प्रिय मित्रो,
बुद्धिजीवी कभी भी असमंजस की स्थिति में नहीं होता। उसे प्रत्येक समस्या का समाधान मालूम होता है कम से कम आत्मनिरीक्षण या आत्मविश्लेषण करते हुए वह ऐसा ही मानता है। इस पूर्वाग्रह के परिणाम बहुत घातक हो सकते हैं।
आज सुबह से और जब से अपना लैपटॉप ऑन किया है तब सेैं यही सोच रहा हूँ। होता यह है कि जैसे ही लैपटॉप ऑन करता हूँ तो होम स्क्रीन पर वैश्विक समाचार दिखाई देते हैं। विश्व की राजनीति का विश्लेषण करते हुए राजनीतिक विश्लेषकों की वीडियो से लेकर आलेख तक पढ़ने के लिए उपलब्ध होते हैं। अगर कोई भी पाठक इन्हें कुछ सप्ताहों तक पढ़ता रहे तो वह समझने लगता है कि कौन-सा समाचार पत्र, पत्रकार और विश्लेषक किस विचारधारा का प्रवर्तक है। यह लोग अपनी विचारधारा का समर्थन जुटाने के लिए ऐसे-ऐसे तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जैसे किसी अन्य धारा के विचारक उसकी मेधा के समक्ष तुच्छ जीव हैं। समाचार पत्रों में समाचार भी बहुत चतुरता से प्रस्तुत किए जाते हैं। किन उक्तियों को उभारना है और किन उक्तियों, तथ्यों को छिपाना है, की कला को इन समाचार पत्रों के सम्पादक और पत्रकार भली-भाँति जानते हैं।
यह सभी लोग बुद्धिजीवी वर्ग में आते हैं। बुद्धिजीवी होता कौन है? उसकी परिभाषा क्या है? बुद्धिजीवी वह प्राणी है जो अपनी बुद्धि के बल पर आजीविका का अर्जन करता है। यह परिभाषा तो एक व्यापक परिभाषा है। इसके अनुसार, तो ठग अपनी बुद्धि के बल पर ही ठगता है। क्या एक प्राध्यापक और एक ठग को इस परिभाषा के अनुसार व्याख्यायित किए जा सकते हैं? क्या आप ऐसा करना स्वीकार करेंगे? कम से कम मैं तो नहीं करूँगा। परन्तु इसका एक पक्ष और भी है। अगर यह बुद्धिजीवी वर्ग किसी वास्तविकता को केवल अपने ही रंगीन चश्मे से देखें और उसे ही सर्वमान्य घोषित कर दें तो एक शठ और बुद्धिजीवी में अन्तर ही क्या रह गया? या वह जानबूझ कर तथ्यों को छिपाते हुए अपने तर्क को प्रमाणित करने का प्रयास करें तो उन्हें धोखेबाज़ क्यों नहीं कहा जा सकता। राजनीतिज्ञों से इसकी अपेक्षा की जा सकती है। कूटनीतिज्ञ भी इसी श्रेणी में आते हैं परन्तु एक प्रकार से यह उनका चातुर्य माना जाता है। यह ठीक है या नहीं यह एक अलग विषय है। परन्तु प्राध्यापक, साहित्यकार और अन्य कलाकार एक अलग श्रेणी के बुद्धिजीवी होने चाहिएँ क्योंकि समाज उन पर आँखें मूँद कर विश्वास करना चाहता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता में गुरु का स्थान बहुत ऊँचा है। क्या वास्तव में ऐसा होता है?
