प्रिय मित्रो,
आप सभी को वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!
आज सुबह के नाश्ते के बाद दूसरी मंज़िल पर, सामने वाले शयनकक्ष में झाँका तो देखा— खिली धूप कमरे में बिखर रही थी। पिछले कुछ दिनों से धूप कहीं खो गई थी। इस वर्ष चाहे तापमान सामान्य से अधिक ही रहा है और हिमपात भी लगभग न के बराबर ही हुआ है, परन्तु बादलों के छाने में कोई कमी नहीं रही। कई बार तो एक सप्ताह से भी अधिक दिन बीत जाते थे सूर्यदेव के दर्शन किए हुए। ऐसे में कमरे में खिली धूप देख कर हृदय में वसंत की तरंग उठना स्वाभाविक ही था।
अपना लैपटॉप मैं यहीं पर ले आया। कंप्यूटर की स्क्रीन पर बाहर का तापमान देखा; शून्य से ५ डिग्री नीचे। अब आह निकलना भी स्वाभाविक ही था क्योंकि कुछ क्षण पूर्व हृदय, वसंत के पीत वर्ण में रँग चुका था। मुँह से अनायास निकला—कौन-सा वसंत और काहे-की होली! यह पीड़ा उत्तरी अमेरिका में भारतीय मूल के प्रवासियों की साझी है। यू.एस. के उत्तरी राज्यों का हाल भी कैनेडा के प्रान्तों जैसा ही है। अधिकारिक कैलेंडर के अनुसार २० मार्च से वसंत ऋतु का आगमन हो जाता है परन्तु पेड़ों की कोंपलें अभी एक महीना और सोई रहेंगी। तब तक कैसे कह दें कि वसंत आ गया।
यही सोचते हुए पुरानी स्मृतियों की उर्मियाँ हिलोरें लेने लगी थीं। जब तक हम खन्ना मंडी (पंजाब) में रहे (१९५६ से १९६० तक) वसंत का आगमन एक महत्वपूर्ण घटना थी। माँ सफ़ेद कपड़े को पीले रंग से रँग देतीं। फिर हमारे लिए उसमें से गले में बाँधने के लिए स्कार्फ़ बनते। हम चारों भाइयों सुबह जल्दी नहा कर, नाश्ता करके, पीले स्कार्फ़ गले में लपेटे छत की सीढ़ियों की ओर दौड़ लगाते। दूसरी मंज़िल के चौबारे में हमारी पतंगें और डोर की चरखियाँ पहले तैयार रहतीं। तीसरी मंज़िल पर हल्की ठंड में, स्वेटर में ठिठुरते हुए पतंग उड़ाने का असफल प्रयास करते। न जाने क्यों हवा बहने के लिए हमारी तरह उत्सुक न रहती। दस बजते-बजते सूर्य की धूप में उष्णता आती और पवन भी पतंग को ले उड़ता। माँ बहाने-बहाने से नीचे आने के लिए पुकारती रहतीं पर हमें कहाँ फ़ुर्सत रहती कान धरने की। दोपहर आते आते भूख सताने लगती और हमारी बाँहे भी डोर को ‘तुनके’ देते हुए थक जातीं। बिन कहे ही नीचे उतर आते।
रसोई से उठती पीले पुलाव की सुगंध भूख को बढ़ा देती। पीले चावल और दही. . . आज भी मुँह में पानी भर आता है। परन्तु अब पीला पुलाव भी वही है और दही भी वही है पर . . . कुछ तो ऐसा है जो नहीं है। यही न होना मन को कोंचता है।
१९६० में हम लोग लुधियाना आ गए। लुधियाना और खन्ना में केवल २६ मील की दूरी थी पर यहाँ त्योहारों के महत्व में बहुत अंतर था। कब वसंत आता और कब बीत जाता केवल माँ के पीले पुलाव तक ही सीमित हो गया था। न कोई पीला कपड़ा पहनता और न ही हमारी तरह गले में पीला रुमाल बाँधता। लुधियाना में आने के दूसरे वर्ष पता चला कि यहाँ, पतंगें लोहड़ी पर उड़ाई जाती हैं, वसंत पंचमी को नहीं। बहुत अजीब और कष्टप्रद लगा क्योंकि लोहड़ी की सुबह की सर्दी तो निर्मम होती है। क्या करते? जो आसपास के लोग करते हैं उन्हीं का अनुसरण किया जाता है। हमने भी किया परन्तु वह आनन्द कभी नहीं आया जो छोटे-से क़स्बे खन्ना मंडी में आता था।
अब कैनेडा में रहते मई में इक्यावन वर्ष बीत जाएँगे। त्योहार सामाजिक अवसर न होकर व्यक्तिगत सुविधा की रज्जु में बंध चुके हैं। मंदिरों में उत्सव मनाए तो जाते हैं परन्तु केवल सप्ताहांत/वीकेंड पर। यह तो समझौता हुआ न! त्योहारों को मनाने में समझौते होते हैं क्या? परन्तु अब है तो ऐसा ही। आप समझ रहे होंगे न मेरे मन की पीड़ा . . .
