प्रिय मित्रो,
प्रत्येक देश या स्थान की एक विशेषता होती है, बातचीत आरम्भ करने का एक शिष्टाचार होता है। अँग्रेज़ी में इसे “ब्रेकिंग द आइस” भी कहा जाता है। बहुत सी परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि आप किसी अनजान व्यक्ति से बात आरम्भ करना तो चाहते हैं परन्तु पहला वाक्य क्या हो? क्या कहें या क्या न कहें, इस दुविधा में व्यक्ति एक दूसरे से आँख चुराते रहते हैं, परन्तु कब तक? आँख मिलते ही एक शिष्टाचार की मुस्कुराहट चेहरे पर टाँक लेते हैं। ऐसे में कोई ऐसा सुरक्षित विषय खोजा जाता है जिससे सामने वाले को कोई आपत्ति न हो। उत्तरी अमेरिका में यानी कैनेडा और यू.एस.ए. (मैक्सिको भी उत्तरी अमेरिका में है, परन्तु वहाँ का मैं नहीं जानता) दो ऐसे विषय हैं जिन पर बातचीत आरम्भ की जाती है। पहला विषय है, कल रात की गेम का स्कोर। यह विषय स्थानीय हो सकता है। क्योंकि दोनों देशों के विभिन्न भागों में विभिन्न खेलें लोकप्रिय हैं. इसलिए बात आरम्भ करने में समस्या हो सकती है। जैसे कि मैं कैनेडा से हूँ तो यू.एस.ए. में जाकर स्थानीय टीम के स्कोर की बात करने से पहले मुझे उस टीम की व्यापक समझ होनी आवश्यक है। ऐसे में सुरक्षित विषय है कि मौसम के बारे में बात की जाए। गर्मियों में अगर गर्मी की लहर है तो मुस्कुराते हुए प्रायः पूछा जाता है, “इज़ इट हॉट एनफ़ फ़ॉर यू?” (क्या तुम्हारे लिए पर्याप्त गर्मी है)। सर्दियों में “हॉट” को “कोल्ड” से बदल दिया जाता है। जिस दिन तापमान २० से २५ सेल्सियस के आसपास हो और धूप खिली हो तो कहा जाता है, “इट इज़ ए ब्यूटिफ़ुल डे, इज़ंट इट?” (यह एक ख़ूबसूरत दिन है, है कि नहीं? )।
आज के सम्पादकीय से इन बातों का क्या सम्बन्ध? है, बहुत है। बात यह है कि आज मेरे पास भी कहने के लिए कुछ भी नहीं है। कोई विषय नहीं है। मैं कम्प्यूटर स्क्रीन को देख रहा हूँ, उँगलियाँ की-बोर्ड पर चल रही हैं, अटक रही हैं। बार-बार घड़ी में भारत का समय देख रहा हूँ। वहाँ पहली जुलाई के साढ़े पाँच बज रहे हैं। एक-दो घंटे में पाठक साहित्य कुञ्ज खंगालना आरम्भ कर देंगे और अभी सम्पादकीय अपलोड नहीं हुआ है। अब क्या लिखूँ?
