प्रिय मित्रो,
संभवतः इससे पहले मैंने अपने सम्पादकीय में इस विषय पर अपने विचार आपके साथ साझा नहीं किए। पिछले दिनों साहित्य कुञ्ज में एक कहानी और एक कहानी संग्रह की समीक्षा प्रकाशित हुई। कहानी को हिन्दी कहानी के रूप में प्रकाशित करते हुए भी हिचकिचाहट हो रही थी, परन्तु मैंने फिर भी प्रकाशित की क्योंकि इस रचना की साहित्यिक गुणवत्ता श्रेष्ठ थी। पुस्तक-समीक्षा पर समीक्षक को बहुत साकारात्मक टिप्पणियाँ मिलीं। परन्तु यह टिप्पणियाँ केवल उन लोगों द्वारा लिखी गईं, जो उस कथा संग्रह की कहानियों की बोली और संस्कृति को समझ सकते थे। दूसरी ओर कहानी की भाषा पर भी टिप्पणी आई। पाठक की टिप्पणी का सार था कि कहानी अच्छी लगी परन्तु पूरा आनन्द नहीं आया क्योंकि पाठक कहानी के पात्रों बोली से अनभिज्ञ थी। पाठक की आपत्ति सटीक थी, क्योंकि वह हिन्दी भाषा की वेबसाइट पर रचना पढ़ रही थी। यह उदाहरण इस सम्पादकीय का सार है। इसी पर चर्चा करूँगा।
साहित्य लेखन की सफलता के कई मापदण्ड होते हैं। मैं इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण भाव-सम्प्रेषण को मानता हूँ। दूसरे शब्दों में—लेखक और पाठक के बीच का सम्वाद। लेखक जो कह रहा है और जिस भाव से प्रेरित होकर कह रहा है वह भाव पाठक समझ रहा है। साहित्य चाहे कितना भी उच्च कोटि का हो, अगर साहित्य की भाषा पाठक के लिए बाधा बन जाए और वह मूल भाव को ग्रहण ही न कर पाए तो ऐसे साहित्य का उद्देश्य है ही क्या?
चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले भाषा और बोली के अन्तर को समझना आवश्यक है। आज के युग की तकनीकी सुविधाओं की पृष्ठभूमि में इस अन्तर के प्रभाव को समझना भी उतना ही आवश्यक है।
भाषा के माध्यम से मनुष्य बोलकर, सुनकर, पढ़कर या लिखकर अपने मन के विचारों, भावों का आदान-प्रदान कर सकता है। भाषा का प्रसार बृहत भौगोलिक क्षेत्र या सामाजिक वर्ग में होता है। दूसरी ओर बोली स्थानीय क्षेत्र और स्थानीय समाज तक सीमित हो जाती है। बोली में रचित साहित्य का प्रसार भी इसीलिए सीमित हो जाता है। अगर हम साहित्य के इतिहास में झाँकें तो कुछ काल खंडों में कुछ बोलियों का साहित्य भारत के बड़े भू-भाग तक पहुँचा। परन्तु कालान्तर में पुनः अपनी स्थानीय सीमाओं में सिमट गया।
कहा जाता है कि “बोली कुछ कोस के बाद बदल जाती है”। बोली का कोई लिखित व्याकरण नहीं होता और शब्दावली भी उपर्युक्त ‘कुछ कोस’ के बाद बदल जाती है। यह अवश्य है कि वर्तमान समय में स्थानीय संस्कृतियों को सुरक्षित रखने के लिए भारत की बोलियों को जीवित रखने के प्रयास आरम्भ हुए हैं। भोजपुरी इसकी एक बड़ी उदाहरण है। इस बोली को भाषा के रूप में परिवर्तित करने प्रयास भी हो रहे हैं।
अब चर्चा साहित्य के प्रकाशन की करते हैं। प्रकाशन भी मुख्यतः दो प्रकार के हैं। एक स्थानीय, और दूसरा राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय। बोली में रचित साहित्य स्थानीय प्रकाशन तक ही सीमित रहता है। दूसरी ओर हिन्दी भाषा में रचित साहित्य पूरी हिन्दी पट्टी में पढ़ा जाता है और लोकप्रिय होने की सम्भावना रखता है। आज के तकनीकी युग में प्रकाशन में एक और माध्यम जुड़ गया है जो दिन-प्रतिदिन अधिक से अधिकतर लोकप्रिय हो रहा है वह है—इंटरनेट। इस माध्यम में दोनों प्रकार का साहित्य लोक-प्रिय हो सकता है परन्तु लेखक को यह समझना चाहिए कि वह अपनी रचना उपयुक्त वेबसाइट पर प्रकाशन के लिए भेजे। मुझे कई बोलियों में लिखी रचनाएँ प्रकाशन के लिए मिलती हैं। मैं उनको प्रकाशित नहीं कर पाता परन्तु ऐसा करते हुए मुझे अपराध बोध होता है। सोचता हूँ कि काश मैं ऐसा कुछ कर पाता कि भारत की विभिन्न भाषाओं के अतिरिक्त इन बोलियों के लिए भी कुछ कर पाता। किन्तु मेरे संसाधन और मेरी क्षमता सीमित है।
इस चर्चा के बाद एक और समस्या की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। वह है भाषा में बोली के हस्तक्षेप की। कुछ लोग तो इसे प्रदूषण भी कह देते हैं, जिसके साथ मैं सहमत नहीं हूँ। जब कोई हिन्दी भाषा की रचना में अपनी बोली का व्याकरण का प्रयोग करता है, तो समस्या खड़ी हो जाती है। इस व्याकरण को कहाँ तक ठीक किया जाए। शब्दों के लिंग अलग हो जाते हैं, वाक्य संरचना अलग हो जाती है और कई ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिनके अर्थ शब्दकोश में ढूँढ़ने से भी नहीं मिलते।
