प्रिय मित्रो,
गत अंक के प्रकाशन से चार दिन पहले “द कश्मीर फ़ाइल्स” फ़िल्म रिलीज़ हुई थी। हालाँकि फ़िल्म के विषय के बारे में पहले कुछ अनुमान तो था क्योंकि विद्याभूषण धर ने एक बार चिंता व्यक्त की थी कि संभवतः फ़िल्म को रिलीज़ ही न करने दिया जाए। सेंसरबोर्ड द्वारा कुछ काट-छाँट के बाद दिखाने की अनुमति तो मिल गई, परन्तु समाज और फ़िल्म व्यवसाय के वर्ग विशेष ने भरपूर प्रयास किया कि आसानी से कोई इसे देख न पाए। हुआ इसका उल्टा ही। जितना इस फ़िल्म को दबाने के प्रयास किया गया, उतनी ही दर्शकों में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि फ़िल्म में ऐसा क्या है कि वर्ग विशेष की साँसें अटक गई हैं।
मैंने फ़िल्म 15 मार्च को यॉर्क सिनेमा में जाकर देखी, जो कि मेरे घर से 45 किमी. दूर है। वैसे जब कोई हिन्दी फ़िल्म रिलीज़ होती है तो वह बृहत टोरोंटो क्षेत्र के हर कोने के थियेटरों में देखने को मिल जाती है। किसी बड़ी थिएटर चेन ने भी इसे स्क्रीन नहीं किया। इसके पीछे क्या कारण था, मैं नहीं जानता। हाँ, यह अवश्य जानता हूँ कि यॉर्क सिनेमा (जिसे कोई भी किराए पर ले सकता है) में दस-पन्द्रह दिन चलने के बाद एक बड़ी थिएटर चेन ने जो मेरे घर से पाँच मिनट की दूरी पर है, इसे स्क्रीन करने का निर्णय लिया। अब यह क्यों हुआ, यह वह ही जानें। क्या यह फ़िल्म लोकप्रियता थी या फ़िल्म की व्यवसायिक सफलता। जो भी हो अब यह कई जगह दिखाई जा रही है। प्रदर्शन को सीमित रखने का प्रयास करने वालों के निर्णय पर जनता की प्रतिक्रिया उन्हीं पर भारी पड़ी। बृहत टोरोंटो क्षेत्र 7,123.64 वर्ग किमी. में फैला है और इसमें केवल दो थिएटरों में फ़िल्म दिखाई जाने के कारण टिकट रिज़र्व करने में कठिनाई हो रही थी। जिससे दर्शकों की उत्सुकता और भी बढ़ गई। अब थिएटर भरे होने के कारण थिएटरों की बड़ी चेन की आँखें खुलीं और स्क्रीन के दरवाज़े भी खुले।
फ़िल्म की देखने के बाद मेरी प्रतिक्रिया क्या रही वह अलग बात है। मेरी पत्नी, नीरा की प्रतिक्रिया क्रोध, रोष और बॉलीवुड और उस मीडिया के प्रति घृणा की थी जो फ़िल्म को नकारने में व्यस्त थे। मैं कुछ भी लिखने से पहले कुछ दिन रुकना चाहता था ताकि, संतुलित सम्पादकीय लिख सकूँ, हालाँकि साहित्य कुञ्ज के व्हाट्सएप्प ग्रुप में सदस्यों की प्रतिक्रिया भी माँग रहा था ताकि साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित कर सकूँ। इस फ़िल्म का इतना महत्व क्या है कि मैंने साहित्य कुञ्ज में इसे चर्चा का विषय बनाया। कई कारण हैं।
मैं राजनीति से दूर रहता हूँ, पर ऐसा भी नहीं है कि मेरी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं है। यह फ़िल्म भारत की या हिन्दी की पहली फ़िल्म है, जिसने कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की वास्तविकता को जनता के सामने रख दिया है। इस फ़िल्म से एक संवाद आरम्भ हुआ है। यह संवाद फ़िल्म के लेखक, निदेशक और दर्शकों के बीच सीधा संवाद है। इस संवाद का कोई बिचौलिया नहीं है—न कोई राजनीतिज्ञ और न ही मीडिया। क्योंकि यही दो वर्ग हैं जो विषय पर पर्दा डालते हैं या उसकी दिशा बदल देते हैं; संवाद