प्रिय मित्रो,
कैनेडा के स्कूलों में इन दिनों गर्मियों की छुट्टियाँ का अंतिम सप्ताह है। सितम्बर के पहले सप्ताह में “लेबर डे” के बाद स्कूल खुल जाते हैं। जून के अन्तिम दिनों से लेकर सितम्बर के पहले सप्ताह तक जिन परिवारों में बच्चे होते हैं, उनकी दैनिक जीवन शैली बहुत बदल जाती है। प्रायः कनेडियन परिवारों में माता-पिता दोनों काम करते हैं, ऐसे में बच्चों की देख-भाल की चिंता माता-पिता के लिए फरवरी से ही आरम्भ हो जाती है। बच्चों को व्यस्त रखने के लिए स्कूल से बाहर कई संस्थाएँ और व्यवसाय कार्यक्रम बनाते हैं और उनकी मार्केटिंग की जाती है। इन तरह-तरह के कार्यक्रमों को कैंप कहा जाता है। कैंप का नाम आते ही एक चित्र मन में उभरता है कि घने जंगल में पेड़ों नीचे टैंट लगे हुए हैं और जलती लकड़ी के ऊपर लटके बर्तन में कुछ पक रहा है। नहीं ऐसा कुछ भी नहीं होता है और विशेषकर बच्चों के लिए। हाँ, यह अवश्य है कि कुछ कार्यक्रम बच्चों के लिए ऐसा ही अनुभव प्रदान करते हैं परन्तु कड़ी सुरक्षा और देख-रेख में। वहाँ भी प्रायः टैंट कि बजाय लकड़ी के बने हॉस्टल की व्यवस्था होती है। खाना भी कैंटीन में होता है पेड़ों के बीच जलती लकड़ी पर लटकते बर्तन में नहीं पकता। दिन भर व्यस्कों की निगरानी में जंगल में ट्रैकिंग, स्विमिंग, रॉक क्लाइम्बिंग, बोटिंग जैसी गतिविधियाँ होती हैं। दूसरी प्रकार के कैंप शहरों में ही होते हैं। यह प्रायः स्कूलों में होते हैं। इन कैंपों में बच्चों को विभिन्न गतिविधियों में व्यस्त रखा जाता है। जैसे कि किसी दिन उन्हें खेती-बाड़ी दिखाने के लिए गाँवों में ले जाते हैं, म्यूज़ियम, ज़ू, साईंस-सेंटर आदि भी ले जाया जाता है या विभिन्न खेलों में व्यस्त रखा जाता है। शहर के बड़े पार्कों में बाइकिंग रैली इत्यादि के भी आयोजन होते हैं।
मेरा पोता युवान जो अब छह वर्ष का है ऐसे ही कैंप में पिछले दो-अढ़ाई महीने से व्यस्त था। अंतिम दो सप्ताह में उसकी देखभाल का दायित्व मैंने और मेरी पत्नी पर था। दिन भर उसे व्यस्त रखने के लिए पहले ही योजना बना ली जाती। छह वर्ष के एक ऊर्जा से भरे सक्रीय बालक के साथ हम दोनों भी बचपने में लौट जाते। सुबह का एक घंटा उसे बाग़-बग़ीचे की देखभाल में मैं व्यस्त कर देता। पौधों को पानी देना, झर रहे फूलों को काटना, दादी के साथ मिर्चों की “हारवेस्टिंग” करने में उसे बहुत आनन्द आता और उसे अनुभव होता कि वह कुछ फ़ार्मर/किसान बन गया है और कुछ नया सीख रहा है। इसके बाद आधा घंटा टी.वी. और फिर पिछले आंगन में पेड़ की छाया में किसी खेल में वह व्यस्त हो जाता है। क्योंकि मेरा लॉन सपाट नहीं है इसलिए वह अपने बाईक से चढ़ाई चढ़ता है और फिर तेज़ गति से नीचे आता है। इसी तरह दोपहर के खाने का समय हो जाता है। खाने के बाद कोई पुस्तक पढ़ने के लिए उसे प्रोत्साहित करता हूँ पर उसमें उसे कोई रुचि नहीं है। हमारा प्रयास रहता है कि वह कम से कम समय टीवी के आगे बिताए।
