प्रिय मित्रो,
आमतौर पर अंक प्रकाशन से एक दिन पहले सम्पादकीय लिखने के लिए अपने लैपटॉप पर बैठता हूँ। उस समय तक अंक में प्रकाशन होने वाली सब रचनाएँ अपलोड हो चुकी होती हैं और मैं संघर्ष कर रहा होता हूँ कि क्या लिखूँ। आज कुछ ऐसा घटा कि अंक प्रकाशन से कई दिन पहले ही मैं सम्पादकीय लिख रहा हूँ।
आज २६ जनवरी है। इस समय भारत का गणतन्त्र दिवस भारत में कब का मन चुका। मैं भी सुबह से टुकड़ों में यू-ट्यूब पर गणतन्त्र दिवस की परेड इत्यादि देख रहा था। सुबह का नाश्ता करने के ऊपरी मंज़िल के एक शयन कक्ष की खिड़की में खड़ा प्रकृति का श्वेत वैभव देख रहा था। १७ जनवरी को बहुत बर्फ़ गिरी। चौबीस घंटे तक गिरती ही रही। उसके बाद लगभग प्रत्येक दिन एक नई तह बर्फ़ की गिर जाती। इस तरह हिम की चादर की शुभ्रता बनी रही। मेरी यह खिड़की दक्षिण पूर्व की ओर है। जिस सुबह धूप निकलती है, ख़ूब धूप आती है इस कमरे में। शायद इसी धूप की उष्णता को भोगने के लिए स्वतः चला आया हूँ। मेरे घर के सामने आकर सड़क मुड़्ती है और इस खिड़की की सीध में सड़क का एक टुकड़ा दिखाई देता है। शांत सड़क के एक ओर कुछ भी नहीं है। नहीं, ऐसा नहीं कह सकता क्योंकि सड़क के दोनों छोरों पर चीड़ के कुछ पेड़ों के झुरमुट हैं। कल रात भी कुछ बर्फ़ गिरी थी, जिसने सड़क पर गुज़री कारों के पहियों के निशानों को ढक दिया है। मटमैली होती बर्फ़ फिर से साफ़-सुथरी लगने लगी है।
आज धूप पूरी खिली है और इसीलिए बाहर कड़ाके सर्दी है। तापमान शायद -१४ डिग्री के आसपास है परन्तु हवा शान्त है। चीड़ के पेड़ों की फुनगियों पर अभी बर्फ़ के फाहे ज्यों के त्यों टिके हैं; झड़े नहीं। अचानक ध्यान जाता है कि यह हवा में चमकीले कण क्या उड़ रहे हैं जैसे आकाश से चमकी झर रही हो। पहले लगा कि शायद छत बर्फ़ झर रही है, पर नहीं . . . क्योंकि पवन शान्त है। सामने से धूप की किरणों से हवा से यह कण चाँदी की तरह लग रहे हैं कुछ इंद्रधनुषी आभा बिखेर रहे हैं। विचार आता है कि क्यों न इस प्रकृति के वैभव को लिख लूँ ताकि जब भी फिर से पढ़ूँ , इस क्षण में वापिस पहुँच सकूँ और फिर से जी सकूँ।
मेरे कम्प्यूटर की मेज़ की बायीं और दायीं ओर खिड़कियाँ हैं। आज मैंने पर्दे पीछे कर दिए। पिछले आँगन/लॉन में अक़्सर गिलहरियों की उछल-कूद निरंतर चलती है। एक माह से इन मुटियाई गिलहरियों को देख रहा था अपनी गालों में चीड़ के बीज दबाए कहीं छिपाने के लिए निरंतर लॉन के कभी एक कोने में खोदतीं तो कभी दूसरे में। पहली बर्फ़ के बाद इनकी व्यस्तता बढ़ गई थी। आज ध्यान गया कि अचानक पिछले दो सप्ताह से दिखनी बंद हो गईं। शायद इन्हें भारी बर्फ़बारी का पूर्वानुमान हो गया होगा; तभी तो शीतनिद्रा में चली गईं। अब लॉन में उगे दो मेपल के पेड़ों से चिड़ियों की चहचहाट नहीं सुनाई देती। सुनाई देती है तो केवल तेज़ हवा के चलने से साँय साँय या टूटती कमज़ोर शाखाओं की कड़कड़ाहट।
ऐसा भी तो नहीं कि शीत अपने साथ उदासी लाता हो। इसका अपना रंग है। कम से कम ख़िड़की के काँच के पीछे से शान्त दिन में बर्फ़ की चादर को देखने का अपना ही आनन्द है। जब बाहर बर्फ़ का तूफ़ान उड़ रहा हो तो चाय की चुस्की लेते हुए बाहर देखना भी मनोरंजक हो जाता है। अगर तापमान थोड़ा ठीक हो तो बाहर पैदल चलना या पार्क में बच्चों को खेलते देखना भी अच्छा लगता है। बच्चों की बात आई तो यहाँ पर बच्चे बेसब्री से भारी बर्फ़बारी की प्रतीक्षा करते हैं जो सोमवार से शुक्रवार के बीच हो क्योंकि उस दिन स्कूल बन्द हो जाता है। बच्चों को इस छुट्टी का अलग ही आनन्द आता है इसका नामकरण भी बच्चों ने कर दिया है–स्नो-डे!
