछे हमारी अपनी मानवीय प्रवृत्तियों के समान प्रवृत्ति की जीत आपेक्षित है।