प्रिय मित्रो,
सबसे पहले मैं आप सभी से क्षमा याचना करता हूँ क्योंकि अंक प्रकाशन में बहुत देर हो गई। इसके कई कारण हैं—ग्रीष्म ऋतु से लेकर मानसिक थकावट तक। कई बार सोचता था कि प्रायः लोग कहते हैं—आई नीड ए वेकेशन (मुझे अवकाश की आवश्यकता है)—ऐसा भी क्या और क्यों?
कैनेडा में जिस अंचल में मैं रहता हूँ वहाँ पर सितम्बर से लेकर मई तक ऐसा मौसम रहता है कि आपको सुबह और शाम के समय गर्म कपड़े पहनने ही पड़ते हैं। नवम्बर से लेकर मार्च के आरम्भ तक तापमान दस डिग्री से कम तो रहता ही है। कैलेंडर चाहे कुछ भी कहे, वास्तविक ग्रीष्म ऋतु केवल दो महीने यानी जुलाई और अगस्त ही रहती है। पिछले दो दशकों से यह गर्मी भी बहुत बढ़ गई है। ग्लोबल वार्मिंग एक वास्तविकता है। कल मिसिसागा (ओंटेरियो) का तापमान छत्तीस डिग्री था और अगर इसमें ह्युमिड इंडैक्स (वायु में नमी का सूचकांक) का प्रभाव जोड़ लें तो बयालिस डिग्री का तापमान झेलना पड़ा। यह मैं शिकायत नहीं कर रहा क्योंकि मेरे जैसे बाग़वानी के प्रेमियों के लिए यह वरदान की भाँति है। हम लोग उन पौधों को अब उगा रहे हैं जो पहले सम्भव नहीं थे। दूसरी ओर जिन फूलों-सब्ज़ियों के हम परिचित हो चुके थे उनको जीवित रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। फिर भी दिन में सुबह सात से आठ तक पौधों को पानी देने में बिता देना अच्छा लगता है। सुबह के नाश्ते के बाद वैसे ही एक एक पौधे को देखना-भालना मुझे उतना ही आनन्द देता जितना कि एक अच्छी कविता पढ़ना। ऐसे में अपने सभी दायित्व भूल जाता हूँ। पत्नी पुकारती है तो मैं उसे बाहर आमन्त्रित करता हूँ। इन दिनों मेरा यह स्वार्थी हर्ष दोगुना हो गया है क्योंकि वह भी मेरा साथ देने लगी है। यह संक्रमण भला लगता है। हाँ यह सही है कि बाद में दायित्व-बोध के चलते, लगता है समय गँवा दिया परन्तु . . . पौधों का हाल-चाल पूछने के भी तो यही दो-तीन महीने ही मिलते हैं।
इस ग्रीष्म ऋतु के उत्सव (ग्रीष्म ऋतु यहाँ किसी उत्सव से कम नहीं) को कनेडियन लोगों की तरह हम आप्रवासी भी मनाने लगे हैं। वैसे उत्सव मनाना मानव की मौलिक प्रवृत्ति है। आदिकाल से वर्तमान तक प्रत्येक सभ्यता और संस्कृति में जीवित व्यक्ति उत्सव मनाने के बहाने खोजता रहा है और खोज रहा है। न केवल भारतीय मूल के आप्रवासी में बल्कि विश्व के अन्य भागों से आए प्रवासी भी अपने-अपने सांस्कृतिक उत्सवों को मनाने के साथ-साथ पश्चिमी जगत के उत्सवों में भी भाग लेने लगे हैं। यह अलग बात है कि कुछ समुदाय अपने धार्मिक वर्जनाओं के चलते आपत्ति उठाते हैं, परन्तु उनकी भी अगली पीड़ी लुक-छिप कर पश्चिमी उत्सवों का धार्मिक न सही पर आनन्ददायक अंश तो अपना ही रही है।
मैं जब पश्चिमी देशों की बात करता हूँ तो वह उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में कहता हूँ। यूरोप को केवल पुस्तकों के माध्यम से जानता हूँ। पर्यटन किसी सभ्यता और संस्कृति को जानने का स्रोत है, ऐसा मैं नहीं मानता। जब तक आप किसी समाज में रहते नहीं हैं या उसमें अपना जीवन जीते नहीं हैं, उसकी समझ केवल सतही समझ होती है। पर्यटन किसी शोरूम के शोकेस में झाँकने जैसा ही है—इससे अधिक और कुछ नहीं। आगे मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, उसका आधार मेरा यही विश्वास है।