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
सुनीता आदित्य 2022/02/03 08:06 PM
पहली बार आपकी पत्रिका और सम्पादकीय से रूबरू हो रही हूं... बेहद खूबसूरत सम्पादकीय... ऐसा लग रहा था कि दृश्य शब्दों का रूप लेकर सचित्र सामने आते जा रहे हैं... कनाडा की वर्फीली सुबह या बच्चों का स्नो डे... प्रकृति के बदलते रुप रंग। हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं और आभार। सादर...
सुमन कुमार घई 2022/02/02 07:19 PM
महेश जी अच्छा लगा कि आपकी यादें ताज़ा हुईं। जैसे आप पाला गिरने कि बात कर रहे हैं यहाँ पर एक प्रकार की बर्फ़ गिरती है जिसे फ़्रीज़िंग रेन कहते हैं। जब तापमान शून्य के आसपास यानी एक दो डिग्री ऊपर नीचे हो तो बारिश ज़मीन पर गिरते ही जम जाती है या बर्फ़ (Ice) मोतियों की तरह गिरती है। यह बहुत ख़तरनाक हो जाती है क्योंकि यह शीशे की तरह धरती और पेड़ों पर जम जाती है। इसी स्थिति में पैदल चलना या कार में जाना जोखिम उठाने का काम हो जाता है। जिसे भारत में गिलहरी कहते हैं उसे यहाँ चिपमंक कहते हैं। हमारे इलाक़े में वह नहीं होती। थोड़े गर्म इलाक़े में पश्चिमी कैनेडा या यू.एस. में होती है। हमारी गिलहरी भारत की गिलहरी से तीन चार गुना बड़ी होती है। वह मटमैले, भूरे स्लेटी से रंग की होती है। टोरोंटो के क्षेत्र में वह पूरे काले रंग की भी पाई जाती है। सर्दी आने से पहले वह नट्स खाकर फ़ैट स्टोर कर लेती है ताकि जब वह घोर शीत में हाइबर्नेशन में जाए तो शरीर को भोजन मिलता रहे इसलिए मुटियाई गिलहरी लिखा था।
राजेश'ललित' 2022/02/02 05:34 PM
आदरणीय सुमन जी, आपका संपादकीय हर बार उतनी ही ताजगी लिये होता है।हमेशा उत्सुकता बनी रहती है।जब तक पूरा न पढ़ लूँ चैन वहीं मिलता।मुझे लगा शीत लहर कनाडा में नहीं यहाँ मेरे घर के बाहर चल रही है। राजेश'ललित'
निर्मल कुमार डे 2022/02/02 02:38 PM
बहुत सुंदर अंक। अब तो सबसे पहले संपादकीय ही पढ़ता हूँ। उम्दा संपादकीय। बहुत-बहुत बधाई।
महेश रौतेला 2022/02/02 07:25 AM
आपका संपादकीय पढ़कर मुझे अपना गाँव और नैनीताल याद आ गया है। हमारे गाँव में बर्फ गिरती है और जब पढ़ायी के लिए नैनीताल गया तो वहाँ भी जाड़ों में खूब बर्फ गिरती थी।(इस साल अभी तक चार गिर चुकी है) । बर्फ गिरने के बाद उस पर पाला गिरता है तो सतह बहुत चिकनी हो जाती है। एक बार ढलान के रास्ते पर जाते समय बहुत दूर तक फिसल गया था जब संभला तो फिर फिसल गया। चोट नहीं आयी थी। गिलहरी वहाँ नहीं होती है। आपने सुन्दर और सजीव चित्रण किया है। गाना याद आ गया- "ये वादियाँ ये फ़िज़ाएं बुला रही हैं तुम्हें--" साहिर।
Sarojini Pandey 2022/02/01 11:17 AM
बहुत सजीव,विशद दृश्याकंन ,दिल्ली की कोहरे से भरी शीत को सहते हुए कनाडा की हिमाच्छादित सुबह का मानस दर्शन कराने के लिए धन्यवाद !
Rajnandan Singh 2022/02/01 08:00 AM
सुंदर शब्द चित्र।
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शैलजा सक्सेना 2022/02/04 09:55 PM
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