सबसे आसान विषय राजनीति है। वैसे भी भारत में दिन में सबसे पहले ख़बर ही देखी और बतियाई जाती है। जिन दिनों मैं “हिन्दी टाइम्स” का सम्पादन करता था, तो प्रेस में पेपर भेजने से पहले मैं सम्पादकीय लिखता था, जो कि दिन या कल रात को घटे समाचार पर आधारित होता था। एक पूरे पन्ने का सम्पादकीय यानी १२०० शब्दों का सम्पादकीय, मैं एक ही बैठक में एक घंटे में लिख डालता था। चाहूँ तो अब भी राजनीति पर लिख सकता हूँ। चाहे वह अंतरराष्ट्रीय हो, कनेडियन हो या भारत की हो, एक घंटे में १२०० शब्द लिख सकता हूँ। लिखता नहीं हूँ क्योंकि साहित्यिक पत्रिका का, कम से कम सम्पादकीय तो राजनैतिक विचारधारा पर आधारित नहीं होना चाहिए। ऐसा मेरा मानना है, आप मुझ से सहमत हों या न हों यह आपकी विचारधारा है।
इसलिए आप से पूछ रहा हूँ, “क्या आपका कल का दिन ख़ूबसूरत था? सुना है दिल्ली में मानसून का आगमन हो रहा है? शायद गर्मी से राहत मिली हो?” हालाँकि भारत की राजनीति गर्म है; वैसे भारत की राजनीति तो सदा गर्म रहती है, पर उसके बारे में मैं नहीं पूछूँगा। मौसम के बारे में पूछना और बताना सुरक्षित है। यहाँ अभी गर्मी सही ढँग से आई नहीं है। सुबह तापमान १० से १५ डिग्री सेल्सियस रहता है, दस बजते-बजते २० के आसपास हो जाता है। सब्ज़ियों के पौधे अभी बढ़ नहीं रहे। गर्मी और उमस भरे दिनों की प्रतीक्षा में वह भी रुके हुए हैं। गुलाब एक बार खिल कर झड़ चुका है। अगली लहर के लिए कलियाँ आ रही हैं। एशियन लिली अपने पूरे यौवन पर है। क्लेमाइटिस (प्रेमलता/इश्क़पेचा) के फूल झरने लगे हैं। स्टेला द ओरो के पीले फूलों की बहार आ गई है। बाक़ी मौसमी फूल तो पूरी ग्रीष्म ऋतु में रंग बिखेरते रहेंगे।
जुलाई और अगस्त यह दो महीने गर्मी के हैं। आज दोपहर के बाद स्कूल गर्मियों की छुट्टियों के लिए बंद हो गए हैं। अब सितम्बर के पहले सप्ताह में खुलेंगे। कल युवान और मायरा (पोता और पोती) आ रहे हैं। उनके आने के समाचार के साथ ही अपने बचपन की स्मृतियाँ ताज़ा होने लगी हैं। गर्मी की छुट्टियाँ शुरू होने से पहले स्कूल में छुट्टियों का काम दिया जाता था। रोज़ की एक लिखाई करनी होती थी। गणित के प्रश्न दिए जाते थे और भी न जाने क्या-क्या काम मिलता था जो अब याद नहीं। जो याद आ रहा है वह यह है कि पहले सप्ताह तो पूरे उत्साह से “घर का काम” आरम्भ करते थे। संकल्प करते थे कि काम पूरा करेंगे। पर दूसरे सप्ताह तक आते आते प्राथमिकताएँ बदल जाती थीं। कभी भी गर्मी की छुट्टियों का काम पूरा नहीं होता था। अंतिम रात को घबराहट के मारे नींद नहीं आती थी तो मम्मी बैठ कर लिखाइयाँ पूरी करती थीं। अध्यापक भी सब जानते थे। मुस्कुराते हुए पूछते थे, “लिखावट तो तुम्हारी नहीं है? मम्मी ने लिखा क्या?” माँएँ कितना संबल देती हैं!
