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प्रिय मित्रो.

आज मैं अपने ही बनाए नियम का उल्लंघन कर रहा हूँ, आशा है कि आप मेरे भावों की गहराई को समझेंगे। आज मेरा सम्पादकीय मेरे राजनीतिक विचारों की अभिव्यक्ति होगी। मेरा पूरा प्रयास विचारधाराओं को संतुलित रखने का रहेगा परन्तु वास्तविकता और प्रत्यक्ष तथ्य के ऊपर न तो पर्दा डाला जा सकता, न नकारा जा सकता है और न ही बिना टिप्पणी किए रहा जा सकता है। मेरा दृष्टिकोण, पचास से अधिक वर्ष विदेश में रहने से प्रभावित हो सकता है। परन्तु पहले एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि प्रवासी सदैव अपनी मिट्टी से जुड़ा रहता है; और मैं भी जुड़ा हुआ हूँ। भारत की प्रत्येक उपलब्धि से मेरा मस्तक गर्व से ऊँचा होता है और जो आजकल भारत के सदन में जो घट रहा है उससे मेरा मस्तक लज्जा से नत भी होता है।

इस समय, जब मैं सम्पादकीय लिख रहा हूँ, भारत में पहली दिसम्बर की भोर बेला है। इसलिए मैं घटनाक्रम को समझने और उसका साक्ष्य करने में साढ़े नौ घंटे पीछे हूँ। पिछले दिनों में सदन का शीत कालीन सत्र विपक्ष के हो-हल्ला करने के कारण कई बार स्थगित हो चुक्स्स है। यह मेरे लिए अनपेक्षित तो नहीं परन्तु विस्मयकारी अवश्य है। क्या यह विपक्ष की हताशा है या विपक्ष भारत की उन्नति में, हर संभव बाधा डालना चाहता है। क्या वह जानबूझ कर प्रजातन्त्र को ध्वस्त करना चाहता और संविधान को गत चुनाव में लहराने के बाद उसकी धज्जियाँ उड़ाना चाह रहा है। इस वक्तव्य के पश्चात मैं अपना तर्क प्रस्तुत कर रहा हूँ।

भारत में चुनाव हुए और बिना हिंसा के हुए। जनमत स्पष्ट था; फिर विपक्ष लोकमत को स्वीकार क्यों नहीं कर पा रहा। विपक्ष को समझना चाहिए कि जनमत का आदर करना और उसे स्वीकार करना ही लोकतन्त्र का आधार है। अगर विपक्ष आधार पर ही चोट करेगा और स्वयं को लोकतन्त्र का ठेकेदार/अविभावक घोषित कर देगा तो हानि केवल जनता की ही होगी। प्रशासन के काम में विघ्न डाल कर विपक्ष अपने हितों पर ही चोट कर रहा है। लज्जा का विषय है कि वर्तमान चयनित सरकार के हर काम में रोड़े अटकाने के लिए विपक्ष के नेता उन विदेशी शक्तियों के साथ हाथ मिला रहे हैं जो भारत का विनाश चाहती हैं। ऐसे विपक्ष को देशद्रोही क्यों न समझा जाए? 

राहुल गांधी इस समय नेता प्रतिपक्ष हैं तो उनसे अपेक्षाएँ भी बढ़ जाती हैं। खेद का विषय है कि अपनी राजनीतिक भूमिका को सकारात्मक ढंग से निभाने में संभवतः वह मानसिक रूप से असमर्थ हैं। लगता है कि वह किसी भ्रान्ति का शिकार हैं। वह यह नहीं समझ पा रहे कि 99 सीट जीतना 99% से जीतना नहीं होता। 543 सीटों में से 99 सीट का होना, किसी स्कूल की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए अपेक्षित प्रतिशत से भी बहुत कम है। आश्चर्य है कि वह अपने आपको भारत जैसे विशाल लोकतन्त्र का प्रधान मन्त्री अलोकतान्त्रिक प्रक्रिया से स्थापित करना चाह रहे हैं।

जब से भारत आर्थिक रूप से यू.के. से आगे निकला है तब से जी-7 के देश चौकन्ने हो गए हैं। उनमें से कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत की आर्थिक प्रगति में अवरोध खड़े कर रहे हैं। देख रहा हूँ लोकसभा का सत्र आरम्भ होने से पहले गौतम अडाणी पर आघात किया जाता है, मणिपुर को फिर से सुलगा दिया जाता है। इस बार तो आश्चर्य के बात है कि राहुल गांधी ने बंग्ला देश के हिन्दुओं को भी मुद्दा बनाने का प्रयास किया है। अजीब तथ्य तो यह है कि राहुल गांधी की हाल की अमेरिका यात्रा की एक प्रेस वार्ता में एक पत्रकार को केवल इसलिए पीट दिया गया क्योंकि उसने बंग्ला देश में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार पर राहुल गांधी के विचार जानने का प्रयास किया था। और अब वही राहुल गांधी मोदी सरकार से इसी विषय पर कुछ करने का दबाव डाल रहे हैं। 

