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प्रिय मित्रो,

साहित्य कुञ्ज परिवार के सभी सदस्यों को भारत के स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामाएँ!

आज जब सम्पादकीय लिखने बैठा हूँ तो यह भारत के स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या है। जब तक आप साहित्य कुञ्ज के अंक को देखेंगे, भारत में १५ अगस्त की सुबह होगी। भारत में ७७वां स्वतन्त्रता दिवस पूरी धूम-धाम से मनाया जा रहा होगा। सदूर विदेश में बैठे मन में कई विचार आ रहे हैं। जैसे सागर की उत्ताल तरंगें उठती हैं, कभी पैरों को गुदगुदा कर लौट जाती हैं तो कभी पैरों के नीचे की रेत को भी अपने साथ ही सागर की गहराई में ले जाती हैं। मेरी स्मृतियाँ भी ऐसी ही अनुभूतियाँ हैं; आज केवल सुखद यादें ही उभरने दे रहा हूँ।

जब मेरा जन्म ७ अगस्त, १९५२ को हुआ था तब भारत को स्वतन्त्रता मिले केवल चार वर्ष ही तो बीते थे। पाँचवाँ स्वतन्त्रता दिवस मेरे जन्म के ८ दिन बाद ही मनाया गया होगा। स्मृतियों की एक लहर आती है जब मैं तीन वर्ष का था, उस समय की बहुत-सी यादें हैं। हम लोग अम्बाला से खन्ना अपने दादा जी के पास आ गए थे। उन्हें मधुमेह था और उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था। पापा पीडब्लयूडी के ठेकेदार थे। उन्होंने सोचा कि वह तो कहीं भी अपना व्यवसाय जमा सकते हैं इसलिए दादा जी की देखभाल के लिए खन्ना यानी अपने पैतृक घर लौट आए। खन्ना या खन्ना मंडी कहें उन दिनों छोटा सा क़स्बा था। बड़ों को कहते सुनता था कि आबादी पैंतीस हज़ार है। पर मेरी दुनिया तो बहुत छोटी थी। गली से लेकर पुरानी सराय पार करके रानी के तलाब वाले प्राइमरी स्कूल तक। दूसरी ओर दुन्नी-चुन्नी की हवेली से गुज़रते हुए माता-रानी के तलाब के पार गली में “बिस्कुट” बनाने वाले की दुकान तक। या फिर सुभाष गेट के पार लाइब्रेरी, नत्थू की बेकरी से आगे मेहर हलवाई की दूकान तक। हाँ कभी-कभी बड़े भाइयों और उनके दोस्तों के साथ बँगले में खेलने चले जाते थे। बँगला किसी ज़माने में अँग्रेज़ अधिकारियों का रहा होगा। इसके साथ ही एक छोटा-सा चर्च भी था। उन दिनों एक-दो अमेरिकन परिवार वहाँ पर रहते थे। उनका भी अपना छोटा-सा तलाब था और उन्होंने कुछ बत्तखें भी पाल रखी थीं। हमारी गली में रहने वाले गुरदित्त सिंह अंकल भी इन्हीं अमेरिकनों के पी.ए. थे। शायद यू.एस. या यू.एन. का कोई ऐन.जी.ओ. था।

गर्मियों के दिनों में बड़े भाइयों के साथ दोपहर के बाद आढ़त मंडी के पीछे सौदागर सोडे वाले से “रोज़” सोडे की बोतल लेने जाता था। हम चार भाई थे और मैं सबसे छोटा था। अगर माँ कभी सबसे बड़े भाई को कुछ ख़रीदने के लिए बाज़ार भेजतीं तो हम सभी एक साथ ही जाते थे। सौदागर ताज़ा सोडा बना कर देता। उससे सोडा ख़रीदने का सबसे बड़ा आकर्षण था कि हमारे सामने वह सोडे की बोतल भरता था। पारदर्शी सफेद कंचे वाली बोतल में पानी में गुलाबी रंग का कुछ तरल मिला कर एक डिब्बे जैसी मशीन में बंद करता। इसमें एक बार में छह बोतलें आ सकती थीं। फिर वह इस डिब्बे के हैंडल को ज़ोर से घुमाता रहता। और फिर निकाल कर बोतल थमा देता। हर बार वह एक ही वाक्य मेरे सबसे बड़े भाई को कहता,  “बच्चे, बोतल वापिस करने की ज़िम्मेवारी तुम्हारी है।” घर लौट कर शाम के समय दूध में बर्फ़ और रोज़ सोडा मिलाकर पीते और नाक से डकार भी आती। याद आता है कि मैं ख़ाली बोतल को लेकर किसी कोने में छिप कर अपनी नन्ही उँगलियों से बोतल के कंचे को निकालने का प्रयास करता रहता।

