प्रिय मित्रो,
जैसा कि आप जानते हैं कि समय समय पर मैं ‘कृत्रिम मेधा’ पर लिखता रहा हूँ। आरम्भ से ही मुझे अन्देशा था कि एक न एक दिन आम-जन का इसके प्रति मोह भंग होगा; और अब ऐसा आरम्भ होता दिखाई देने लगा है। क्योंकि मैं पचास से अधिक वर्ष से पश्चिमी जगत में रह रहा हूँ और कम्प्यूटर टैक्नॉलोजी क्षेत्र में शिक्षित भी हुआ हूँ और यह मेरा कर्म क्षेत्र भी रहा है इसलिए इस मोह-भंग को समझना मेरे लिए दूर की कौड़ी नहीं था बल्कि एक स्वभाविक प्रक्रिया की तरह ही है।
होता यह है कि जब भी पश्चिमी जगत में कोई भी नई तकनीकी का अभ्दुय होता है तो कुछ घोषणाएँ होती हैं और दावे किए जाते हैं। अगले चरण में मीडिया नई तकनीकी को पूरी तरह समझे बिना अपनी कल्पना शक्ति के आधार लिखने लगता है। इस दौरान नई तकनीकी का निर्माण करने वाली कम्पनियाँ, तकनीकी की सम्भावनाओं का अन्वेषण करने लगती हैं। सहज ही इस अन्वेषण प्रक्रिया में व्यवहारिकता गौण हो जाती है। केवल उत्साह, रोमांस, रोमांच और प्रचार बल्कि अतिप्रचार शेष रह जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इलैक्ट्रॉनिक्स सामाजिक उद्योग क्षेत्र में छाने लगी थी। दावे किए जाने लगे की घरों की खिड़कियों के शीशे बाहर की धूप के अनुसार रंग बदलेंगे। नहाने के लिए आपका शॉवर, कार वाश की तरह पहले साबुन की झाग छिड़केगा और फिर पानी की फुहार से उसे धोएगा। वायु के जेट्स से शरीर को सुखा दिया जाएगा . . . और भी न जाने क्या क्या! इसी तरह उड्डयन क्षेत्र में विमानों को परिवहन का माध्यम कम और विलास और समृद्धि का प्रतीक अधिक माना जाता था और इसी रूप में ’बेचा’ भी जाता था। जनता इसे उसी रूप में ख़रीदती भी थी। जिन दिनों मैं यहाँ आया था, उन दिनों एयरपोर्ट पर महिलाएँ सजी-धजी, सैलून से ’हेयर सेट’ करवायी, पर्फ़्यूम से नहायी, आभूषणों से लदी दिखाई देती थीं। वर्तमान समय में एयरपोर्ट और बस-अड्डे में अधिक अंतर नहीं दिखाई देता।
होम-कम्प्यूटर का आगमन हुआ तो सॉफ़्टवेयर पैकेज में “वर्ड परफ़ेक्ट”, “लोट’अस 123”, “पॉवर प्वाइंट” इत्यादि से लुभाया जाता था। वर्ड परफ़ेक्ट का होम कम्प्यूटर में होना समझ आता था परन्तु अन्य दो व्यवसायिक सॉफ़्टवेयर थीं; परन्तु वाँछित थीं क्योंकि लोग एक दूसरे से पूछते थे कि कम्प्यूटर के साथ “लोट’अस 123”, “पॉवर प्वाइंट” मिलीं क्या?
इसी तरह तकनीक के आधुनिकीकरण की कई लहरें आईं और क्षितिज में खो गईं। ट्रांजिस्टर रेडियो, सोनी वाकमैन (डिस्क प्लेयर), एमपी थ्री प्लेयर, एसएलआर कैमरा इत्यादि आमजन के पटल से ग़ायब हो गए। इंडस्ट्री में रोबाट्स का आगमन 80 के दशक में आरम्भ हुआ तो पूरे समाज में भय की लहर दौड़ गई जैसे कि सब की नौकरी रोबाट्स खा जाएँगे। इसी शृंखला की अगली कड़ी है ‘एआई’—कृत्रिम मेधा है।
मेरी बड़ी पुत्र वधू—स्टेफ़िनी ग्राफिक्स आर्टिस्ट है। वह शैक्षिक ऐप्स बनाने वाली अंतरराष्ट्रीय कम्पनी में डायरेक्टर है। प्रायः हम कला क्षेत्र (ग्राफिक्स और लेखन) पर एआई के प्रभाव पर बात करते रहे हैं। आरम्भिक दिनों से लेकर आज तक।
कुछ महीने पहले जब हम यू.एस. उनके घर गए थे उस समय हम कृत्रिम मेधा की सम्भावनाओं को लेकर उत्साहित थे और भविष्य की ओर आशान्वित दृष्टि से देख रहे थे। गत सप्ताह वह मेरे यहाँ आई हुई थी। एक दिन हम दोनों किचन में बैठे कृत्रिम मेधा के बारे में बात करने लगे। उसने पूछा, डैड, आप अब क्या सोचते हैं एआई के बारे में?”
