प्रिय मित्रो,
नव वर्ष भारत के लिए शुभ संदेश के साथ उदय हो चुका है। मुझे पूरी आशा है कि २०२४ का यह वर्ष भारतीय इतिहास में मील के एक पत्थर के रूप में याद रहेगा। यह वर्ष भारतीय संस्कृति, सभ्यता, राजनीति, समाज के पुनर्जागरण का वर्ष सिद्ध होगा, ऐसी मेरी आशा भी है और कामना भी। इस सूची में मैंने साहित्य का नाम नहीं लिखा परन्तु पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि साहित्यकारों की लेखनी में भी यह पुनर्जागरण दिखाई देगा।
इस सम्पादकीय में मैं पूरा प्रयास करूँगा का राजनीति से दूर रहूँ, परन्तु क्या करूँ, लेखक के रूप में विचारशील हूँ। लेखक की दृष्टि वह देखती है जो आम आँख नहीं देख पाती। ऐसा अनायास होता है, लेखक सायास ऐसा नहीं करता। आप ही बतायें कि क्या भारतीय साहित्य अपने आप को अपनी जड़ों से काट सकता है? साहित्य एक ऐसे वट वृक्ष की तरह होता है जिसकी जड़ें शताब्दियों तक गहरी होती हैं। भारत के लिए तो हम शताब्दियों नहीं सहस्त्राब्दियों तक की बात करते हैं। भारतीय सभ्यता विश्व की अकेली सभ्यता है जो कि अनादि से निरंतर वर्तमान तक चली आ रही है। निःस्संदेह कुछ लोग हमारे इतिहास को मिथक कह कर इसका खण्डन करते हैं। दुःख की बात तो यह है कि एक सहस्त्र वर्ष की दासता झेलने के बाद हम इस दुष्प्रचार पर विश्वास भी करने लगे। विदेशी आक्रांताओं ने हमारे ऐतिहासिक प्रमाणों को समूल नष्ट करने का प्रयास किया है। चाहे वह हमारे मंदिर हों या नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय हों या हरिद्वार के पंडों की बहियाँ हों या हमारे धार्मिक ग्रंथ। हमारे स्मारकों की दीवारों पर उकेरा इतिहास हो या आधुनिक काल के राजनीतिज्ञ जो श्रीराम के होने पर ही प्रश्नचिह्न लगाते हैं। श्रीराम इस भू-भाग की आत्मा हैं, आर्दश जीवन शैली का मापदण्ड हैं, भारतीय दर्शन का मूल हैं।
श्रीराम को न तो भारत के इतिहास से अलग किया जा सकता है और न ही भारतीय साहित्य से। दूसरे शब्दों में जो राजनीतिज्ञ या तथाकथित बुद्धिजीवी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं, वह भारतीय साहित्य पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। विडम्बना यह है कि जिस साहित्य से वह श्रीराम को उखाड़ फेंकना चाहते हैं वही साहित्य उनके जीवनयापन का साधन भी है और उनकी आत्मा के किसी अंधेरे कोने में जीवित भी है। कामना यह करता हूँ कि किसी दिन यह अंधेरा कोना आलोकित होगा और श्रीराम प्रखर हो आत्मा का शुद्धिकरण करेंगे। वैसे तो मानता हूँ कि आत्मा तो शुद्ध होती ही, शायद कहना चाह रहा था कि उन आवरणों का विनाश होगा जिनके पीछे आत्मा की पुकार को छिपा रखा है। अगर हम अपनी सभ्यता को सनातन मानते हैं तो यह कहने में भी हम हिचकिचा नहीं सकते कि अखंड भारत में रहने वाले सभी मानवों के श्रीराम अपने हैं। चाहे कम्बोडिया के मन्दिर हों, या थाईलैंड की रामलीला सभी यह प्रमाणित करते हैं कि श्रीराम वहाँ की संस्कृति में रचे-बसे थे। महाभारत काल में भारतवर्ष कांधार तक था तो श्रीराम भी तो वहाँ अवश्य पूजे जाते रहे होंगे। सनातन इस भूखण्ड में पैदा हुए सभी मतों से पहले से है। चाहे कोई भी मत सनातन को नकार दे परन्तु अपने डीएनए को तो नहीं नकार सकता। मध्य-पूर्व और मध्य एशिया के देशों को चंद्रवंशी कहा जाना तो अभी से आरम्भ हो चुका है।