के स्वर को मद्धम बना देते हैं। यही सीधा संवाद उनकी परेशानी का कारण है। वह भौचक खड़े असहाय अनुभव कर रहे हैं कि इस सीधे संवाद पर नकेल कैसे कसें। विपक्षी दल भी इसपर राजनीति करें तो कैसे करें? दबी ज़बान में कभी सुनाई देता है कि मुसलमान भी तो मरे थे। या फ़लाँ सीन में इतनी गोलियाँ लगते दिखाया वास्तव में इतनी गोलियाँ चलीं थी, इसलिए फ़िल्म में सच्चाई नहीं है। कोई और फ़िल्म होती तो शायद इन थोथी दलीलों पर हँसी आती पर इस गम्भीर विषय पर ग़ुस्सा आता है, झल्लाहट होती है कि क्या इन बुद्धिजीवियों ने अपना दिमाग़ बेच खाया है। एक दलील सुनने को मिली कि भारत में अन्य जगह पर भी नरसंहार हुए हैं, वो क्यों नहीं दिखाए गए। भैया आप कहिए न बॉलीवुड से, जो आपके प्रदर्शनों में आकर उल्टे-सीधे वक्तव्य देते हैं, आपके मनपसन्द नरसंहारों पर बनाएँ फ़िल्म। एक बात और कहना चाहता हूँ, इस फ़िल्म की व्यवसायिक सफलता को देख अब बॉलीवुड नरसंहार खोजता फिरेगा ताकि इससे पहले कि कोई अन्य ’विवेक अग्निहोत्री’ उठ खड़ा हो और उनसे पहले फ़िल्म बना डाले। परन्तु बॉलीवुड से ऐसी प्रतिबद्धता और परिश्रम की आशा कम ही है जैसा कि विवेक अग्निहोत्री और उनकी टीम ने किया है। बॉलीवुड तो वही घिसा पिटा फ़ॉर्मूला उठा कर एक दो आदिवासियों के आइटम डांस डाल देगा और आधा दर्जन गाने होंगे। हीरो भी अभिनय कम करेगा और अपने पेटेंट पोज़ दिखाकर ख़रीदे हुए मीडिया से अपनी सफलता घोषित करवा लेगा।
’द कश्मीर फ़ाइल्स’ को देखने के बाद जो मेरी प्रतिक्रिया रही अब उसकी चर्चा करता हूँ। पहली प्रतिक्रिया थी कि 170 मिनट की फ़िल्म में आज़ादी के समय से पैदा हुए नासूर को 1990 तक पकने के बाद, जितना फटते हुए दिखाया जा सकता था, उसे लेखक और निदेशक ने पूरी संवेदना के साथ पर्दे पर उतारा है। यह वास्तविकता का केवल अंश मात्र है। मैंने गिनी तो नहीं, पर शायद दस के क़रीब घटनाओं के अंशों को ही दिखाया जा सका है। अभी इस नरसंहार के कई आयाम अनछुए रहे हैं या केवल एक नज़र ही उस ओर उठ पायी है। स्वार्थ की राजनीति, देशहित की चिंता किए बिना अपने मित्रों के हित के अनुसार निर्णय लेना, सही अवसर पर ग़लत निर्णय लेना, देश की आंतरिक समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर ले जाना। पड़ोसी देश द्वारा जनित आतंकवाद को अनदेखा करना इत्यादि राजनैतिक पक्ष हैं जिन पर कई फ़िल्में बनाई जा सकती हैं। मैं बॉलीवुड को सलाह देना चाहूँगा कि वह “यहूदी नरसंहार” की कुछ फ़िल्में देखें ताकि कम से कम उनकी नक़ल करके ही सही, कुछ तो बना सकें। क्योंकि बॉलीवुड से मौलिक सोच की आशा रखना बेकार है।
द्वितीय महायुद्ध के दौरान नाज़ी पार्टी (हिटलर) द्वारा यहूदियों पर हुए नरसंहार पर 200 से अधिक (मैंने वीकिपीडिया में गिनी हैं) फ़िल्में बन चुकी हैं। इन फ़िल्मों में होलोकॉस्ट त्रासदी को कई कोणों से देखा, समझा गया है। इन फ़िल्मों पर तो पश्चिमी देशों में कोई विरोध नहीं हुआ। ऐसा नहीं है इन पश्चिमी देशों में युद्ध से पहले या युद्ध के दौरान यहूदियों पर अत्याचार नहीं हुए। अगर हिटलर ने नरसंहार किया तो मित्र देशों में भी नाज़ी पार्टी का गठन हुआ। इन नाज़ी