मैंने वही दोहराया जो मैं अपने दो सम्पादकीयों में लिखा था कि मैं इसे केवल एक रिसर्च का टूल मानता हूँ। उसने मुस्कराते हुए पूछा, “क्या आपने सम्पादन में पाया कि कुछ लेखक एआई से सहायता ले रहे हैं?”
संयोग ही था कि राखी के दिनों में मैं पत्नी को एआई से लेखन की सम्भावनाओं को दिखा रहा था। मैंने को-पायलट (Copilot) से कहा, “राखी पर कविता लिखो”। कृत्रिम मेधा नें कुछ पलों में कविता लिख दी और साथ ही पूछ लिया “क्या मैं आपके लिए इसी विषय पर लघुकथा लिखूँ?” मैंने कहा, “हाँ, लिखो।” कृत्रिम मेधा ने ग्रामीण परिप्रेक्ष्य के साथ एक लघुकथा लिख दी कि व्यस्त भाई शहर से किसी तरह समय निकाल कर बहन को राखी के दिन आश्चर्यचकित करता है। मैंने एआई को लिखा, “शहरी प्ररिप्रेक्ष्य में राखी के विषय पर लघुकथा लिखो”। नई लघुकथा और पुरानी लघुकथा में केवल पात्रों के नाम बदले गए थे, गाँव की बजाय शहर हो गया था। मौलिक रूप से कथानक वही था। इसके बाद मैंने कई बार विभिन्न सम्भानाओं के साथ लघुकथा लिखवाई। परिणाम ऐसा था कि एक साधारण पाठक भी जान सकता था कि यह लघुकथा किसी लेखक के द्वारा नहीं बल्कि एक मशीन के द्वारा लिखी गई है।
मैंने अपना यह अनुभव स्टेफिनी को बताया। वह हँसने लगी, और बोली, “डैड, मेरा भी यही अनुभव है। जो ग्राफिक्स आर्टिस्ट एआई द्वारा ग्राफिक्स बनाते हैं, उसमें कुछ ’मिस्सिंग’ लगता है। एक दोहराव लगता है। एक कलाकार के रूप में अनुभव होता है कि ऐसा कुछ है जो इसमें नहीं है। जैसे कला में आत्मा नहीं है।”
मैंने गम्भीरता से कहा, “मानवीय तत्त्व (ह्यूमन एलिमेंट) गुम है स्टेफिनी!”
उसने कहा, “हाँ, डैड।”
वह अपनी ब्लैक कॉफी पीने लगी और मैं अपनी चाय। हम दोनों के बीच बिस्कॉटी की प्लेट में रखी थी। जिसे हम उठाना या छूना नहीं चाहते थे।
मोबाइल की स्क्रीन पर फ़ोर्बस की रिपोर्ट थी “AI Hype Is Dropping Off a Cliff While Costs Soar (कृत्रिम मेधा को लेकर बना हुआ उत्साह अब गिरावट की ओर है, जबकि इसके विकास पर ख़र्च लगातार बढ़ता जा रहा है।)
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
सरोजिनी पाण्डेय 2025/09/02 09:34 PM
आदरणीय संपादक महोदय इतना रोचक ,मनोरंजक गल्प शैली में लिखा गया संपादकीय पढ़ कर उपहार स्वरूप एक संतोषप्रद हास्य मिला । शायद इसी को भोजपुरी में कहते हैं,""जौने मन भावै उहै बैदा बतावै'' मुझे तो आरंभ से ही कंप्यूटर की यह नई विधा "कृत्रिम मेधा ''न लगकर ''उधार की मेधा '' अथवा बहुजन की मेधा या फिर सार्वजनिक मेधा अधिक लगती है क्योंकि आखिर यह इंटरनेट पर प्राप्य एक बहुत बड़ी संख्या के डेटा से ही तो कुछ प्रासंगिक तथ्य छांट कर आपके सामने प्रस्तुत करती है। ऐसे में मौलिकता अथवा कल्पनाशीलता का तो अभाव रहेगा ही जो मानव मस्तिष्क की विशेषता है। लेकिन हम चाहे कुछ भी सोचें यह कृत्रिम मेधा है तो दुधारी तलवार ही।कल्पना शीलता वाले क्षेत्रों में इससे बहुत शीघ्र मोहभंग संभव है ,परंतु अपराध और विज्ञान के क्षेत्र में इसका विकास ,प्रचार और प्रसार मेरे विचार से अभी काफी समय तक होता रहेगा। ईश्वर वैज्ञानिकों को ऐसी बुद्धि दे कि इस शास्त्र का समुचित प्रयोग ही हो। बढ़िया संपादकीय के लिए बधाइयां