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
डॉ. अरुण कुमार निषाद (सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश भारत) 2024/02/21 08:32 PM
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव । जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥ "मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।"
महेश रौतेला 2024/02/17 05:44 PM
पुरानी यादें ताजा कर दी। आपको भी वसंत पंचमी की शुभकामनाएं। सुन्दर। स्मृतियां मन को जागृत करती रहती हैं। बसंत फिर-फिर आयेगा सुगन्ध अपनी लायेगा, मैं खड़ा रह जाऊँगा बसंत कहीं छुप जायेगा। वृक्ष ये कहने लगेगा बसंत को गिनने लगेगा, मन मेरा उदार होकर खुशी-खुशी गाने लगेगा। हवा सर्वत्र बासंती हो आकाश पर छाती रहेगी, ठंड को यों विदा कर गुनगुनी ये धूप होगी। मधुरता की राह पर बसंत पर इठलाऊँगा, यों ठंड को चीरकर हर फूल पर इतराऊँगा।
Usha Bansal 2024/02/17 10:48 AM
बहुत बहुत आभार पीले चावल , सफेद कपडों को पीला रंगना , आम में बौर ढूँढना, अटल जी की कविता , सरस्वती पूजा की उत्सव , जाने कितना कुछ । परदेश में सब समझौते के भेंट हो गया । बसंत का उत्साह पीला पर जर्द हो गया। रस्म अदायगी के लिये पूजा भर के लिये पूले चावल , पीली तहरी कभी कभी बन जाती है। गोभी मटर की तहरी को बिरयानी ने पटकनी दे दी है । सुनहरी यादों के में एक बार घूमाने के लिये धन्यवाद।
विजय विक्रान्त 2024/02/17 06:52 AM
सुमन जी: अगले साल इसी महीने में अपनी जन्मभूमी भारत छोड़े हुये और कैनेड़ा को कर्मभूमी बनाए हुये साठ साल हो जायैंगे। जैसे जैसे समय बीतता गया, भारत में रहते हुये जिस प्रकार से परिवार के साथ तीज त्योहार मनाने के जो संस्कार मिले थे, यहाँ रहते हुए उनकी यादों पर समय की धूल की एक अजीब सी परत चढ़ गई और कैनेडा के तौर तरीकों को पूरी तरह से अपना लिया। इतने लम्बे अर्से बाद जब आपका सम्पादकीय पढ़ने को मिला, उस धुन्धली परत में न जाने कहाँ से अचानक एक दरार सी आगई और पहुँच गये हम अपने अम्बाला छावनी के घर में बसन्त पँचमी मनाने जहाँ सुबह को बाहर जाने से पहले माँ पीले बसन्ती रँग का कोई कपड़ा पहनने को कहती थी। जैसे जैसे दिन चढ़ता था, रसोईघर से पकवानों की जो ख़ुशबू आती थी वो अभी तक याद है। बसन्ती रँग के मटरों वाले चावल का स्वाद अभी तक ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है। सप्ताह का चाहे कोई भी दिन हो, बसन्त पँचमी वाला दिन तो छुट्टी का दिन होता था। उस दिन खुले मैदान में पतँग उडाने का अपना ही मज़ा होता था। मैदान में, पतँग उड़ाते समय, एक दोस्त ने माँझे की चर्खी पकड़ी होती थी और दूसरा पतँग उड़ाने में मस्त होता था। उसका ध्यान आसमान में पतँग के ऊपर ही होता था। बहुत मज़ा आता था जब