देखा लिख दिया न सम्पादकीय। आठ सौ से अधिक शब्द हो गए हैं। शायद इसीलिए तो हम लोग लेखक कहलाते हैं। बिना विषय के लगभग दो पन्ने भर डाले, अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2022/07/02 09:04 PM
मुस्कराहट ला देने वाला इस अंक का सम्पादकीय अति रोचक है। इंग्लैंड का मौसम...इन्द्र देवता जब कभी इस ग्रीष्म ऋतु में मूसलाधार वर्षा करने का विचार बना लेते हैं तो पवन देवता ठान लेते हैं महाराज! मैं भी आपका साथ निभाने आ रहा हूँ। परिणाम स्वरूप कुछ ही क्षणों में शीत लहर चलती देख सूर्य देवता हम ब्रिटिश जनता पर होते इस अत्याचार को सहन न करते हुए इन्द्र व पवन दोनों देवताओं को पछाड़ते हुए जब अपना तेज प्रगट करते हैं, तब कहीं जाकर हमें राहत मिलती है कि 'आपका भला हो सूर्य देवता! जो आज इतने महीनों बाद विटामिन-डी का डोज़ मिल पाया..चाहे केवल आध-एक घंटे कि लिए ही सही।' पेड़-पौधे तो इसी मौसम में अपना मनोहर स्वरूप दिखाने की प्रतियोगिता में पहले से जुटे होते ही हैं।अत: एक ही दिन में चारों ऋतुओं का अनुभव करने का सौभाग्य तो केवल हम यूके वासियों को ही मिलता है। भारत में बचपन से उलझन में डालने वाली एक कहावत सुनते आये थे कि 'ही/शी इज़ मूडी जस्ट लाइक ब्रीटिश वैदर' (वह तो बिल्कुल विलायती मौसम की तरह मूडी है), तो यहाँ इंग्लैंड आकर उसका साक्षात रूप देखते ही वह कहावत तब जाकर पल्ले पड़ी। (अरे वाह, यह लिखते हुए अचानक मूसलाधार वर्षा और धूप दोनों का आनंद अपनी कंज़रवेटरी में बैठी ले रही हूँ...लेकिन इंद्र धनुष तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा?)
Sarojini Pandey 2022/07/01 04:16 PM
विषयहीन संपादकीय बहुत आनन्ददायक रहा। दिल्ली मे जब वर्षा हुई तब जून का अंतिम दिन था,वर्षा के समय:- सघन घन अति वेगित पवन फिसला जल सरसा तन मुदित हुआ मन और झर न!
राजनन्दन सिंह 2022/07/01 07:35 AM
सवेरे साहित्यकुञ्ज के साईट पर पहुँचा। पुराना अंक दिखाई दिया। साहित्यकुञ्ज व्हाट्सअप ग्रुप पर गया शायद कोई सूचना आई हो। नहीं थी। थोड़ी देर इधर-उधर घुमा। फिर सोंचा पुराना संपादकीय हीं पढ लेता हूँ। अचानक पेज रिफ्रेश हुआ और नया अंक। अच्छा लगा.. संपादकीय का इंतजार सबसे पहले रहता है। आश्चर्य हुआ संपादक जी इतनी व्यस्तता के बाद भी भारत की राजनीति एवं मौसम की खबर रखते हैं। कल सवेरे साढ़े आठ बजे दिल्ली आसपास में बारिश शुरु हुई तो खूब बारिश हुई लगभग पाँच घंटे तक नहीं रुकी। शाम तक बूंदाबांदी होती रही। दिल्ली में लंबी बारिश गर्मी से राहत देती है मगर नदियाँ सड़कों पर चढ़ आती है। कल भी वही हुआ। लाखों गाड़ियाँ ट्रैफ़िक जाम में फँस गई। न जाने कितनी मिटिंग कैंसिल हो गई होगी। संपादक जी सोच रहे थे संपादकीय क्या लिखा जाए। विषय हीं नहीं मिला। मगर संपादकीय पूरा लिखा गया। आश्चर्य हुआ कि बातें शुरु करने के लिए दो अनजान अमेरिकी भी इतना झिझकते हैं। संपादकीय बिना विषय के हीं सही अच्छी लगी।
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सम्पादकीय (पुराने अंक)
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डॉ॰ पुष्पलता भट्ट ‘पुष्प’ 2022/07/10 10:09 PM
वाह ! वाह ! शानदार संपादकीय । कहने के लिए कोई विषय न होने पर भी संपादकीय का एक -एक शब्द मन को बाँध रहा है ।