दलों ने भी यहूदियों पर अत्याचार किए। यहूदियों का इतिहास भी भारत के हिन्दुओं से अधिक अलग नहीं है। अपने ही देश में रहते हुए विदेशी आततायियों द्वारा प्रताड़ित किए जाना हम सनातन धर्मी भली-भाँति जानते हैं। दुनिया के विभिन्न देशों में जहाँ भी यहूदी रहते हैं, वह सर उठा कर कहते हैं कि हम प्रताड़ित हुए हैं, सदियों से हुए हैं। किसी का साहस नहीं होता कि कोई उनके विपक्ष में आवाज़ उठा सके और नरसंहार को नकार सके। भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी, विपक्ष के राजनीतिज्ञों, विपक्ष के पिट्ठू मीडिया, बॉलीवुड, वामपंथी बुद्धिजीवियों (अर्बन नक्सलियों) और धर्म विशेष के नेताओं, मुल्लाओं को समस्या हो गई।
मैं इन लोगों से केवल यह कहना चाहता हूँ कि तैयार रहें; यह केवल आरम्भ हुआ है। सनातन भारतीय चाहे वह विश्व के किसी कोने में हों वह अब जागरूक हैं। कहने को तो लोग कह देते हैं कि प्रवासी भारतीयों का इससे क्या लेना देना? ऐसा कहना बिलकुल ग़लत है। भारत से बाहर हम सब भारतीय एक हैं। कैनेडा में हमारी संस्था ’हिन्दी राइटर्स गिल्ड’ कश्मीरी संस्थाओं के साथ मिलकर कई कार्यक्रम कर चुकी है। हमारे भी हर बड़े कार्यक्रम में यह संस्थाएँ बढ़-चढ़कर सहायता करती हैं। इसीलिए इनकी समस्याएँ या इनकी पीड़ा हमारी सब की पीड़ा है। भारत के पाठकों से भी यही कहना चाहूँगा कि अपनी क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर इस समस्या के हर पक्ष को समझें और इसे कैसे अभी तक छिपाया जाता रहा है, वह भी समझें। नरसंहार की परिभाषा को समझें। यह भी समझें कि जिस प्रशासन के कार्यकाल में यह समस्या जन्म लेती है वह भी इसका उतना ही ज़िम्मेदार होता है जितना कि वह प्रशासन जिसके कार्यकाल में नरसंहार हुआ। और यह भी वैश्विक तथ्य है हर प्रशासन नरसंहार को छिपाता है। इससे नरसंहार में लिप्त नेताओं का साहस बढ़ता है। विकिपीडिया पर कुछ खोज करके देखें कि आधुनिक काल यानी पिछली सदी के आरम्भ से अब तक कितने नरसंहार हो चुके हैं और कितने आम चर्चा का विषय बने हैं। इनके छिपे रहने का कारण एक ही होता है कि प्रशासन इन्हें रोशनी में आने ही नहीं देता।
’द कश्मीर फ़ाइल्स’ ने कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को सूर्य के उजाले में रख दिया है। हालाँकि हम लोग यानी हिन्दी लेखक लिखित माध्यम के लोग हैं। परन्तु हम यह भी समझते हैं कि फ़िल्म एक ऐसा माध्यम है जिसे अनपढ़ से भी अनपढ़ व्यक्ति समझ सकता है। इसलिए सिनेमा की शक्ति को समझना महत्वपूर्ण है। साहित्य कुञ्ज में आलेख विधा की एक उपविधा पहले से थी ’सिनेमा और साहित्य’। इस अंक से एक और उपविधा आरम्भ कर रहा हूँ ’सिनेमा चर्चा’ इसमें हम सिनेमा के विभिन्न पक्षों (अफ़वाहों को छोड़कर) की बात करेंगे। आप सबको निमंत्रण दे रहा हूँ कि इस विधा को विस्तार दें। ’सिनेमा चर्चा’ में इस अंक के बाद भी ’द कश्मीर फ़ाइल्स’ की ’फ़ाइल’ खुली रहेगी।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
डॉ पदमावती 2022/04/01 09:09 PM