परसों खाने के बाद वह ज़िद करने लगा कि वह टीवी देखेगा। इस बार उसने मुझे लालच दिया, “दादू, क्या आपने कंग-फ़ू पांडा चार देखी है?” वास्तव में मैंने नहीं देखी थी। उसने पेशकश की कि मैं उसके साथ बैठकर देखूँ। मैं मान गया और वह बहुत ख़ुश हुआ। पूरा वातावरण बनाया गया। मेरे घर की बेसमेंट में बड़ी स्क्रीन का टीवी है। उसने लाईट्स बंद कर दीं। ऊपर दादी को पॉप-कॉर्न बना कर लाने और साथ बैठ कर फ़िल्म देखने का निमन्त्रण भी दे आया। हम तीनों कंग-फ़ू पांडा देखने के लिए टीवी के सामने सोफ़े पर जम कर बैठ गए।
इस सिरीज़ में चार फ़िल्में बन चुकी हैं। इस एनिमेशन शृंखला की पहली फ़िल्म २००८ में बनी और चौथी फ़िल्म २०२४ में। यानी सोलह वर्षों में चार फ़िल्में बनी और कई टीवी सीरियल बने। यह सिरीज़ कई बार पुरस्कृत हो चुकी है और व्यवसायिक दृष्टि से बहुत सफल रही है।
यह एनीमेशन/बच्चों की फ़िल्म बहुत रोचक लगी यानी इतनी कि अगले दिन युवान और मैंने साथ बैठ कर बाक़ी की तीन फ़िल्में भी देख डालीं। उस रात बिस्तर पर लेटा मैं फ़िल्म के बारे में सोचता रहा। मैंने अनुभव किया कि हालाँकि यह सिरीज़ यू.एस.ए. का निर्माण है और इसके लेखक भी अमेरिकन ही हैं, फिर भी इन्होंने कंग-फ़ू के दार्शनिक आधार को बहुत महत्त्व दिया है। इसका अगर फ़िल्मी वर्गीकरण करें तो इसे एक्शन-कॉमेडी कहेंगे परन्तु कथानक में मानवीय-मूल्यों को न केवल महत्व दिया है बल्कि उसके जीवंत उदाहरण भी कथानक में बुन दिए हैं। गुरु जब तक शिष्य पर विश्वास नहीं करता तब तज शिष्य में भी आत्म विश्वास पैदा नहीं होता। जब तक आंतरिक शांति पैदा नहीं होती शारीरिक शक्ति और उसकी शिक्षा निरर्थक है। परिवार के प्रति श्रद्धा, जन्म देने वाले पिता और पालन करने वाले पिता के लिए सम-प्रेम, सम-आदर और सम-कृज्ञता का भाव इत्यादि हैं कि दर्शक हतप्रभ रह जाता है कि इतने गूढ़ ज्ञान को इतने सरल और रोचक ढंग से एक्शन-कॉमेडी फ़िल्म बाँट दिया गया है। फ़िल्म देखने के बाद मैंने अनुभव किया कि इस सिरीज़ को बच्चों के साथ माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी को देखना चाहिए। आपका काम आसान हो जाएगा। जैसी चीनी संस्कृति को दर्शाया गया है वह भारत की ही संस्कृति तो है। गुरु शिष्य परम्परा वही है। आंतरिक शान्ति के लिए ध्यान समाधि में जाना। गुरु के आदेश का पालन पूरी निष्ठा के साथ करना। खलनायक के विरुद्ध पूरे गाँव का संगठित हो जाना इत्यादि वही जीवन मूल्य हैं जिनको हम जीते आए हैं और आने वाली पीढ़ियों में देखना चाहते हैं। परिवार में एकता का महत्त्व, अत्याचार के विरोध में मुखर होना वैश्विक मूल्य हैं, जो इस फ़िल्म की कहानी का मूल तत्त्व है। कहानी और पटकथा स्तरीय है।
एक और विचार भी मन के किसी कोने में टीसता रहा—क्या भारत का फ़िल्मी उद्योग इस स्तर की हिन्दी में बच्चों की फ़िल्म कभी बना पाएगा? छोटे पर्दे की बात नहीं कर रहा हूँ, बात बड़े पर्दे की कर रहा हूँ।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
डॉ. शैलजा सक्सेना 2024/09/01 11:45 PM