लखनलाल पाल 2025/09/02 04:27 PM
साहित्य कुंज का इस बार का संपादकीय-" मानवीय तत्व गुम है" में आधुनिक तकनीक AI पर केन्द्रित है। संपादकीय से एआई के परिणाम और दुष्परिणामों के विवेचन से यह तो स्पष्ट होता है कि यह मशीन चाहे जितनी ही तेज क्यों न हो, मानव जैसे काम क्यों न करती हो पर मानव का स्थान नहीं ले सकती है। यह हर काम करती है। कुछ भी पूछो, कुछ भी लिखवाओ वह विनम्रता से आपके सारे आदेशों का पालन करेगी। इससे लेखन कार्य सुगम हो गया है। जो साहित्य में नए हैं या जिन्हें साहित्य की कम जानकारी है इससे लिखवाकर वे लोग साहित्यकार होने का तमगा लटकवा लेते हैं। उनके लिए यह वरदान साबित हो रहा है। लेकिन साहित्य के जानकार समझ जाते हैं कि फलां रचना साहित्यकार की सौतेली संतान हैं। कुछ लोग ज्यादा समझदार होते हैं। वे एआई के आइडिया को लेकर अपनी भाषा में रपेट देते हैं। तब भी वह रचना मुकम्मल नहीं हो पाती है। एआई में व्यक्त मानवीय संवेदनाएं सतही होती है जबकि मौलिक लेखन में संवेदनाओं की धड़कनें स्पष्ट महसूस होती हैं। आपने सही कहा है कि आधुनिक तकनीक की कई लहरें आईं और चली गई। ऐसा एआई के साथ भी होगा। ये आपकी बात सच हो सकती है। आप बहुत दिनों से तकनीकी क्षेत्र से जुड़े रहे हैं और आपके अनुभव भी विस्तृत है। मुझे लगता है कि इसके हर साल नए वर्जन आते रहेंगे, पहले से ज्यादा उन्नत। और लोग उसे पकड़े रहेंगे। हर पहले को छोड़कर आगे वाले को स्वीकार करता रहेगा। इस संपादकीय में एआई से पहले की तकनीकियों का जिक्र यह बताता है कि आप तकनीकी के मर्मज्ञ हैं। उसके अच्छे बुरे, उपयोगी अनुपयोगी रूप से भलीभांति परिचित हैं। नए विषय पर लिखी संपादकीय बढ़िया है। इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई सर ????????
मधु 2025/09/01 09:47 PM
यह विस्मय भरा (मेरे लिए) सम्पादकीय पढ़ते हुए पहले तो अपनी अज्ञानता पर अफ़सोस हुआ कि आधुनिक-तकनीकी में यह विश्व कहाँ से कहाँ पहुँच गया, और मधु तुम किस 'पाषाण युग' में रह रही हो। परन्तु पूरा सम्पादकीय पढ़ने के पश्चात स्वयं को तुरंत आश्वासन दिया कि अज्ञानता से अधिक भयानक आधा-अधूरा ज्ञान होता है। स्वयं को साहित्यकार कहलवाने वाले जो 'महान' लेखक साहित्य की खुलेआम चोरी करते रहे हैं, उनकी 'निपुणता' का भांडा फूट चुका है। साधुवाद।
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सम्पादकीय (पुराने अंक)
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प्रदीप प्रभू 2025/09/15 04:50 AM
मैं पिछले कुछ समय से कनाडा आया हूँ। मेरे मित्र डॉ. जवाहर करनावट के एक लेख से आपकी वर्ष 2012 से प्रकाशित पत्रिका के बारे में पता चला। आपके सितंबर 2025 अंक का संपादकीय पढ़ा। लेख ने प्रभावित किया है। एआई का अनुसंधान के लिए प्रयोग सही प्रतीत होता है। साहित्य रचना में फिलहाल तो काफी काम किए जाने की आवश्यकता लगती है। साहित्य कुंज का भविष्य उज्ज्वल है