संभवतः इस सम्पादकीय का विचार मेरे मन में आज सुबह कुलबुलाने लगा था। हुआ यह कि डॉ. पद्मावती का एक सांस्कृतिक आलेख इस अंक के लिए सम्पादित कर रहा था। आलेख का शीर्षक है—दक्षिण अयोध्या में ‘भद्राद्रि रामन्ना’ के प्रभु राम। आलेख अपलोड करने के बाद सोचने लगा कि भारत को उत्तर और दक्षिण बाँटने के प्रयास शताब्दियों से किए गए। यह प्रयास वैसा ही प्रमाणित हो रहा जैसे कि कोई मूर्ख पानी में लाठी का प्रहार करके सोचे कि वह पानी को दो भागों में बाँट/तोड़ देगा। जब सभ्यता एक है, संस्कृति का दर्शन एक है। हमारे श्री राम, श्रीकृष्ण, देवी-देवता एक हैं, जीवन के सिद्धांत एक हैं तो हमें कैसे बाँट पाओगे? ऐसा सोचना ही मूर्खता है। समय-समय पर राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थ के लिए कभी भाषा का प्रश्न उठाते हैं तो कभी सभ्यता को विभक्त करने का प्रयास करते हैं। उत्तरी सभ्यता को आर्य और दक्षिणी सभ्यता को द्रविड़ कह देते हैं। मुझे याद आता है कि आज से साठ-बासठ वर्ष पहले जब हमें इतिहास पढ़ाया जाता था तो यही पढ़ाया जाता था। यहाँ तक इतिहास में पढ़ाया जाता था कि “आर्य गौरवर्ण, उन्नत ललाट और लम्बे क़द के होते हैं” और द्रविड़ “ठिगने, काले रंग के होते है”। आप भाषा में निहित भाव को समझें। स्कूल में उत्तर भारत के बच्चों में ही कूट-कूट के यह अंतर भरा जाता था। जबकि सच तो यह है कि रंगभेद भारत में कैसे किया जा सकता है जहाँ, श्रीकृष्ण और श्रीराम दोनों ही गौरवर्ण नहीं हैं। हम काली माँ की पूजा करते हैं तो गौरी माँ की भी। श्रीराम रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना करते हैं तो अमरनाथ का हिम शिवलिंग भी सनातन है। असम में कामख्या माँ है तो मुम्बई में मुम्बा देवी।
यह हमारा सौभाग्य है कि हम इस समय सूचना प्रौद्योगिकी युग में जीवित हैं। सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए हम किसी तंत्र पर निर्भर नहीं हैं। इस युग में सोशल मीडिया पर न तो कोई झूठ अधिक समय के लिए टिक पाता है और न हीं विचार-विमर्श पर कोई अंकुश लग पाता है। ऐसे में हमारे आत्मविश्वास को खंडित करने के प्रयासों का विफल होना निश्चित है। भारत पुनः जिस पथ पर अग्रसर हो रहा है, भगवान से प्रार्थना है कि वह पथ आलोकित रहे। आप सभी से अनुरोध है कि आज के भारत का साहित्य लिखें। हम अपने दुःख भरे दासता के काल को भुलाना नहीं चाहते क्योंकि उससे हमारे संकल्प में दृढ़ता आती है। वर्तमान और भविष्य की ओर देखने से आत्मविश्वास जागृत होता है। विदेशों में जब मैं पढ़ाई करने के लिए आए विद्यार्थियों में जो ऊर्जा देखता हूँ और जो आत्मविश्वास देखता हूँ, वह हम लोगों में नहीं था जो सत्तर के दशक में पश्चिमी देशों में आए थे। साहित्यकारों का यह दायित्व है कि हम इस युवा ऊर्जा को बनाए रखें और अपनी कला द्वारा भारत के साहित्य को समृद्ध करते रहें।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
सुमन कुमार घई 2024/01/16 03:40 PM
त्रुटि बताने के लिए धन्यवाद महेश जी। सम्पादकीय संशोधित कर दिया है। एक बार पुनः धन्यगाद!
