प्रिय मित्रो,
आप सभी को हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाई!
प्रायः इस दिन हम हिन्दी के प्रति अपने प्रेम को प्रदर्शित करते हुए, अँग्रेज़ी को कोसते हुए दिखाई देते हैं। क्या यह उचित है या हम ऐसा अपनी पराधीनता के प्रतीक को अस्वीकार करने के लिए करते हैं? क्या हमें भय है कि अँग्रेज़ी की बाढ़ में हिन्दी भाषा विलुप्त हो रही है? अगर ऐसा है तो क्यों ऐसा हो रहा है? क्या वास्तव में ही ऐसा हो रहा है?
यह भी सुनने में आता है कि “जो भाषा रोज़गार देती है वही भाषा ही जीवित रहती है”। अगर यह सच है तो, अभी भी भारत की भाषा फ़ारसी होनी चाहिए, क्योंकि एक लम्बे काल तक कम से कम उत्तरी भारत की राजभाषा फ़ारसी थी। तो क्या वह भाषा अँग्रेज़ के आने से भारत में विलुप्त हुई या मुस्लिम राज के अस्त होने से हुई?
इस विषय पर बात करते हुए हमें एक तथ्य पश्चिमी देशों की ओर देखते हुए समझ लेना चाहिए। यूरोप में दर्जनों छोटे बड़े देश हैं। यहाँ लगभग प्रत्येक देश की अलग भाषा है, या एक से अधिक भाषा है। स्विट्ज़रलैंड से बढ़ कर कोई दूसरी उदाहरण नहीं हो सकती। इस छोटे से देश में तीन आधिकारिक भाषाएँ है—फ़्रैंच, जर्मन और इटालियन। इसी तरह कैनेडा में भी दो भाषाएँ हैं—इंग्लिश और फ़्रैंच। यू.एस.ए. में अभी तो अँग्रेज़ी ही आधिकारिक भाषा है पर क्या भविष्य में ऐसा ही रहेगा; यह प्रश्न भी वहाँ उठना शुरू हो गया है। इसका कारण है। 2005 की जनगणना के अनुसार यूएसए में हिस्पैनिक (स्पैनिश भाषी) 14% थे और अनुमान है कि 2050 तक यह जनजातीय समूह का आँकड़ा 29% हो जाएगा। एक सदी के बाद क्या होगा, हम अनुमान लगा सकते हैं कि संभवतः यह जनजातीय समूह अल्पसंख्यक से बढ़कर बहुसंख्यक हो जाएगा। ऐसे में क्या हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि उस समय यूएसए की राजभाषा क्या होगी? इस समय, हालाँकि यूएसए में आधिकारिक रूप से स्पैनिश को वहाँ भाषा के रूप में कोई स्वीकृति नहीं मिली है परन्तु अभी भी वहाँ कई जगह पर अँग्रेज़ी और स्पैनिश में उद्घोषणा की जाती है, जैसे कि एयरपोर्ट या विमान के अन्दर।
कहना यह चाहता हूँ कि वह भाषा ही जीवित रहती है जिसे जनता स्वीकार करती है। भाषा वही जीवित रहती है जो घरों में बोली जाती है। वही आपकी भाषा है जिसमें आप सोचते हैं और जो आप के सपनों की भाषा है। कुछ महानगरों में रहने वाले या समाज का आभिजात्य वर्ग तय नहीं कर सकता कि किसी भी देश के भविष्य की भाषा क्या होगी? बहुत पहले रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय का उपन्यास “वार एंड पीस” पढ़ते हुए मैं आश्चर्यचकित हुआ था कि उस समय रूस का आभिजात्य वर्ग फ़्रैंच में बातचीत करने, पढ़ने-लिखने को वीरयता देता था। रूसी भाषा को गँवारों और अनपढ़ों की भाषा समझा जाता था। यह विडम्बना है महान लेखक लियो टॉलस्टॉय रूसी भाषा में लिख रहे थे न कि फ़्रैंच में। क्या फ़्रैंच भाषा रूस में जीवित रह पाई?
अँग्रेज़ी भाषा की लहर के चलते हमारी हिन्दी के प्रति चिन्ता, ऊपर दी गई उदाहरण से अलग नहीं है। भारत में कुछ बड़े नगरों को छोड़ दें, तो आप पाएँगे कि हिन्दी अभी भी फल-फूल रही है और ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती साक्षरता के साथ विस्तृत हो रही है। अब हमें चिंता इस बात की होनी चाहिए कि भारत में जिन लोगों ने हिन्दी में सोचना और सपने देखना बन्द कर दिया है उन्हें वापिस अपने आलिंगन में कैसे समेटें? उनकी “घर-वापसी” कैसे हो?