एक लेखक महोदय जिनकी रचना मैंने सम्पादन के बाद प्रकाशित कर दी तो मेरे साथ बहसने लगे और मुझ पर रचना का सत्यानाश करने का आरोप तक लगा दिया। एक अन्य नवोदित लेखक को मैंने टिप्पणी के साथ रचना संशोधित करने के लिए लौटाई तो उसने तो यहाँ तक कह दिया—इंटरनेट पर बहुत सी अन्य वेबसाइट्स भी हैं, आप ही अकेले नहीं हैं! सोने पर सुहागा एक सप्ताह के भीतर उसने अपनी उसी रूप में प्रकाशित रचना का लिंक भी भेज दिया। क्या किया जाए; मैं तो केवल हिन्दी भाषा को अपने सत्य, शुद्ध स्वरूप में बचाए रखने का प्रयास कर रहा हूँ।
बहुत बार यह भी सुनने को मिलता है कि भाषा में बोलियों के सम्मिश्रण से भाषा समृद्ध होती है। मैं स्वीकार करता हूँ कि यह सत्य है परन्तु स्वीकार करने से पहले एक अपेक्षा है। भाषा शास्त्रियों द्वारा आगत शब्द के पूरे विश्लेषण के बाद, प्रयोग, व्याकरण, वर्तनी और अर्थ को परिभाषित किया जाए। यहाँ पर भी समस्या है कि हिन्दी भाषा का कोई ऐसा संस्थान नहीं है जो यह दायित्व निभाए और अपने निर्णय को कार्यान्वित करे। शब्दकोशों के वार्षिक संस्करणों के मुद्रण की आशा रखना ही मूर्खता होगी। परन्तु कम से कम इंटरनेट के माध्यम से ऐसे किसी शब्दकोश को प्रकाशित किया जा सकता है जिसका अपना सम्पादन मंडल हो, जो शब्दकोश का रख-रखाव करे और इसका विस्तार करे। प्रशासनिक सहायता की अपेक्षा रखे बिना स्वैच्छिक सेवी विद्वानों द्वारा ही यह संभव हो सकता है। आशा की किरण की प्रतीक्षा ही हिन्दी भाषा के प्रति निष्ठा जीवित रख रही है।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
Pradeep Shrivastav 2024/06/02 11:28 PM
साहित्य की भाषा यदि सुगम नहीं है तो ऐसा साहित्य कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो अंततः वह पाठकों से दूर किताबों में खोकर रह जाता है. आपने महत्वपूर्ण विषय उठाया है, लेखकों, भाषाविदों को ध्यान देना चाहिए.. धन्यवाद
मधु शर्मा 2024/06/01 06:43 PM
सम्पादक जी का आभार कि भाषा व बोली का अपना-अपना महत्व स्पष्ट किया। आज की तकनीकी में क्या यह सम्भव नहीं कि हिन्दी भाषा के लिए 'गूगल-ट्रैन्ज़्लेट' जैसा ही कोई साधन (tool) का अविष्कार किया जाये? मुझ जैसे पाठकों को (व अब हिन्दी भाषा से पुनः जुड़ने हेतु लेखन का प्रयास करती), जिनकी मातृभाषा हिन्दी होते हुए भी पढ़ने-लिखने व बोलने में जिन्हें यदा-कदा समस्या उत्पन्न हो ही जाती है, ऐसी परिस्थिति में 'गूगल-ट्रैन्ज़्लेट' का प्रयोग झुँझलाहट ही लाता है। कारण? कारण यही कि किसी बात को स्पष्ट प्रस्तुत करने की बजाय, अनुवाद की 'ऐसी की तैसी' करने में वह अवश्य सफल हो जाता है। अतः भाविक लेखकों से छोटा सा अनुरोध है कि हिन्दी-पत्रिका में किसी कहानी या आलेख में अन्य भाषा/बोली के शब्दों या वार्तालाप को ज्यूँ का त्यूँ प्रस्तुत करना यदि स्वाभाविक हो जाये, तो लेखक उन कठिन शब्दों का हिन्दी में अनुवाद या तो कोष्ठक (bracket) में या पादटीका (footnote) में लिख दिया करें।
सरोजिनी पाण्डेय 2024/06/01 12:10 PM
आदरणीय संपादक महोदय, नमस्कार मैं नहीं जानती कि कितने लोग मेरी इस टिप्पणी को पढ़ेंगे, परंतु मेरा यह मानना है कि हिंदी की बोलियां के शब्द यदि हिंदी की मानक व्याकरण के साथ किसी रचना में प्रयोग किए जाते हैं तो उनका अर्थ स्वत ही स्पष्ट हो जाता है और वे धीरे-धीरे हिंदी के शब्द भंडार में शामिल हो जाते हैं । हिन्दी की बोलियों का उत्थान चाहने वालों को शब्दों को संरक्षित करने का प्रयास करना चाहिए ना की बोली को भाषा के रूप में विकसित करने का। इस प्रयास से हमारी हिन्दी भाषा समृद्ध और व्यापक बनेगी ऐसा मेरा मानना है। हिंदी भाषा से जुड़े ऐसे विचारणीय और ज्वलंत विषय पर संपादकीय के लिए आप बधाई के पात्र हैं।
नरेंद्र ग्रोवर 2024/06/01 09:37 AM
सुमन जी,
Nirmal Jaswal 2024/06/01 06:42 AM
अच्छी प्रेरणा
कृपया टिप्पणी दें
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