प्रिय मित्रो,
प्रवासी लेखक एक असमंजस के बादल के नीचे रचनाकर्म करता है; और बादल समय-समय पर बरस कर काग़ज़ गीला भी करता रहता है और लिखे शब्दों को बहाता भी रहता है! ऐसा क्यों होता है, यह एक अलग शोध का विषय है। सच्चाई तो यह है कि वह जब रचता है तो एक असमंजस की स्थित बनी रहती है। यह असमंजस के कई प्रकार और स्तर होते हैं। वह प्रायः सोचता है—उसकी रचना को कहाँ, कौन और किस माध्यम में पढ़ेगा? प्रकाशन का माध्यम भी महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि आधुनिक तकनीकी के माध्यम यानी इंटरनेट और ई-पुस्तकों को हिन्दी संस्थान मान्यता नहीं देते। वैसे यह मेरी समझ से परे है और प्रायः उलझन में पड़ जाता हूँ कि क्या माध्यम के बदलने से शब्दों के अर्थ भी बदल जाते हैं या संवेदनाएँ उथली हो जाती हैं? जो भी हो, होता यही है और प्रवासी लेखक इसकी मार झेलता है। पुस्तक प्रकाशन के लिए उसे भारत ही जाना पड़ता है। प्रवासी लेखक से आमतौर पर प्रश्न पूछा जाता है कि आपकी कितनी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं? यानी अगर पुस्तक काग़ज़ पर नहीं है तो वह साहित्य मूल्यहीन है; ऐसा मान लिया जाता है। वास्तविकता यह है कि मुद्रित पुस्तक संख्या सीमित होती है और इलैक्ट्रॉनिक संस्करण पढ़ने वालों की संख्या असीमित होती और इस पर काल और देश की सीमाओं के बंधन भी नहीं होते।
दूसरी दुविधा रहती है, लेखक परिवार से समय चुरा कर लिखता है। यह परिस्थित नर लेखक के लिए अधिक दुरुह होती है (पत्नी को तभी सारे काम याद आते हैं, जब पति कुछ लिखने बैठता है)। अगर पति अपनी पत्नी के लेखन में व्यवधान डाले तो उस रात चूल्हा ठंडा रहता है। शायद प्रवासी लेखक और भारतीय लेखक का इस समस्या में भाई-चारा है परन्तु प्रवासी जीवन की व्यस्तताएँ इतनी अधिक हैं, कि नर के लिए लिखना संकटमय हो सकता है।
अगर प्रवासी लेखक के बच्चे किशोरावस्था में हों तो वह लेखक-पिता को समय को व्यर्थ में गँवाने वाला समझते हैं। माँ की बात अलग होती है, वह प्रमाणित संवेदनशील होती है और उसका रचनाकर्म बच्चों द्वारा स्वीकार्य होता है क्योंकि माँ के लिए संवेदनाओं की अभिव्यक्ति प्राकृतिक होती है। पिता न जाने क्यों पाषाण-हृदय संवेदनहीन मान लिया जाता है। दृढ़ता और साहित्य सृजन में कोई छत्तीस का आँकड़ा है क्या? यह मेरी समझ से परे है।
बच्चे जब व्यस्क हो जाते हैं, तो वह माँ-बाप के रचनाकर्म के मूल्य को अधिक समझने लगते हैं। यह परिस्थिति भी प्रवासी लेखकों में अपराध बोध पैदा करती है। कभी बेटा आपके कंधे पर से झाँकर कर हिन्दी के शब्दों को जोड़कर पढ़ने प्रयास करता है, और फिर चलते-चलते कह जाता है, “व्हाई डोंट यू राइट इन इंग्लिश? ऐट लीस्ट आई विल बी एबल टू रीड! (आप इंग्लिश में क्यों नहीं लिखते? कम से कम मैं पढ़ तो पाऊँगा!)”