मेरे पास नीले रंग की दो सीट वाली तीन पहिए की साइकिल थी। मेरे पास एक जैकट भी थी, स्लेटी रंग की जिस पर लाल रंग की किनारी लगी हुई थी। आमतौर पर गली में सभी लड़के इकट्ठे होकर जुलू़स निकालते। क्योंकि मेरे पास जैकेट थी और मैं सबसे छोटा था तो मैं साइकिल की पिछली सीट पर बैठ कर चाचा नेहरू बनता और मेरा भाई साइकिल का ड्राईवर। बहुत सी मीठी यादें हैं, कितना भोला होता है बचपन। एक दिन नेहरू ज़िन्दाबाद के नारे लगाते लड़कों का जुलूस होता तो अगले दिन मास्टर तारा सिंह के पंजाबी सूबे के आन्दोलन के विरोध में “हिन्दी भाषा पर बलिदान” के आर.एस.एस. के नारे लगाते हुए जुलूस निकालते। मज़े की बात है कि हम सभी पंजाबी भाषी थे और शायद “हिन्दी भाषा पर बलिदान” के इस नारे का न तो अर्थ मालूम था और न ही बोलना आता था। पूरे वाक्य को एक शब्द की तरह “हिन्दीभाषापरबलिदान” बोलते।

हमारे घर एक तिरंगा झण्डा भी था। इसे हम इसी नाम से पुकारते थे। शायद लुधियाना में एक बार प्रदर्शनी देखने आए थे। लुधियाना खन्ना से २६ मील पर था। इस प्रदर्शनी में “खादी भण्डार” की भी दुकान थी। यहीं से झण्डा लिया था। वर्ष में दो बार, यानी १५ अगस्त और २६ जनवरी को पूरी श्रद्धा के साथ हम चारों भाई छत यानी तीसरी मंज़िल पर मुँडेर के साथ बाँस बाँध कर झण्डा फहराते। सबसे बड़े भाई, जो मुझ से छह वर्ष बड़े थे, पूरी औपचारिकता के साथ झण्डे की तहें खोलते और बाँस पर बाँधते। मुँडेर के साथ बाँधने के बाद हम सावधान की मुद्रा में खड़े होकर जन-गन-मन का गान करते। इसे राष्ट्रगान कहा जाता है, यह कम से कम मुझे तो नहीं पता था। यह बातें १९५६ से १९६० के बीच की हैं क्योंकि दादा जी १९५८ की सर्दियों में नहीं रहे। पापा ने इसके बाद लुधियाना काम आरम्भ करने का सोचा क्योंकि हम भाइयों की पढ़ाई की अधिक संभावनाएँ थीं।

लुधियाना में रहने का अभ्यस्त होने में कठिनाई आई। जो अपनापन खन्ना में था वह लुधियाना में नहीं था। खन्ना में सभी जानते थे, क्योंकि दादा जी लगभग पूरी उम्र ही वहीं रहे थे। मुझे याद आ रहा है कि गली में सभी पीढ़ियों के लोग एक दूसरे के साथ बड़े हुए थे। अपनापन स्वाभाविक था। एक बार बड़ा होने पर कैनेडा आने से पहले खन्ना लौटा था अपनी बड़ी बहन (ताया जी की बेटी) से मिलने। वह वहाँ के स्कूल, पुत्री पाठशाला की प्रिंसिपल थीं। बचपन के दोस्त मिले, गली के सिरे पर रहने वाले बबली से मिला (बचपन में जिसे हम बोळी कहते थे और उसका असली नाम अभी तक नहीं मालूम), जीवन से मिला जिसे “च्यूँटा” कहा जाता था। वह अपने ख़ानदानी काम आढ़त करने लगा था। कुद्दू से मिला, शायद उसका नाम कुन्दन रहा होगा। वह चार्टेड एकाउंटेंट बन चुका था। अपने से पहली पीढ़ी को परिचय देते हुए बताना पड़ता था कि मैं रामनाथ जी का बेटा हूँ और जो बुज़ुर्ग अभी जीवित थे उनके आगे अपने दादा जी नाम लेना पड़ता था कि मैं लाला देसराज जी का पोता हूँ।  आज सोचता हूँ कि कितना भला समय था कि हमारी पहचान हमारे बुज़ुर्गों के नाम से होती थी। लुधियाना एक गुमनामी का शहर था। एक बात और लुधियाना में भी ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही जब तक कि बड़े दो भाई पढ़ने के लिए चंडीगढ़ नहीं चले गए। 

सभी मित्रों को एक बार पुनः स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई!

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2023/08/16 10:10 PM

बहुत प्रवाहमय, स्वाभाविक,सरल,बालपन की तरह ही निश्छल,

हेमन्त कुमार शर्मा 2023/08/16 10:10 AM

कटे-छंटे शब्दों में संक्षिप्त,सरल संस्मरण संपादकीय उत्तम बन पड़ा है। मेरी लिखी कुछ पंक्तियां हैं -जीवन की आपाधापी में भूल गया मैं कौन हूॅं। कागज हूॅं या स्याही हूॅं शब्द हूॅं या कोई विचार,मुखर हूॅं या मौन हूॅं---हेमन्त

महेश रौटेला 2023/08/15 06:56 PM

बचपन को याद करना एक सुखद एहसास होता है। सुन्दर वर्णन।

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