मैंने ये चारों फिल्में देखी हैं और बच्चों की ज़िद पर ही देखी थीं। इन फिल्मों के इन्हीं गुणों ने प्रभावित किया जिनकी बात आपने की। एक बात मुझे और लगी, वह है इनकी लोकप्रियता। ये फिल्में 6 वर्ष केयिवान से लेकर 40, 50 वर्षों के लोगों में भी समान रूप से लोकप्रिय हैं यानी हम पश्चिमी देशों की जिस नई पीढ़ी को स्वार्थरत या माता पिता से लापरवाह मानते हैं, उन्होंने इन फिल्मों को सराहा है और इसके मूल्यों को पसंद किया है। निसंदेह इन फिल्मों की सिनेमेटोग्राफी और एक्शन बहुत पांडे किए गए पर कॉन्ग फू की सरलता और परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर ही उचित पद और गुरु मिलने की बात बच्चों के गले उतरती है। मुझे खुशी है कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं और पसंद की जा रही हैं। अनायास ही ये फिल्में परिवार, गुरु के महत्व का बीज बच्चों के मन में बो रही हैं। आपका आभार जो इस पर संपादकीय लिखा। नोट: युवान की दिनचर्या तो खूब मज़े की लगी। बस अब दो दिन में स्कूल खुले :) सादर शैलजा
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राजनन्दन सिंह 2024/09/02 04:54 AM
इस संपादकीय में बालक युवान के माध्यम से आपने एक बहुत हीं जरूरी एवं महत्वपूर्ण प्रश्न साहित्यकुञ्ज पर रखा है। "क्या भारत का फ़िल्मी उद्योग इस स्तर ( कंग-फ़ू पांडा) की हिन्दी में बच्चों की फ़िल्म कभी बना पाएगा? छोटे पर्दे की बात नहीं कर रहा हूँ, बात बड़े पर्दे की कर रहा हूँ।" वस्तुतः भारत के बच्चों के लिए अलग से एक विशेष सिनेमा के जरूरत की अवधारणा इसके पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा रखी गई थी , और 11 मई 1955 को बाल फिल्म सोसाइटी, इंडिया (CFSI) की स्थापना की गई थी। उसके बाद बड़े पर्दे ने बच्चों को समर्पित बहुत सी फिल्मों का निर्माण किया। यहाँ तक कि व्यवसायिक फिल्मों ने भी "लकड़ी की काठी काठी का घोड़ा.. " "नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये.. " "दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ.. " जैसे बच्चों के लिये अलग से गीत रचे। जो आज भी यदि बच्चे सुनते हैं तो उन्हें पसंद आता है वे खिल उठते हैं, झूमते हैं । मुझे याद है। 1990 तक की फिल्मों में कुछ न कुछ गाने बच्चों पर फिल्माये जाते थे। परंतु धीरे-धीरे सरकारी फिल्म सोसाइटियों का प्रभाव कम होता चला गया और फिल्म निर्माताओं ने बच्चों के मनोरंजन का ध्यान रखना बंद कर दिया। अंततः मार्च 2022 में, बाल फिल्म सोसाइटी सहित चार अन्य सरकारी फिल्म और मीडिया इकाइयों का राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) में विलय हो गया। यदि इन अलग अलग सोसाइटियों को समाप्त करने से पहले उनके जरूरत की समीक्षा होती और उन्हें किसी एक सोसायटी में विलीन करने के बजाय उनका विस्तार किया जाता। उन्हें आधुनिक तकनीक से जोड़कर और कुशल सक्षम व समर्थ बनाया जाता तो निश्चित रुप से हीं बाल फिल्म सोसाइटी भी सक्रिय व समर्थ होती और तब हम कह सकते थे कि हाँ.. भारतीय फ़िल्म उद्योग भी बच्चों के लिए कंग-फ़ू पांडा स्तर की हिन्दी फिल्में बनाने की संभावना रखता है। अवश्य रखता है। वैसे संभावनाएँ आज भी समाप्त नहीं है। जैसा कि संभावनाओं की उम्र लाखों करोड़ों वर्ष होती है। इसलिए संभावना तो संभवतः है हीं। क्या पता किसी कंपनी को कल इसमें मुनाफे की उम्मीद नजर आ जाए और शायद बना भी दे।