कई बार कह चुका हूँ कि मनोरंजन की भाषा ही लोकप्रिय भाषा होती है। हम लोग लाख विदेशी भाषाओं और संस्कृतियों के दीवाने हो जाएँ, पर एकान्त में हम रहते तो वही मौलिक भारतीय और मातृभाषी ही हैं—यह मातृभाषा कोई भी भाषा हो सकती है। पंजाबी में एक बहुत ही प्यारा शब्द है—माँ-बोली। इसमें बहुत कुछ निहित है। जब तक मानव माँ से प्रेम करता है तब तक वह उसकी “बोली” से भी प्रेम करता है। अर्थात् हम यह युद्ध पहले से ही आधा जीते हुए हैं। शेष युद्ध तो स्तरीय भाषा और उसमें रचित साहित्य को प्रस्तुत करने का है। हिन्दी भाषी प्रान्तों के लोग चाहे जितने भी अँग्रेज़ी के भक्त हो जाएँ, क्या वह कोई भी भारतीय त्योहार अँग्रेज़ी में मना सकते हैं? क्या अपने बचपन की सहेजी स्मृतियों को (जब अभी अँग्रेज़ी आती नहीं थी) अन्य भाषा में व्यक्त कर सकते हैं? व्यक्त कैसे कर सकते हैं जबकि विदेशी भाषाओं में वह शब्द हैं ही नहीं। वो मुहावरे और लकोक्तियाँ हैं ही नहीं।
अभी तक जो इस सम्पादकीय में लिखा है वह पूरी तरह से पिछले अंक के सम्पादकीय की ही अगली कड़ी है।
जैसा कि मैंने पिछले सम्पादकीय लिखा था कि किसी भी साहित्य को समझने के लिए मूल भाषा के मुहावरे और संस्कृति को समझना अतिआवश्यक है। इसीलिए भारत में रचित अँग्रेज़ी साहित्य विदेशों में लोकप्रिय नहीं हो पाता। कई बार तो देखा गया है कि वह भारतीय संस्कृति में रची-बसी संवेदनाओं को प्रकट ही नहीं कर पाता। करे भी तो कैसे? क्योंकि इन सम्वेदनाओं को प्रकट करने के लिए न तो अन्य भाषाओं में वह शब्द हैं और अगर हैं भी तो उनके अर्थों को अलग भाव में समझा जाता है। उदाहरण दे रहा हूँ, उल्लू को हिन्दी भाषा में मूर्खता के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। जबकि अँग्रेज़ी साहित्य और संस्कृति में उल्लू बुद्धिमान जीव है। यहाँ तक कि कई स्कूलों के चिह्नों में उल्लू को पुस्तक के साथ दर्शाया जाता है। एक और उदाहरण देता हूँ। हिन्दी का बहुत ही प्यारा शब्द है जो कोमल भाव से जुड़ा हुआ है—लाज/लज्जा। इसका अँग्रेज़ी शब्द है “शाई” या “डि’म्यूर”(जोकि मूलतः अँग्रेज़ी शब्द नहीं है)। अगर हम इन्हें विशेषण समझें तो पश्चिमी संस्कृति में संदर्भ बदल जाते हैं। शाई होना व्यक्तित्व में कमी मानी जाती है। “डि’म्यूर” और उससे भी अधिक नकारात्मक हो जाता है। यानी विदेशी शब्द भारतीय संस्कृति को सही व्यक्त नहीं पाते।
पिछले सम्पादकीय में मैंने यही कहा था कि अनुवाद के लिए भाषा के साथ-साथ स्थानीय संस्कृति की समझ होना भी महत्वपूर्ण है।
सितम्बर के प्रथम अंक के सम्पादकीय में मेरा कहना था कि विदेशों में हिन्दी का साहित्य पहुँचाने के लिए अँग्रेज़ी में अनुवाद आवश्यक है। अब मैं अपने कथन में एक बात और जोड़ना चाहूँगा कि भारत के स्वदेशी अँग्रेज़ी साहित्य के प्रेमियों को हिन्दी भाषा की ओर वापिस लौटाने के लिए अच्छे हिन्दी साहित्य का अच्छा अनुवाद भी प्रकाशित करना आवश्यक है। हो सकता है कि इनमें कुछ लोग इस अनूदित साहित्य की मूल रचना को पढ़ना चाहें। इनमें से कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो हिन्दी पढ़ना नहीं जानते पर इनकी संस्कृति तो वही है जो हिन्दी भाषियों की। इसलिए अनुवाद इन्हें भारतीय संस्कृति से जोड़े रखने का साधन भी हो सकता है।
अगले अंक के सम्पादकीय में “हिन्दी और मनोरंजन” की बात करेंगे।
कृपया इस शृंखला के सम्पादकीयों को पढ़ें और मित्रों को पढ़ने के लिए कहें।
मेरे साथ असहमत होते हुए भी कृपया प्रतिक्रिया अवश्य दें। आप सभी का स्वागत है।
— क्रमशः
सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
महेश रौतेला 2022/09/15 09:40 AM
सही कहा आपने। लेकिन अंग्रेजी को अभी कोसता तो कोई नहीं । हाँ हिन्दी की संवैधानिक स्थिति को लागू करने की बात अवश्य होती है। हिन्दी अपनी आन्तरिक शक्ति सामर्थ्य से फैल रही है। कल "आजतक चैनल" बता रहा था कि "गूगल पर हिन्दी के दस लाख पृष्ठ हो चुके हैं। और दुनिया में यह तीसरे स्थान पर बोली जाने वाली भाषा है। इंटरनेट पर इसकी बढ़त/वृद्धि 84% है अभी। "।
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
2024
2023
- टीवी सीरियलों में गाली-गलौज सामान्य क्यों?
- समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन?
- क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?
- क्या आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय है?
- दर्पण में मेरा अपना चेहरा
- मुर्गी पहले कि अंडा
- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित…
- जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ
- संभावना में ही भविष्य निहित है
- ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही
- प्रवासी लेखक और असमंजस के बादल
- वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
- कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती
- मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है
- मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी सिनेमा
- पेड़ की मृत्यु का तर्पण
- कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
- कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित ‘साहित्यिक’ मजमेबाज़ी
- गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ?
- मेरे पाँच पड़ोसी
- हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ
- गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता
- आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने…
- अरुण बर्मन नहीं रहे
2022
- अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही…
- आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ हैं!
- हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट…
- देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता
- भारत में प्रकाशन अभी पाषाण युग में
- बहस: एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म
- हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद का महत्त्व
- आपके सपनों की भाषा ही जीवित रहती है
- पेड़ कटने का संताप
- सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान
- अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
- बात शायद दृष्टिकोण की है
- साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!
- राजनीति और साहित्य
- कितने समान हैं हम!
- ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना के घोडे़
- भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी . . .!
- कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन
- बसंत अब लौट भी आओ
- अजीब था आज का दिन!
- कैनेडा में सर्दी की एक सुबह
- इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री
- नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प
- क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?
2021
- आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण रचनाओं की
- नींव नहीं बदली जाती
- सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी साहित्य में महत्व
- क्या इसकी आवश्यकता है?
- धैर्य की कसौटी
- दशहरे और दीवाली की यादें
- हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ
- विमर्शों की उलझी राहें
- रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट या सोशल मीडिया के मंच?
- सामान्य के बदलते स्वरूप
- लेखक की स्वतन्त्रता
- साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के साहित्य जगत में एक ख़ालीपन
- मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है
- शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा
- साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ
- कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य
- समीक्षक और सम्पादक
- आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास की और संगठित होने…
- अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही…
- राजनीति और साहित्य का दायित्व
- फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य की पुस्तकें क्यों…
- स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी
- सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’ फ़िल्म
2020
- यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता
- क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल का सूर्य
- शोषित कौन और शोषक कौन?
- पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण
- साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप समूह आरम्भ
- साहित्य का यक्ष प्रश्न – आदर्श का आदर्श क्या है?
- साहित्य का राजनैतिक दायित्व
- केवल अच्छा विचार और अच्छी अभिव्यक्ति पर्याप्त नहीं
- यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी!
- हिन्दी साहित्य को भविष्य में ले जाने वाले सक्षम कंधे
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 2
- पहले मुर्गी या अण्डा?
- कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 1
- लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी और संरक्षक
- यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने की भूख का सकारात्मक पक्ष
- एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा
- अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग
- आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं
- हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक
- लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत लौटना
- वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम और गुरु अर्जुन देव जी…
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- काठ की हाँड़ी केवल एक बार ही चढ़ती है
2019
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- कितना मीठा है यह अहसास
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
2018
2017
2016
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- लघुकथा की त्रासदी
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- मेरी प्राथमिकतायें
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- भाषा में शिष्टता
- साहित्य का व्यवसाय
- उलझे से विचार
Sarojini Pandey 2022/09/15 04:51 PM
आदरणीय संपादक जी बहुत संतुलित और भविष्य के प्रति आशा से भरपूर संपादकीय पढ़कर चित्त प्रसन्न हो गया। आपने मातृभाषा को 'सपनों की भाषा' कहा है ,अभी एक-दो दिन से मैं निरंतर यह सोच रही हूं कि हमारे मन के भाव क्या भाषा में आते हैं ?परंतु मुझे लगता है कि भावों की कोई भाषा नहीं होती@ परंतु उन्हें प्रकट करने के लिए हम भाषा का प्रयोग करते हैं और इसीलिए शायद भाव जितनी गहराई और जितनी सूक्ष्मता से अपनी मातृभाषा में प्रकट हो सकते हैं और किसी भाषा में नहीं क्योंकि मातृभाषा तो हम अपनी मां के दूध के साथ ही पीते हैं ना!! भविष्य में आप की आशा फलीभूत हो, हमारी हिंदी फले -फूले और विश्व की जानी-मानी भाषाओं में एक हो ईश्वर से यही प्रार्थना है धन्यवाद