यह प्रश्न कोई नया नहीं है। इसका उत्तर सहस्त्राब्दियों इतिहास में प्रमाणित होता रहा है। आप इसके उदाहरण पौराणिक काल से आधुनिक युग तक खोज सकते हैं और इन्हें खोजने के लिए अधिक गहरे अनुसंधान की आवश्यकता भी नहीं है।
इस वर्ष विश्व के की महत्त्वपूर्ण देशों में चुनाव हो रहे हैं। भारत में हो भी चुके हैं। इन चुनावों में पश्चिमी देश भारत के प्रजातन्त्र की स्थिति पर चिंता करते हुए दिखाई दिए। वास्तविकता यह है कि इन देशों के प्रजातन्त्र की दशा भी कोई अधिक अच्छी नहीं है। जिस अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का झण्डा उठा कर यह चल रहे हैं, उस अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता स्वयं अपने देशों में निरन्तर कुचल रहे हैं। समस्या तो यह है कि बुद्धिजीवी वर्ग ही बुद्धिजीवी वर्ग को कुचल रहा है। कारण एक ही है कि “मेरा तर्क सर्वमान्य होना चाहिए” इसके साथ ही जिसकी लाठी उसी की भैंस भी चरितार्थ हो रहा है।
विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक छात्रों का “ब्रेन वाश” कर रहे हैं। संतुलित शिक्षा देने की अपेक्षा अपनी विचारधारा का पलड़ा भारी रख रहे हैं। समाचार के चैनल भी ख़रीदे जा चुके हैं। यू-ट्यूब के तथाकथित विश्लेषक भी अपनी अपनी दुकान का माल ही बेच रहे हैं। इन सब लोगों को तथ्य और वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। अपने “व्यूज़” और टीआरपी की चिंता से ग्रस्त यह लोग वही बेच रहे हैं जो बिकता है।
चिंता की बात यह कि विश्व भर में युवा प्रभावित हो रहा है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं रह गया है। जब समाज ही दूषित हो जाएगा तो साहित्य का प्रदूषित हो जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। भारत के बारे में प्रायः चिन्ता करता हूँ। वहाँ की राजनीति की चिन्ता करता हूँ। समाज के बिखरने की चिंता होती है। यूएसए में पिछले चुनावों में ट्रम्प की पराजय के बाद मतदाताओं की एक बड़ी संख्या चुनाव की वैधता मानने को तैयार नहीं थी। भारत की परिस्थिति भी चिंताजनक ही है। अगर कांग्रेस की पहले अधिक सीटें न आई होतीं तो विपक्ष द्वारा चुनावों को अवैध घोषित करने के लिए तैयारी तो हो ही चुकी थी।
विश्व के बुद्धिजीवियों को वास्तविकता को समझना चाहिए। सदा वैसा नहीं होता जैसा आप चाहते हैं। समाज में वैचारिक समरसता नहीं हो सकती। चुनावों का उद्देश्य और अभिप्राय यही है। बहुमत की बात मानी जाए। चुनाव के परिणाम आते ही राजनीति के विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग मतदाताओं की मेधा पर प्रश्न चिह्न लगाने लगता है। नई सरकार को पहले दिन से संशय के घेरे में खड़ा कर देता है। इन्हें समझना चाहिए कि मतदान हो चुका है। जनता ने अपना निर्णय सुना दिया है। आप इसे नहीं बदल सकते। हाँ, यह बुद्धिजीवी केवल अपने चहेते श्रोताओं/दर्शकों/पाठकों को वह परोसते रहते हैं जिससे उनकी दुकान चलती रहे। यहीं पर यह वह लक्ष्मण रेखा पार लेते हैं जो इन्हें शठों की श्रेणी में स्थानांतरित कर देता है।
बुद्धिजीवियों से करबद्ध प्रार्थना है कि इस असमंजस की परिस्थिति से बाहर निकलें। अपने दायित्व को समझें और देश के युवा का सही मार्गदर्शन दें। अपने पूर्वाग्रहों के बाहर निकलें।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2024/07/02 04:07 PM
यह सम्पादकीय 'सौ सुनार की और एक लोहार की' की भाँति सही संदेश पहुँचाने में सफल हुआ। मुझे स्कूल के दिनों से ही न तो राजनीति विषय कभी समझ आया और न ही वयस्क होने पर इसके दाव-पेंच समझ में आये। परन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि एक ठग रंगे हाथ पकड़े जाने पर उन्हीं लोगों के साथ फिर से ठगी करने की सोच भी नहीं सकता। और बुद्धिजीवी का मुखौटा ओढ़े राजनीतिज्ञों को मतदाता स्वयं बार बार अवसर देते हैं कि आएँ और हमें फिर से लूटें।
सरोजिनी पाण्डेय 2024/07/01 09:39 PM