दो पतँगों के पेचे लड़ जाते थे और कटी पतँग को लूटने के लिये जो बच्चों में होड़ लगती थी उस दृश्य का अपना ही नज़ारा था। क्या वो ज़माना था और क्या वो दिन थे। न जाने जगजीत सिँह की यह लाइने एकाएक क्योँ याद आ गयीं। यह दौलत भी लेलो यह शोहरत भी लेलो, भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी। मगर मुझ को लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी।
Anima Das 2024/02/16 03:52 PM
सादर नमस्कार सर
मधु शर्मा 2024/02/15 07:06 PM
सम्पादक जी ने दुखती रग पर हाथ रख दिया। कहाँ तो भारत में बसन्त के त्योहार पर बचपन में हम बसन्ती वस्त्र पहन टोलियों में नाचते-गाते फिरते थे कि 'आई बसन्त पाला उड़न्त'। और कहाँ यहाँ इंग्लैंड में अप्रैल में भी कभी-कभार बर्फ़बारी में ठिठुरना पड़ता है। हमे मालूम है तीज-त्योहारों का महत्त्व लेकिन दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है कि कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही था। साधुवाद।
डॉ ऋतु शर्मा ननंन पाँडे नीदरलैंड 2024/02/15 11:34 AM
आदरणीय आपका संपादकीय हमेशा की तरह आज भी दिल को छू लेने वाला है । हम सभी प्रवासियों जो एक लंबे समय से विदेशों में रह रहे है । उनका दर्द और संवेदनाएँ लगभग एक सी ही हैं । शुरू में नौकरी और खुद को बाहरी परिवेश में ढालने में पता नहीं चलता कि हमने क्या पाया क्या खोया । पर जब थोड़ी फ़ुर्सत मिलती है तो अपना देश ही याद आता है। बहुत सुंदर संपादकीय आपको बहुत बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय डॉ ऋतु शर्मा ननंन पाँडे नीदरलैंड
shaily 2024/02/15 11:32 AM
बसन्ती धूप और हवा के झोंके के साथ आपकी पीड़ा पाठकों तक ना पहुँचे ऐसा हो ही नहीं सकता है। यद्यपि मेरा निजी अनुभव देश की माटी छोड़ने का तो नहीं रहा लेकिन अजीवन यायावर सा रहा जीवन। इस तरह की पीड़ा गहराई तक अनुभव की है। "कहते हैं सबहि नचावत राम गुंसाई"। बहुत कुछ पाने की आस में बहुत कुछ खोना पड़ता है। सभी इस दुःख को अनुभव करते हुए अपने अपने टापुओं में बंधे , दुःख सुख बर्दाश्त करते रहते हैं। बेहद भावुक करने वाली लेखनी को प्रणाम।
हेमन्त कुमार शर्मा 2024/02/15 08:38 AM
जिस बात पर सुमन जी ने संकेत किया है, वही बात मैंने अपनी कहानी संग्रह 'कुशल और अन्य कहानियां' की 'बस दिन इतिवार का हो' कहानी में व्यक्त की है। कैसे रोजी रोटी की मशक्कत आदमी को इतना मसरुफ़ कर देती है कि वह अपनो के लिए समय नहीं निकाल पाता है। विवाह हो, चाहे मृत्यु - सब काम हो पर इतिवार का छुट्टी वाला दिन।- हेमन्त।
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अरुण कुमार प्रसाद 2024/02/24 12:11 PM
परिवर्तन चुनना और उसे स्वीकार करना मनुष्य की आवश्यक विवशता है।