बच्चों की यह बात शूल की तरह अंतरात्मा को भेद जाती है।
प्रवासी हिन्दी लेखक किसके लिए लिख रहा है? वह अपना साहित्य किस पीढ़ी के लिए छोड़ कर जाएगा? साहित्य के माध्यम से जो जीवन-मूल्य लेखक अपने आस-पास के लोगों तक सम्प्रेषित करता है, या साहित्यिक धरोहर के रूप में आने वाली पीढ़ियों को देता है क्या यह सब, प्रवासी हिन्दी साहित्यकार अपने बच्चों या बच्चों के बच्चों के लिए कर सकता है। अगर हम अपनी अगली पीढ़ी को टूटी-फूटी हिन्दी बोलना, पढ़ना सीखा भी दें तो उनसे अगली पीढ़ी के लिए कौन-से साहित्य का इतिहास बचेगा? क्या प्रवासी लेखक केवल भारतीय पाठक के लिए लिखता है? शायद कुछ लेखक तो यही करते हैं, परन्तु वहाँ भी समस्या होती है। भारतीय समीक्षक की अपेक्षाएँ रहती हैं कि प्रवासी लेखन में स्थानीय झलक मिले। अगर प्रवासी लेखक अधिक स्थानीय हो जाए तो भारतीय आलोचक रचना की सूक्ष्मताएँ नहीं समझ पाते क्योंकि तलाब के किनारे बैठा व्यक्ति तैरना नहीं सीख सकता। भारतीय आलोचक जब तक प्रवासी जीवन नहीं जीता, वह कैसे प्रवासी संस्कृति और अनुभव का आकलन कर सकता है? कुछ प्रवासी लेखक इतने प्रवासी हो जाते हैं कि वह अंग्रेज़ी के लेखकों की रचनाओं को भारतीय परिदृश्य में काट-छाँट कर ‘फ़िट’ कर देते हैं। क्या ऐसे प्रवासी हिन्दी साहित्य का अनुवाद करना एक अनूठी समस्या खड़ी तो नहीं कर देगा? प्रवासी हिन्दी लेखक के लिए एक और समस्या बनी रहती है। भारतीय आलोचकों को प्रसन्न करने के लिए वह प्रवासी भारतीय संस्कृति को इतना पाश्चात्य बना देता है जैसी कि होती नहीं है। अब ऐसे साहित्य की हालत धोबी के उस गधे की सी हो जाती है जो न घर का रहता है न घाट का।
अभी मैंने अनुवाद शब्द का प्रयोग किया। वास्तव में इन प्रवासी लेखक की समस्याओं में से अधिकतर का निदान अनुवाद ही है यानी हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुवाद। प्रायः अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद बहुत किया जाता है परन्तु हिन्दी से अंग्रेज़ी में नहीं। अभी हाल ही में एक पुरस्कृत उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद न जाने कैसे किया गया कि अनूदित पुस्तक की पृष्ठ संख्या मौलिक पुस्तक से दुगना हो गई। इससे बचने के लिए हिन्दी लेखक को अनुवाद प्रक्रिया में अनुवादक के साथ मिलकर बैठना होगा पूरा सहयोग देना होगा। दो-तीन वर्ष पहले यहाँ के एक मन्दिर ने मुझे एक पुस्तक का हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए कहा। उन दिनों व्यस्तता के कारण मैंने अनुवाद करने से मना कर दिया। लगभग दो महीने के बाद उस मन्दिर में जाना हुआ तो उन्होंने हर्षित होते हुए अंग्रेज़ी की पाण्डुलिपि मुझे दिखाई कि उन्होंने पुस्तक भारत से अनूदित करवा ली है। मुझे कहा कि कुछ पन्ने पलट कर बताऊँ कि कैसा अनुवाद हुआ है? पुस्तक किशोरावस्था के बच्चों के लिए थी। भारत से अनूदित पाण्डुलिपि की अंग्रेज़ी भारी-भरकम थी जो कि यहाँ किसी को भी समझ न आए। व्याकरण की समस्याएँ अलग थीं। शब्दों का प्रयोग भी ग़लत था। अन्ततः मुझे ही वह पुस्तक फिर से अनूदित करनी पड़ी। कहना चाहता हूँ कि जहाँ तक संभव हो प्रवासी हिन्दी साहित्य का अनुवाद भी प्रवासी ही करें ताकि प्रवासी संस्कृति की सही अभिव्यक्ति हो।