महेश रौतेला 2024/01/16 10:52 AM
आपने सुन्दर परिदृश्य प्रस्तुत किया है। एक त्रुटि है मेरे अनुसार- बद्रीनाथ में विष्णु भगवान का मन्दिर है। अमरनाथ में हिम शिवलिंग है।
डॉ पदमावती 2024/01/16 09:53 AM
सुमन जी नमस्कार प्रभु राम इस भूभाग की आत्मा तो है ही साथ ही साथ इस संपूर्ण सृष्टि का की भी आत्मा है और मेरा मत है कि नास्तिक का स्थान आस्तिक से भी ऊँचा होता है क्योंकि उसने ईश्वर की महिमा को जान लिया ,पहचान लिया ,तभी वे खंडन कर पा रहा है । और वेदों में भी ईश्वर तक पहुँचने के दो मार्ग सुझाएँ है नेति नेति का मार्ग और मंडन का मार्ग । जिसने यह कहा कि प्रभु राम ने राम सेतु बनाने के लिए किस इंजीनियरिंग कॉलेज मेंडिग्री हासिल की थी ? यह प्रश्न उठाने वाला तो मोक्ष का पहला अधिकारी है क्योंकि वह इस पर पूर्ण विश्वास कर रहा है कि राम सेतु भगवान राम ने ही बनाया है ,हम में से कई सनातनियों से भी अधिक । राम का नाम प्रमादवश लिया जाए या भक्ति वश । उसका उतना ही प्रभाव होता है । इसीलिए कहते हैं बीज उल्टा पड़े या सीधा । फलेगा ही । इस लेख को लिखने का एक ही कारण था -एक ऐसे भक्त की महिमा का गुणगान ,जिसने दूसरे धर्म के व्यक्ति को विवश कर दिया और उसका सर भी श्रद्धा से झुक गया । रामदास को “भक्त रामदास “एक सुल्तान ने ही तो बनाया था । तभी भगवान ने उसे दर्शन दिए थे । लंकापति रावण भी तो मो़क्ष का अधिकारी हो गया था क्योंकि उसके तन मन में राम उसी प्रकार बस गए थे जितने हिमालय में ध्यान रमाए आदि योगि के मन में बसे थे । इसी कारण खंडनकारी का योगदान भी सराहनीय ही माना जाना चाहिए जो भगवान की महिमा को और भी बढ़ा देता है ।
अरुण कुमार प्रसाद 2024/01/15 07:57 PM
मैं जब छोटा था तो देखा करता था -शाम के बाद रात के भोजन के बाद गाँव,टोले के बड़े,बूढ़े रामचरितमानस का पाठ देर रात तक करते और सुनते थे। वे रम जाते थे क्योंकि चौपाइयों को समझते और प्रतिकृया स्वरूप दुहराते या अर्थ भी करते थे। मेरा मानना है की साहित्यिक आलोचनाओं के बाद भी हर लोग और साहित्यकार राम की सत्ता और उनकी संस्कृति को मूलत: जीता है। हमारी पारिवारिक व्यवस्था राम के सम्पूर्ण जीवन की एक झांकी ही तो होती है। हमने गाँव में ऐसी कई घटनाएँ और संदर्भ देखे हैं जो राम के स्थापित मान्यताओं की शुद्ध प्रतिलिपि कहे जा सकते थे। इसे पुन: स्थापित होता देखेंगे तो खुशी होगी। इस विषय पर आपका संपादकीय सुखद और प्रशंसनीय है। धन्यवाद।
सरोजिनी पाण्डेय 2024/01/15 03:34 PM
अत्यंत भारतीय, संवेदना, सद्भावना, शुभकामना से ओत-प्रोत हृदय -स्पर्शी है। कबीर और राम तो अभिन्न हैं: "राम मोर पिउ मैं राम की बहुरिया, राम बड़े मैं छोटकी बहुरिया" हम सबकी शुभाकाक्षाएं फलीभूत हों