कैनेडा में रहते हुए मेरे कई मित्र बने जो एशियन मूल के थे, पूर्वी-यूरोप के देशों से थे, अरब मूल के थे। कुछ लोग ग्रीस, इटली, स्पेन आदि देशों से आए थे। उन सभी की एक साझी अवधारणा थी—स्वदेश और स्व-संस्कृति पर गर्व। सभी नए आप्रवासी अपनी-अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए पश्चिमी देशों की संस्कृति की निंदा करने से नहीं चूकते हैं। परन्तु यहाँ पर कुछ वर्ष रहने के उपरांत उन्हें पश्चिमी संस्कृति की अच्छाइयाँ भी दिखाई देने लगती हैं, और फिर उन अच्छाइयों को आप्रवासी अपना भी लेते हैं—यानी सामाजिक रीति-रिवाज़ को।
मैं पहले ग्रीष्म ऋतु को उत्सव की संज्ञा दे चुका हूँ। इसी उत्सव की एक रीति है—फ़ैमिली रीयूनियन (पारिवारिक पुनर्मिलन)। पश्चिमी देशों में वैसे तो क्रिसमस और थैंक्स गिविंग के त्योहारों पर पूरा परिवार अपने माता-पिता के घर लौटता है और चर्च जाने और एक दो दिन रुकने की रीति भी है। परन्तु इसके अतिरिक्त गर्मियों में “फ़ैमिली रीयूनियन” की रीति भी है। यह सामाजिक रीति है इसका आधार धर्म या आस्था नहीं है। पूरा संयुक्त परिवार के सभी सदस्य किसी एक के घर में प्रायः दोपहर के भोज के लिए आते हैं। बाहर लॉन में जिनको जहाँ जगह मिलती है, बैठते हैं, शीतल पेय का आनन्द उठाते हैं। बार्बेक्यु पर हॉट डॉग, बर्गर इत्यादि बनाए जाते हैं। तरह-तरह के सलाद भी सगे-संबंधी लेकर आते हैं। बच्चे खुले में खेलते हैं और भाई-बांधव अपनी-अपनी बात कहते-सुनते हैं और शाम होते-होते लौट जाते हैं। ऐसा ही मैं पिछले पैंतीस वर्ष से करता आ रहा हूँ। पिछले दो सप्ताह में मेरी पत्नी की सभी बहनें और भाई ऐसे पारिवारिक पुनर्मिलन के लिए आए हुए थे। क्योंकि सभी बहनें यहाँ आई हुईं थी, तो अपनी मासियों और मामा-मामी से मिलने भाँजे-भाँजियाँ सपरिवार आ गईं। शादी-ब्याह जैसा माहौल बना रहा। ऐसा हर वर्ष होता है। यह आनन्द की एक लहर थी। अब दूसरी की तैयारी चल रही है। हर वर्ष मेरा बड़ा बेटा यू.एस. से अगस्त के अंतिम सप्ताह में सपरिवार छुट्टियों में आता है। वह आने से पहले अपनी पीढ़ी के भाइयों-बहनों (कज़िन शब्द कहना मुझे सही नहीं लगता) के साथ पुनर्मिलन का कार्यक्रम बना लेता है। इसी बहाने हम सभी भाई-भाभियाँ भी इसमें जुड़ जाते हैं। यह उत्सव मेरे घर पिछले दो वर्ष पहले तक पैंतीस वर्षों से चलता रहा था। अब इसकी बागडोर मेरी भतीजियों संभाल ली है, क्योंकि अब चाचा-चाची बूढ़े हो गए हैं। भारत में मैंने ऐसा होते नहीं देखा। पारिवारिक पुनर्मिलन किसी शादी-ब्याह के अवसर पर होता है, और इसमें भी फूफा के फैलने का रिवाज़ भी होता है। कितना अच्छा हो कि भारत में अपनी संस्कृति को संवर्धित करते हुए “पारिवारिक पुनर्मिलन” को अपना लिया जाए। यह सच्चाई है कि सामाजिक और आर्थिक दबाव के कारण भारतीय परिवार छिन्न-भिन्न हो रहा है, बिखर रहा है, ऐसे में परिवार के मिलन को एक उत्सव की तरह मनाना कितना भला लगेगा—चाहे यह पश्चिमी संस्कृति से ही आए—आए तो सही।
यह कुछ कारण थे अंक प्रकाशन में देरी के।
मैं मानसिक थकावट, अवसाद और कुत्ते द्वारा काटे जाने की बात नहीं करूँगा।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2025/07/27 06:18 PM
विदेश में रहने वालों के जीवन के सत्य को दर्शाता अनूठा सम्पादकीय। मानसिक थकावट या अवसाद से सम्बंधित मेरी छोटी सी बुद्धि यही कहती है कि पेट की भूख मिटाने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, और आत्मा व मन की भूख मिटाने के लिए साहित्य-प्रेमियों को साहित्य की सहायता लेनी पड़ती है...परन्तु जिस प्रकार यदा-कदा व्रत रखना हमारी पाचन-क्रिया को सुचारू ढंग से नियंत्रित किए रखता है, उसी प्रकार सम्पादक महोदय को भी दिन-रात, बारह महीनों साहित्य कुञ्ज से जुड़े रहने की बजाय कभी-कभार अवकाश लेने हेतु कुछ तो गुंजाइश छोड़ने की आवश्यकता है।यद्यपि इस पाक्षिक पत्रिका का मासिक होना तो संभव नहीं परन्तु मेरा सुझाव यही होगा कि सुमन जी हर तीन माह बाद का एक अंक मासिक ही निकालें। शेष तो आप पाठकों पर, और उससे भी ज़्यादा सम्पादक जी पर, निर्भर करता है। साधुवाद।