अगर हम प्रवासियों को अपनी प्रवासी-भारतीय संस्कृति को साहित्य से संपुष्ट करना है तो अनुवाद अनिवार्य हो जाता है। हमारे प्रवासी साहित्य को हमारी अगली पीढ़ी पढ़ सके, समझ सके और हम लोगों पर गर्व कर सके कि नई भूमि पर जड़ें जमाने के साथ-साथ हमने अपने रचना-कर्म को अनदेखा नहीं किया—यही सपना देखता हूँ।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
महेश रौतेला 2023/07/02 09:07 AM
दुविधा का बढ़िया वर्णन। वैसे परिदृश्य हिन्दी के लिए शायद बदलेगा। कल ही मैं फेसबुक पर पढ़ रहा था ( समाचार पत्र का संदर्भ था) कि यूएसए में हिन्दी पढ़ाने के लिए 840 करोड़ की योजना राष्ट्रपति बाइडन को प्रस्तुत की गयी है। और न्यूयार्क के पास ही किसी विद्यालय/ विद्यालयों में जहाँ दो साल पहले 9 छात्र थे, वहाँ उनकी संख्या बढ़कर इस साल 260 हो गयी है( हफ्ते में एक दिन हिन्दी की कक्षा होती है)।
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- उलझे से विचार
विजय विक्रान्त 2023/07/09 09:34 PM
सुमन जी, आपके इस सम्पादकीय ने तो एक दुखती हुई नस को छेड़ने के साथ साथ बहुत ज़ोर से दबा दिया है। दर्द तो बहुत महसूस हो रहा है लेकिन यदि इस दर्द का व्याख्यान करने लगूँगा तो जो कुछ आप ने लिखा है मुझे उसी को फिर से दोहराना पड़ेगा। आपने ठीक पूछा है कि हिन्दी में लिखी यह धरोहर हम किस के लिये छोड़ कर जा रहे हैं। आप तो जानते ही हैं कि यहाँ पर तो भाषा का माध्यम अँग्रेज़ी है और जो बच्चे यहाँ पर पले और बड़े हुये हैं उनके लिये जो कुछ भी उनके पूर्वजों ने हिन्दी में लिखा है सब बेकार है। मेरी अपनी सारी शिक्षा और प्रोफ़ैशन का माध्यम अँग्रेज़ी रहा है। अब तक सारा काम अंग्रेज़ी भाषा में ही किया। शौकियाना तौर पर हिन्दी लिखने में रुची हुई और कैनेडा में आने के बाद हिन्दी में लिखना शुरु कर दिया। अपनी स्टडी में मैं जब कभी भी हिन्दी में कुछ लिख रहा होता हूँ और श्रीमतिजी या कोई बच्चा आजाये तो सब से पहले यह सवाल किया जाता है कि तुम्हारे बच्चे तो यह सब पढ़ नहीं पायेंगे तो फिर तुम यह सब किस के लिये लिख रहे हो। मन को समझाने के लिये इसका मैं चाहे कुछ भी जवाब दे भी दूँ लेकिन अन्दर ही अन्दर एक बहुत बड़ी गिल्ट फ़ीलिंग होने लगती है। रहा अंग्रेज़ी में अनुवाद का सवाल? यह काम भी सिवाये मेरे और कोई कर नहीं सकता क्योंकि, पहले तो ढ़ँग का अनुवादक मुश्किल से मिलेगा और मिल भी गया तो उसके काम की क्या क्वालिटी होगी पता नहीं। वो तो लिट्रल ट्रांस्लेशन कर देंगे मगर हमें तो रीडर्स डाइजैस्ट वाली अप्रोच चाहिये। एक बार शौकिया तौर पर मैं ने अपने एक लेख के अनुवाद के लिये गूगल का सहारा लिया। गूगल द्वारा रचे हुये उस लेख को मैं ने देखा तो सिर पटक कर रह गया। रहा परिवार से समय चुराने का तो सुमन जी डरते हुये यह लिखने की हिम्मत कर रहा हूँ कि श्रीमतिजी को सारे काम जभी याद आते हैं। यहाँ नर लेखक को इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि जब बच्चे बड़े होकर बाहर रहने लगते हैं तो केवल पति पत्नि ही रह जाते हैं। ऐसे में नर लेखक का दायित्व बहुत बढ़ जाता है और कुछ भी लिखना घोर पाप हैं। सुमन जी कभी कभी आप इस विषय से संबन्धित सम्पादकीय लिखते रहिये। पढ़ के दिल कुछ हलका हो जाता है।