Madhu sandhu 2024/01/15 11:01 AM
श्रीराम इस भू-भाग की आत्मा हैं, आर्दश जीवन शैली का मापदण्ड हैं, भारतीय दर्शन का मूल हैं।
राजनन्दन सिंह 2024/01/15 10:27 AM
राम वैश्विक हैं। विश्व में भी वे किसी मत या विचार विशेष तक सिमित नहीं, बल्कि संपूर्ण सांस्कृतिक हैं। भारत के तो वे जनजीवन में हैं। कबीर दास चादर बुनकर जब बाजार में बेचने जाते थे तो अपने ग्राहकों को राम शब्द से हीं संबोधित करते थे। 'आओ राम ले जाओ ये चादर विशेष तुम्हारे लिए हीं बुने हैं।' और बड़े प्यार से बुने हैं। ताने में एक एक भरनी भरते हुए वे राम राम का जाप करते रहते थे। उनका एक प्रसिद्ध भजन है। "राम नाम रस भीनी चदरिया भीनी रे भीनी" सैकड़ों वर्षों से यह भारत का सांस्कृतिक गीत है। हर कोई सुनता है, हर कोई गाता है। भजन प्रेमी भी, गजल प्रेमी भी। राम भारतीय जनमानस की करुणा व दया में हैं। राम भारतीय जनमानस के प्रेम, प्रणाम, आदर व समभाव में है। राम भारत के हृदय में है। बिहार में जब किसी को किसी के प्रति दया हमदर्दी प्रकट करना होता है तो वह राम शब्द का प्रयोग करता है। "ऐऽराम बेचारे को भूख लगी होगी" समुचे हरियाणा तथा पंजाब के कुछ भागों में जब लोग मिलते हैं तो एक दुसरे को राम राम बोलते हैं। उसका जबाब भी राम राम हीं होता है। "रामराम जी" "राम राम जी, राम राम" इस तरह एक मिलन में, कम से कम छह बार राम का उच्चारण होता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं के आम बोलचाल में भी किसी न किसी भाव के साथ राम शब्द का प्रयोग होता है। सम्पूर्ण भारत के सभी भाषाओं, सभी बोलियों में राम शब्द समाहित है। दुर्भाग्यवश आज के भारत ने भगवान श्रीराम को राजनीतिक ध्रुवीकरण का विषय बना दिया है। रामभक्ति या तो आधी रह गई है या दो धराओं में बँट गई है। ये दोनों हीं स्थितियाँ भगवान श्रीराम के लिए अच्छी नहीं है। जो राम को दो विपरीत धाराओं में बाँट कर शून्य कर दे। क्योंकि राम वैश्विक हैं और उन्हें वैश्विक हीं रहने दिया जाना चाहिए। संपादकीय में आपकी कामना निश्चित रुप से हीं भारत की सामाजिक चेतना जागृत करे तथा वर्ष 2024एक ऐतिहासिक वर्ष साबित हो। हमारी भी ऐसी हीं आशा एवं शुभकामनाएँ हैं।
Usha Bansal 2024/01/15 09:43 AM