Usha Bansal 2025/07/25 09:37 PM
सुमन जी बिल्कुल ताजे विषय पर सम्पादकीय पा कर मन बगीचे सा खिल गया। पहले मैं यह सोचती थी कि घूमने से अपने देश व विदेश की सभ्यता संस्कृति की जानकारी मिलती है। फिर मुझे लगने लगा वह एक सिनेमा के ट्रेलर सी ही रहती है। आप के इस अहसास को मैंने भी अनुभव किया है। ‘‘मैं जब पश्चिमी देशों की बात करता हूँ तो वह उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में कहता हूँ। यूरोप को केवल पुस्तकों के माध्यम से जानता हूँ। पर्यटन किसी सभ्यता और संस्कृति को जानने का स्रोत है, ऐसा मैं नहीं मानता। जब तक आप किसी समाज में रहते नहीं हैं या उसमें अपना जीवन जीते नहीं हैं, उसकी समझ केवल सतही समझ होती है। पर्यटन किसी शोरूम के शोकेस में झाँकने जैसा ही है—इससे अधिक और कुछ नहीं। आगे मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, उसका आधार मेरा यही विश्वास है। आपने मेरे विचारों को शब्द बद्ध कर दिया। ‘‘ भारत में ये पारिवारिक मिलन का समय गर्मी व सर्दी की छुट्टियां होती हैं। जब सब या तो अपने अपने गाँव जाते हैं , अथवा नानी - दादी के घर एक साथ मिलते हैं। विदेश में रहने वालों के हमारे पहचान के , मेरे बेटे के , मित्रों के बच्चों में अभी तक यह देखने को मिल रहा है। जून में छुट्टी होते ही हमारे कितने परिचित दोस्त -२- ३ सप्ताह के लिए भारत चले गये थे ।बच्चों की अलग अलग छुट् इसे कई बार गड़बड़ा देती हैं। भारत आ कर सबसे जा कर मिलना तो संभव नही होता है इसलिए कोई एक परिवार एक दिन एक जगह मिलने का प्रयास कर रहे हैं। रक्षाबंधन , भाई दूज , छट आदि ऐसे ही पारिवारिक मिलन के उत्सव हैं। हां कनाडा और अमेरिका व यूरोप से यह मिलन एकदम भिन्न है। आज का सम्पादकीय उषाकाल के उजास सा उजला उजला है। आभार सुमन जी
शक्ति सिंह 2025/07/25 09:01 PM
यह लेख सांस्कृतिक आत्मचिंतन, पारिवारिक रिश्तों की पुनर्स्थापना और प्रकृति से जुड़ाव का एक सुंदर, भावनात्मक दस्तावेज़ है। यह रचना हमें यह सोचने पर विवश करती है कि कैसे हम आधुनिक जीवन की आपाधापी में अपनी जड़ों और रिश्तों से दूर हो गए हैं।
शैली 2025/07/25 08:43 PM
सुन कर दुःख हुआ कि कुत्ते वहां भी काटते हैं, मैं तो सोचती थी कि भारत में ही असभ्य किस्म के कुत्ते हैं। मानसिक अवसाद का समय रहते इलाज करवा लें, यूँ आपका जीवनानुभव मेरे से अधिक है। लेकिन इसके बहुत बुरे प्रभावों को अक्सर अपने आस-पास देखती हूँ। भारत में मनोचिकित्सा वैसे भी taboo माना जाता है। मेरी इच्छा है कि कभी मनोविकार और उसपर खुले विचारों से पहल किए जाने पर भी कोई विशेषांक निकालें, अपने पाठकों में मानसिक विकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाएं। भारत में भी अब फैमिली रियूनियन की परम्परा अपनी पैठ बना रही है, क्योंकि यहां भी दूरियां बहुत बढ़ गई हैं। बागवानी का शौक सराहनीय है। काश आप एक ट्रॉपिकल देश में ही रहते। आपके संपादकीय हमेशा ही हृदय से निकले हुए, सुलझे हुए होते हैं और पाठकों को बरबस उन अनुभवों से जोड़ लेते हैं। अपने स्वास्थ का ध्यान रखें, ईश्वर आपको स्वस्थ और प्रसन्न रखे। अक्सर मैं प्रतिक्रिया लिखने में आलस कर जाती हूं। लेकिन पढ़ती ज़रूर हूं। एक बहुत अच्छे अंक के लिए धन्यवाद और बधाई। धैर्य का फल मीठा होता है, आपके संपादकीय और अंक ने सिद्ध कर दिया।
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