अडाणी तो राहुल गांधी के लिए ‘पंचिंग बैग’ बन चुके हैं। राहुल गांधी से किसी भी विषय पर प्रश्न पूछा जाए, वह घुमा-फिराकर, वापिस अडाणी-अडाणी करने लगते हैं। इस बार अडाणी का मुद्दा इतनी मंद बुद्धि से खड़ा किया गया है कि मुझे झल्लाहट होती है। विदेशी राजनीति में हस्तक्षेप करने का यू.एस. का यह पुराना तरीक़ा है। अब आप ही सोचिए अडाणी की कंपनी के एक अमेरीकी साझेदार ने, एक अमेरीकी अदालत में, एक मुकद्दमा दायर किया कि भारत में कुछ राज्यों में ऊर्जा उत्पादन के कॉन्ट्रेक्ट लेने के लिए अडाणी रिश्वत देने का सोच रहा था। इस उपर्युक्त वाक्य को पुनः पढ़ें। “सोच रहा था” यानी कि किसी ने रिश्वत ली नहीं है और न ही किसी ने दी है परन्तु भारत की लोकसभा का एक दिन बेकार हो गया। विपक्ष के लिए यह आधारहीन आरोप(?) ही ब्रह्मवाक्य बन गया। क्या यू.एस. बिज़नेस रिश्वत या राजनैतिक दबाव या धमकियों का प्रयोग नियमित रूप से नहीं करता? मैं इसके कई उदाहरण दे सकता हूँ। सबसे हास्यस्पद उदाहरण 1989 में चिली के अंगूरों में ‘सायनाइड’ का क़िस्सा है। चिली की सरकार को अस्थिर करने के लिए, कहा जाता है कि किसी ने यू.एस. के दूतावास को फोन किया कि चिली से आयातित अंगूरों में सायनाइड है। यू.एस. की एफ़.डी.ए. एजेंसी ने करोड़ों अंगूरों में से केवल दो अंगूर ऐसे ढूँढ़ निकाले जिनमें सायनाइड था; बाक़ी सब ठीक थे। चिली का बेचारा राष्ट्रपति टीवी पर अंगूर खा-खाकर दिखा रहा था कि अंगूरों में विष नहीं है। परन्तु यू.एस.ए.  का क्या, उसने तो छोटे देश की अर्थ व्यवस्था अस्त-व्यस्त कर दी। उसका उद्देश्य पूरा हो चुका था। ऐसे ही प्रयास, निरन्तर रूप से अमेरिका भारत पर कर रहा है। 

अब आप कहेंगे कि अडाणी ही क्यों? क्योंकि अडाणी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विदेशी कंम्पनियों को पछाड़ रहा है। राहुल बार-बार कहते हैं कि अडाणी की मोदी से यारी है। यह भी हास्यस्पद आरोप है। भैया, ध्यान से सुनो—प्रत्येक विकसित देश का व्यवसायिक जगत और सरकार एक दूसरे के पूरक बन कर ही देश की उन्नति करते हैं। याद करें जब टाटा समूह ने बोइंग से जहाज़ ख़रीदे थे तब मोदी को धन्यवाद बाइडन ने दिया था। ख़रीद टाटा रहा था और बेच बोइंग रहा था और धन्यवाद लेना और देना सरकारें कर रही थीं। अब राहुल अमेरिका पर भी आरोप लगाएँ, मोदी पर तो वह लगाते ही रहते हैं। पर करें कैसें? उसी की गोदी में बैठ कर तो वह खेलते हैं!