आदरणीय संपादक जी, अत्यंत विचारणीय, समसामयिक संपादकीय के लिए साधुवाद। मेरे विचार से तो समष्टि के हित का विचार रखने वाला ही बुद्धिजीवी कहलाने का अधिकारी है। किसी ज़माने में न्याय प्रिय और धर्मात्मा राजा तो शायद बुद्धि जीवी कहलाने का अधिकारी हो भी जाता परन्तु वर्तमान में कोई राजनेता 'बुद्धि जीवी ' नहीं सभी "शठबुद्धि" और स्वार्थी ही हैं। बुद्धि का उपयोग केवल सत्ता पाने और स्वार्थ सिद्धि के लिए किया जाता है।
अरूण कुमार प्रसाद 2024/07/01 01:52 PM
विचारणीय व सामयिक सम्पादकीय।
नरेंद्र ग्रोवर 2024/07/01 09:26 AM
सुमन जी, बुद्धिजीवियों का चरित्र चित्रण और आपका आंकलन आज के सामाजिक सत्य को आईने सा स्पष्ट करता है।
राजनन्दन सिंह 2024/07/01 06:42 AM
वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों का सही चित्र खींचती हुई सुंदर संपादकीय। विश्व विशेषकर भारत आज एक भंयकर ध्रुवीकरण का शिकार है। भारत की कड़वी सच्चाई है कि आज का भारत "अंधभक्त" और "चमचा" दो प्रमुख धरे में बँट चुका है। राजग गठबंधन के समर्थकों को विपक्षी गठबन्धन "अंधभक्त कहकर संबोधित करता है। कई बार यह भी देखने को मिलता है कि कुछ लोग स्वयं को भी अंधभक्त बताकर गर्व का प्रदर्शन करते हैं। दुसरी तरफ इंडी गठबंधन के समर्थकों को चमचा कहकर संबोधित किया जाता है। स्थिति यह है कि इन अंधभक्तों एवं चमचों के आपसी ध्रुवीकरण में निष्पक्ष देशप्रेमी एवं देश के शुभचिंतकों का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया है। निष्पक्ष देशप्रेमियों की बातें यदि अंधभक्तों को अच्छी नहीं लगी तो वे उसे चमचा कहकर चुप करना चाहते हैं और उसी की बात यदि चमचों को अच्छी नहीं लगी तो वे उसे अंधभक्त घोषित कर देते हैं। ऐसे में वे निष्पक्ष लोग जो सचमुच देशहित में कुछ बोलना लिखना या कहना चाहते हैं। उनके लिए एक बड़ी समस्या खड़ी।हो गई है। आज की राजनीति ने भारतीयों से भारतीयता छीन ली है। मेन स्ट्रीम मिडिया या तो गोदी हो गई है या विरोधी है। साहित्य अभी तक काफी हद तक या तो तटस्थ है या निष्पक्ष। परंतु इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि कुछ हद तक साहित्यकारों पर भी गोदी अथवा विरोधी प्रभाव है । समाज के लिए समाज हित की बात आज कोई नहीं करता। उसे भय है कहीं कोई उसे अंधभक्त अथवा चमचा न कह दे। देश समाज के लोग आज पूर्वाग्रह के भयंकर दलदल में है। बल्कि काले कीचड़ में है। जहाँ से उसके बाहर निकलने की कोई संभावना नजर नहीं आती। और यदि कहीं किसी जोर से निकल भी गया तो बाहर वह जीवित नहीं रहेगा। क्योंकि वह चमचा हो या अंधभक्त, उसके जीवन के सारे साधन स्त्रोत उस कीचड़ में है जहाँ वह अभी आनंदमग्न है। जिस दिन वह निष्पक्ष हो गया उस दिन उसके पास लिखने बोलने या सोंचने के लिए कुछ बचेगा हीं नहीं। क्योंकि पूर्वाग्रह अथवा संचित पूर्वधारणाओं से बाहर निकलना इतना आसान नहीं है।
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
2025
- कृत्रिम मेधा (एआई) वरदान या अभिशाप
- निर्पक्ष और निरपेक्ष को समझने की जिज्ञासा
- हम कैसे पिता हैं? मूल प्रश्न यही है . . .
- उचित समय है कर्म फलीभूत होने का
- गधी लौट कर फिर बड़ के पेड़ के नीचे
- ट्रंप की देन: राष्ट्रवादी उपभोक्तावाद
- भारतीय संस्कृति तो अब केवल दक्षिण भारतीय सिनेमा में…
- खेद है!
- यू.एस.ए. और इसका चरित्र
- समय की गति और सापेक्षता का सिद्धांत
- धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का
- और अंतिम संकल्प . . .
- मनन का एक विषय
2024
- अपने ही बनाए नियम का उल्लंघन
- सबके अपने-अपने ‘सोप बॉक्स’
- आप तो पाठक के मुँह से केवल एक सच्ची आह या वाह सुनने…
- आंचलिक सिनेमा में जीवित लोक साहित्य, संस्कृति और भाषा
- अंग्रेज़ी में अनूदित हिन्दी साहित्य का महत्त्व
- कृपया मुझे कुछ ज्ञान दें!
- मैंने कंग फ़ू पांडा फ़िल्म सिरीज़ देखी
- मित्रो, अपना तो हर दिवस—हिन्दी दिवस होता है!
- गोल-गप्पे, पापड़ी-भल्ला चाट और यू.एस.ए. का चुनाव
- जिहदी कोठी दाणे, ओहदे कमले बी सयाणे
- बुद्धिजीवियों का असमंजस और पूर्वाग्रह
- आरोपित विदेशी अवधारणाओं का खण्डन करना होगा
- भाषा में बोली का हस्तक्षेप
- पुस्तक चर्चा, नस्लीय भेदभाव और विचार शृंखला
- हींग लगे न फिटकिरी . . .