सचमुच एक ईमानदार फ़िल्म बनी और दर्शकों तक पहुँची यह स्वागत योग्य आश्चर्यजनक तथ्य है । कितनी अमानवीयता .. कितनी नृशंस हत्याएं सांप्रदायिक सडांध ….वितृष्णा पैदा हो गई । और कुछ प्रबुद्ध बुद्धिजीवी अब भी नकार रहे हैं झुठला रहे हैं । वे इंसान कहलाने के लायक़ नहीं । सटीक विश्लेषण । अपने ही देश में विदेशी आततायियों द्वारा सताए जाना अब और नहीं! आज सच्चाई बयां हो गई है । दुर्गंध को दबाने से दब नहीं सकती । चिंगारी लग चुकी है प्रतीक्षा है ज्वालामुखी की ।
पाण्डेय सरिता 2022/04/01 09:09 PM
आदरणीय! आपके इस संपादकीय के माध्यम से समर्थन स्वागत योग्य है।
प्रवीण कुमार शर्मा 2022/04/01 08:22 PM
इस सम्पादकीय में बिल्कुल सटीक बात कही गयी है।सिनेमा और साहित्य किसी भी समाज के आईना होते हैं लेकिन कुछ कलुषित मन वालों को अपनी छवि इस आईने में दिख नहीं पाती है।सिनेमा जब हकीकत का आईना दिखता है तब छदम लोगों को यह सब नागवार गुजरता है।कश्मीर फ़ाइल फ़िल्म ने समाज को बहुत दिनों बाद आईना दिखाया है।इसीलिए धुर विरोधी लोगों को अपच हो रही है।
राजेश 'ललित' 2022/04/01 07:31 PM
आदरणीय सुमन जी, नमस्कार, बहुत सुंदर संपादकीय है।वैसे 'द काश्मीर फाईल्स' मैने पूरी वहीं देखी पर जितनी भी देखी मेरी आत्मा झझकोर गई।इस नरसंहार के बारे में पहले (जब हुआ) अख़बारों में पढ़ा ।परंतु सत्य को जब क़रीब से देखा तो दहल उठा।बहुत भयावह त्री।बालीवुड में अभी जो गुट हावी है उसने भी काश्मीर पर फ़िल्में बनाई हैं उनमें आतंकवादी क्यों बने यह दिखाया गया परंतु उन्होंने क्या किया यह 'काश्मीर फाईल्स ' में देखा। सत्य को देखने सबके अपने अपने चश्मे हैं।यदि सत्य उनके अनुरूप नहीं हैं तो आप झूठे हैंआपका सत्य भी झूठा है।यही बाल विपक्ष का है जो नहीं चाहता था यह किसी तरह से रिलीज़ हो।सत्य उनके अनुरूप नहीं रहा तो फ़िल्म परवप्रश्न उठने लगे।सात सौ सक्रीन मिली उनमें से भी पाँच सौ चालीस ने दिखाई।शेष को धमकाया गया कि अगर ये दिखाओगे तो आगे से बड़े सितारों की फ़िल्में नहीं मिलेंगी। सत्य को विरोध मिलना स्वभाविक है; यह आदिकाव्य से है;कुबेर से सोने की लंका छीनी गई।श्री राम को बारह वर्ष और पांडवों को चौदह वर्ष का बनवास मिला।आयुरर्यंत संघर्ष रहा।जीसस को कीलें मिली और सुकरात और मीरा को जहर का प्याला। ऐसी लाखों फाईलें न केवल हमारे देश में अपितु विश्व के कोने रोने में बिखरी हैं।कई फाईलें का तो पता ही नहीं जिनका पता है तो दो प्रभावशाली समाज को अच्छा लगता है वही सामने आ पाता है।विवेक अग्नीहोत्री को हार्दिक नमन उनके अद्वितीय साहस के लिये।हो सकता है कुछ और लोग भी सत्य को देखें,समझें खोजें और सामने लायें।आज विश्व पर ही संकट छाया है।कहने को बहुत है पर टिप्पणी ही लंबी हो गई। राजेश'ललित'
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डॉ. शैलजा सक्सेना 2022/04/03 06:37 AM
'द कश्मीर फाइल्स' ने बॉलीवुड इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा है, भारतीय चेतना में एक नया आयाम जोड़ा है और अब तक मौन बने बहुसंख्यकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी में एक नया प्रारंभ किया है। आपके संपादकीय ने वे सभी बातें सामने रखीं जो हर जागरूक भारतीय के मन में हैं। आपको साधुवाद!