मैं जानता हूँ, कि साहित्य कुञ्ज के बहुत से लेखक और पाठक कांग्रेस के समर्थक हैं। मैं उन्हें सम्बोधित करके कह रहा हूँ कि मैं आपको कांग्रेस का समर्थन करने से नहीं रोक रहा। बस यह कह रहा हूँ कि दल की अपेक्षा, देश के हितों के बारे में सोचें। विश्व के सभी विकसित देशों में व्यवसायिकों का हर संभव ढंग से समर्थन और सहायता, वहाँ की सरकारें करती हैं। मुझे बहुत से उदाहरण याद आ रहे हैं परन्तु सम्पादकीय को सीमित रखना चाह रहा हूँ। प्रधान मंत्री मोदी के प्रथम कार्यकाल में उनकी विदेश यात्राओं की खिल्ली उड़ाई जाती थी। आज उन्हीं यात्राओं के परिणामों का लाभ पूरा भारत उठा रहा है। आज भारत विश्व की चौथी और तीसरी अर्थ व्यवस्था बनने की कागार पर खड़ा  है। भारत एक सैन्य शक्ति बन कर उभरा है। खाद्यान्न निर्यातक बन चुका है। आईटी, अंतरिक्ष और न जाने किन-किन क्षेत्रों की प्रगति को उद्धृत किया जाए, सूची बहुत लम्बी है। भारत की उपलब्धियों पर गर्व करने की बजाय, केवल इस पर केन्द्रित रहना जो अभी नहीं हो सका, समाज और देश—दोनों के लिए बुरा है। विदेशी ताक़तों की कठपुतली बनना और जनता को मूर्ख बनाना भी घातक है। आप कांग्रेस का समर्थन करें परन्तु कृपया इन व्यर्थ के मुद्दों का समर्थन न करें। बल्कि एक सशक्त लोकतन्त्र के सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाएँ। यह भूमिका पार्लियामेंट में हो-हल्ला, उत्पात मचाकर नहीं निभाई जाती। इसके लिए जनता के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए। उनके स्वर को सदन तक पहुँचाना चाहिए। जो विधेयक सरकार लेकर आती है, उस पर विचार करें और सकारात्मक सुझाव दें। जनता की बुद्धिमत्ता का आदर करें। मत भूलें कि जनता आपकी हर हरकत पर नज़र रखती है और आपका संपूर्ण क्रिया-कलाप समझती है। अगर आप लोकसभा में अड़चनें खड़ी करते रहेंगे तो आप स्वयं, जनता का विश्वास खो देंगे। इस समय विपक्ष जनता की पैरवी कम और विदेशी शक्तियों की पैरवी अधिक कर रहा है।

कांग्रेस के समर्थकों से अंतिम अपील है कि कृपया अपने नेतृत्व को दिशा प्रदान करें। तृण-मूल को इन नेताओं  की बातों के पीछे की सच्चाई को समझना चाहिए और अपनी आवाज़ उन तक पहुँचानी चाहिए। अगर आप बिना सोचे समझे राहुल गांधी जैसे नेताओं के पीछे चलते रहेंगे और उन से नेतृत्व नहीं छीनेंगे तो शीघ्र ही कांग्रेस भारत के राजनैतिक पटल से ग़ायब होती हुई दिखाई देगी।

—सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

शैलजा सक्सेना 2024/12/05 09:13 PM

राजनीति का समाज से और समाज का सहित्य से संबंध होता है अत: राजनीति प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारे जीवन का हिस्सा हैं। जब राजनैतिक उद्दंडता इतनी बढ़ जाये कि जीवन के हर स्तर को बाधित करने लगे तो उस पर साफ़ और प्रत्यक्ष रूप से लिखना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो जाता है। आपको बधाई और धन्यवाद। ये चर्चायें आवश्यक हैं, कृपया आगे भी ऐसे लिखें। ये बातें समझना और समझाना , दोनों अनिवार्य हैं।

सरोजिनी पाण्डेय 2024/12/02 09:00 AM

आदरणीय संपादक महोदय, इस बार का संपादकीय तो सचमुच अद्भुत है, लीक से हटकर। आपके संपादकीय की पहली पंक्ति पढ़कर ही मुझे हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथ की याद आ गई जिसमें भगवान स्वयं कहते हैं कि " "काल" को बनाकर मैं स्वयं "काल" के अधीन हो गया हूं, अब मैं यदि चाहूं भी तो वह नियम नहीं बदल सकता" कुछ वैसे ही विवशता इस संपादकीय में झलकी है। जहां तक भारत के राजनीतिक परिदृश्य की बात है वहां सचमुच विपक्ष इस समय अत्यंत शोचनीय और दयनीय मानसिक स्थिति का प्रदर्शन कर रहा है। किसी नए सुधार, परिष्कार अथवा नवीनता की आशा करना व्यर्थ है केवल जो काम हो रहे हैं उनकी निंदा करना और उनके होने को रोकना ही मात्रा विपक्ष का उद्देश्य रह गया है। बहुमत की अवहेलना ही संविधान का पहला अतिक्रमण है। कोई तर्क नहीं सुनता! संसद न चलने देने का अपराध तो अक्षम्य ही है। क्रोंच के हनन और क्रौंची की पीड़ा के कारण रामायण उपजी और आपके हृदय की पीड़ा से नियमों को तोड़ने की विवशता , अनिवार्यता!!और एक सुंदर संपादकीय उत्पन्न हुआ। तर्कसंगत , सुविचारित और सुस्पष्ट संपादकीय के लिए बधाइयां एवं धन्यवाद