सुमन जी आज का सम्पादकीय वर्तमान परिस्थितियों में बहुत महत्वपूर्ण है । १- हमारी सनातन संस्कृति से सत्यवादी हरिश्चंद्र , श्री राम , कृष्ण और हजारों हजार वैज्ञानिक , दार्शनिक, अर्थ शात्री , गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, कितने नाम गिनायें पैदा हुए , जिन्होंने अपने नाम से पेटेंट कुछ नहीं कराया , नही उसका बीमा कराया । उनका कार्य ही उनके होने का प्रमाण था ।संस्कृत से लेकर जन भाषा में उस ज्ञान को जन जन तक पहुँचाने का काम किया । आज भी जनता जनार्दन में बिना स्कूल जाये , दिशा ज्ञान , समय ज्ञान , ऋतु ज्ञान , कृषि व फसलों का ज्ञान , गणित खेल खेल में सब जान जाते हैं । अक्षरों , भाषा , साहित्य का इसमें बहुत बड़ा योगदान है । बोल ,चाल की भाषा में गूढ़ तत्व बड़ी सरलता से समझा दिये गये हैं । २- राम पर प्रश्न उठाना ऐसा ही है जैसे जिस डाल पर आप बैठे हैं उसी को काट रहे हैं ! ३- दो तीन बार मेरे साथ इतिहास की सेमिनर , कान्फ्रेंस में ऐसा हुआ जब मुझे चुप रहने को विवश किया या बाहर जाने को कहा गया । साम्यवादी इतिहासकार मंच से कह रहे थे कि राम के जन्म कोई प्रमाण नही है , बर्थ सर्टिफिकेट या फोटो है …… मैंने खडे होकर पूछ लिया क्या मोहम्मद साहब की फोटो है , उनके जन्म का प्रमाण है ? वेदों कब किसने लिखा , लिखित रूप नही है , तो कुरान बाइबिल का भी नही है। सभी ओरल ट्रेडिशन में थे । कुरान , बाइबिल को बहुत बाद में लिखा , संशोधन किया । परंतु वेद का कोई संशोधन नहीं हुआ । वह अपने मूल रूप में हैं । वह अक्षरक्ष: वैसे ही हैं बस इतना उस समय यह कहना अपराध था । मुझे खुशी है कि आज हम ऐसे प्रश्न उठा सकते हैं पूछ सकते हैं। ४- साहित्य और इतिहास देश , समाज , संस्कृति की गाड़ी के दो पहिए हैं एक बगैर दूसरा चल ही नहीं सकता । एक अच्छे विचारणीय सम्पादकीय के लिये आभार।
Anima Das 2024/01/15 09:00 AM
आपके दृढ़ विचार ने मेरे पाठक मन को आलोड़ित किया है। यह सत्य है विदेशी आक्रांतओं ने हमारी संस्कृति का विनाश किया है... यह जानते हुए भी, शिक्षित होते हुए भी... वही स्वार्थी कामनाओं को त्याग नहीं पाते एवं दासता के अधीन जीवन को उच्च कोटि का मानते हैं। क्या मैं इस दुःख में या हमारी पीढ़ी इस दुःख में शेष श्वास त्याग देगा? युवा पीढ़ी के लिए अत्यंत दुःखित हूँ। इन्हे तो न हमारे देवी देवताओं के बारे में ज्ञान है न ही रामायण, गीता, का ज्ञान है...कुछ भी नहीं है। सबसे सहज एवं मुफ्त का जीवन कैसे जिया जाए इसी अन्वेषण में तत्पर है। आपकी कामना, हमारी प्रार्थना नव भारत वर्ष हेतु सदैव सफल हो।धन्यवाद सर
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Madhu Sharma 2024/01/16 08:46 PM
आँखें खोल देने वाला सम्पादकीय। इतिहास हमें बहुत कुछ सिखाता तो है...निर्भर हम सीखने वालों पर करता है कि हम एक नालायक छात्र की भाँति उस सबक को देखा-अनदेखा कर दें या फिर लाभ-हानि का आँकलन कर सकारात्मक कदम उठाएँ।