- दृष्टिकोणों में मैत्रीपूर्ण व्यवस्था की अपेक्षा
- आधुनिक समाज और तकनीकी को समझना ही हिन्दी साहित्य के…
- स्मृतियाँ तो स्मृतियाँ हैं—नॉस्टेलजिया क्या, वास्तविकता…
- दंतुल मुस्कान और नाचती आँखें
- इधर-उधर की
- सनातन संस्कृति की जागृति एवम् हिन्दी भाषा और साहित्य…
- त्योहारों को मनाने में समझौते होते हैं क्या?
- आओ जीवन गीत लिखें
- श्रीराम इस भू-भाग की आत्मा हैं
2023
- टीवी सीरियलों में गाली-गलौज सामान्य क्यों?
- समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन?
- क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?
- क्या आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय है?
- दर्पण में मेरा अपना चेहरा
- मुर्गी पहले कि अंडा
- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित…
- जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ
- संभावना में ही भविष्य निहित है
- ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही
- प्रवासी लेखक और असमंजस के बादल
- वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
- कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती
- मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है
- मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी सिनेमा
- पेड़ की मृत्यु का तर्पण
- कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
- कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित ‘साहित्यिक’ मजमेबाज़ी
- गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ?
- मेरे पाँच पड़ोसी
- हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ
- गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता
- आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने…
- अरुण बर्मन नहीं रहे
2022
- अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही…
- आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ हैं!
- हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट…
- देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता
- भारत में प्रकाशन अभी पाषाण युग में
- बहस: एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म
- हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद का महत्त्व
- आपके सपनों की भाषा ही जीवित रहती है
- पेड़ कटने का संताप
- सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान
- अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
- बात शायद दृष्टिकोण की है
- साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!
- राजनीति और साहित्य
- कितने समान हैं हम!
- ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना के घोडे़
- भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी . . .!
- कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन
- बसंत अब लौट भी आओ
- अजीब था आज का दिन!
- कैनेडा में सर्दी की एक सुबह
- इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री
- नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प
- क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?
2021
- आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण रचनाओं की
- नींव नहीं बदली जाती
- सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी साहित्य में महत्व
- क्या इसकी आवश्यकता है?
- धैर्य की कसौटी
- दशहरे और दीवाली की यादें
- हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ
- विमर्शों की उलझी राहें
- रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट या सोशल मीडिया के मंच?
- सामान्य के बदलते स्वरूप
- लेखक की स्वतन्त्रता
- साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के साहित्य जगत में एक ख़ालीपन
- मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है
- शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा
- साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ
- कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य
- समीक्षक और सम्पादक
- आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास की और संगठित होने…
- अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही…
- राजनीति और साहित्य का दायित्व
- फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य की पुस्तकें क्यों…
- स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी
- सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’ फ़िल्म
2020
- यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता
- क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल का सूर्य
- शोषित कौन और शोषक कौन?
- पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण
- साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप समूह आरम्भ
- साहित्य का यक्ष प्रश्न – आदर्श का आदर्श क्या है?
- साहित्य का राजनैतिक दायित्व
- केवल अच्छा विचार और अच्छी अभिव्यक्ति पर्याप्त नहीं
- यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी!
- हिन्दी साहित्य को भविष्य में ले जाने वाले सक्षम कंधे
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 2
- पहले मुर्गी या अण्डा?
- कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 1
- लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी और संरक्षक
- यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने की भूख का सकारात्मक पक्ष
- एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा
- अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग
- आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं
- हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक
- लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत लौटना
- वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम और गुरु अर्जुन देव जी…
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- काठ की हाँड़ी केवल एक बार ही चढ़ती है
2019
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- कितना मीठा है यह अहसास
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
2018
2017
2016
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- लघुकथा की त्रासदी
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- मेरी प्राथमिकतायें
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- भाषा में शिष्टता
- साहित्य का व्यवसाय
- उलझे से विचार
विजय विक्रान्त 2024/07/03 01:37 AM
सुमन जी: आपका यह सम्पादकीय बहुत ही रोचक लगा। वैसे बुद़धिजीवी शव्द अधिक्तर समाचारों से सम्बन्धित लोगों के लिये ही प्रयोग में आता है, लेकिन अपने काम करने के तौर तरीकों की वजह से क्या यह सब लोग इसके अधिकारी भी हैं? मेरे विचार में तो बिल्कुल नहीं। क्यों न यह लोग अपने को किसी और नाम से पुकारें और बुद़धिजीवी शव्द समाज और देश के हितकारियों के लिये रहने दें।