विजय विक्रान्त 2024/12/02 04:22 AM

यह मानी हुई बात है कि इतिहास ने आज तक किसी को नहीं बख्शा। समय के साथ साथ दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। इसकी ज़िन्दा मिसाल है गांधी और नेहरू। १९४७ में जब transfer of power हुआ था तो इन दोनों का बहुत बोलबाला था। आज वो स्थिति नहीं है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं है तो और क्या है कि नेहरू और उसके बाद उसकी पीढ़ी, इन्द्रा राजीव और शहंशाह राहुल ने, अपनी कुर्सी कायम रखने के लिये, भारत देश और उसकी जन्ता के साथ क्या क्या ग़लत नहीं किया। जैसे, भारतीय कोड बिल न होकर हिन्दु कोड बिल, एमर्जैंसी, संविधान से छेड़छाड़, कशमीर से हिन्दुओं का पलायन और अब बेताज बादशाह राहुल के सिर पर प्रधान मन्त्री का सेहरा बांधने की धांधले बाज़ी। चाहे देश को चलाने की क्षमता हो या न हो, राहुल बाबा का मानना है कि पी.एम. का ताज सिर पर होना उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। इसके लिए यदि विदेशी दुश्मनों की सहायता भी लेनी पड़े तो ठीक है २०१४ में जब BJP की सरकार आई थी तो लोगौं का कहना था कि असली आज़ादी तो हमें अब मिली है। इस सोच में कितनी सच्चाई थी उसका इस का परिणाम मोदी सरकार का तीन बार बहुमत से जीतना। यह सच्चाई गान्धी परिवार को हज़म नहीं हो रही है। इनका हाल तो “खिसियानी बिल्ली ख़म्बा नोचे” जैसा हो गया है। जब बस नीं चलता तो सदन में हल्ला करना और उसकी कार्वाई में बिना वजह बाधा डालना इनका तकिया कलाम बन गया है और इस ख़ान्दान का असली चरित्र दर्शाता है। इनकी और इनके चमचों की इन बचकाना और बेतुकी सियासत से देश का कितना नुकसान हो रहा है, इसका क्दया इन्हें अन्दाज़ा भी कै क्या? सत्तर साल बाद देश को एक मसीहा मिला है। अगर उसके साथ मिलकर काम करने में तुम्हारी नाक नीची होती है तो उसको तो कुछ करने दो।

मधु शर्मा 2024/12/01 09:43 PM

सुमन जी के इस सम्पादकीय द्वारा ढेरों तथ्यों को सामने लाकर मुझ अज्ञानी की आँखें खोल दी हैं। राजनीति के संदर्भ में मैं सम्भवतः दो-एक बार पहले भी उल्लेख कर चुकी हूँ कि राजनैतिक सम्बंधित कई एक गहराइयों को समझना मेरे वश की बात नहीं। परन्तु इतना अवश्य समझती हूँ कि हर देश में विपक्ष पार्टी का होना कितना आवश्यक है। नहीं तो देश की सरकार अपनी मनमानी करते-करते तानाशाही का रूप ले सकती है। लेकिन निर्भर यह करता है कि वह विपक्ष पार्टी के नेता अपना उल्लू सीधा करने हेतु देश की जनता को पागल बना रहे हैं या फिर उनके कल्याण हेतु स्वयं को भूलकर देश की कुछ कल्याणकारी उन्नति की ओर दिन-रात अग्रसर होते दिखाई दे रहे हैं। अब भारतीय जनता पड़ोसी देश पाकिस्तान को ही देख ले। वहाँ के जीडीपी (पीपीपी)) के आँकड़ों को लेकर और भारत को चौथे-पाँचवें नम्बर पर देख कर विचलित हुए विदेशों में रहने वाले उनके अपने कुछ नागरिक सुझाव दे रहे हैं कि अब तो कोई विदेशी ताकत ही यदि पाकिस्तान की बागडोर कुछ समय के लिए अपने हाथों ले सके तभी उनके देश का कल्याण हो सकेगा। परन्तु वहाँ के अधिकतर नेता इस के बिल्कुल विरुद्ध हैं। मेरा कहने का अभिप्राय है कि पाकिस्तान की परिस्थितियों के विपरीत भारत की विपक्ष पार्टी तो चाँद व मंगल पर पहुँचने वाले अपने महान देश को पाताल में धँसने के लिए व्याकुल हो रही है, यह तो एक बच्चा भी बता देगा।

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