प्रिय मित्रो,
आज ३० नवम्बर है, यानी जब तक आपको साहित्य कुञ्ज का यह अंक मिलेगा, भारत में इस वर्ष का अंतिम महीना आरम्भ हो चुकेगा। प्रायः इन दिनों हम अपना और अपने आसपास के समाज का आकलन करने लगते हैं। हाथों से सरकते जा रहे वर्ष में हमारी उपलब्धियाँ क्या रहीं और उससे भी अधिक प्रभावित करने वाली सच्चाई कि हमने क्या-क्या खोया। बहुत कुछ जो हम खोते हैं, उस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता। समय अपनी गति से बढ़ता है और समय पर किसका नियंत्रण! सोचता हूँ कि आयु की जिस दशक में मैंने इस वर्ष चरण रखा है, उसमें देख रहा हूँ, कि एक पीढ़ी विलुप्त होती जा रही है। यानी मेरी पीढ़ी काल के समक्ष प्रथम पंक्ति में खड़ी है।
बाहर गहरे काले बादल छा रहे हैं आज। बहुत ही तीव्र गति से हवा चलती रही है। कहते हैं कि शायद रात को तापमान शून्य से नीचे हो जाएगा और यह वर्षा हिमपात में परिवर्तित हो जाएगी। मेरे मन पर भी जो काले बादल छाए हैं, शायद वह भी सूर्य की किरणों के अभाव के कारण ही हैं।
आज सुबह ही बेटे का व्हाट्सैप पर संदेश था कि आज नन्ही मायरा डे-केयर में नहीं गई। रात से उसे ज्वर चल रहा है। दोपहर के बाद मीटिंग है और ‘वर्क फ़्रॉम होम’ के कारण कुछ कठिनाई हो सकती है, इसलिए मैं उसे दोपहर को जाकर ले आया। मेरे आसपास घूम रही है। उस हर खिलौने को छू रही है, उससे खेल रही है जिस पर उसके बड़े भाई युवान का अधिकार है, या ऐसा वह समझता है। मिल-जुलकर खेलने का अभ्यास तो कर रहा है पर बाल-सुलभ प्रवृत्ति हावी हो ही जाती है। चलो अपने पोते-पोती की बात करते, लिखते मनःस्तल पर छाते जा रहे काले बादल भी छँटने लगे हैं।
दिसम्बर का माह आते ही पश्चिमी जगत में एक अलग ही वातावरण बन जाता है। नवम्बर के पहले दिन हॉलोविन के त्यौहार से निपटते ही बाज़ारों में, दुकानों में क्रिसमस की सजावट और बिकने वाले साज़ो-सामान की ऋतु आ जाती है। पहले यह सब कुछ दिसम्बर के आरम्भ में होता था परन्तु अब धीरे-धीरे सरकते हुए नवम्बर के पहले-दूसरे सप्ताह तक पहुँच गया है। जब ऐसा होना आरम्भ हुआ तो शोर मचना शुरू हुआ कि आप क्रिसमस के धार्मिक पक्ष के ऊपर व्यवसायिक पक्ष को हावी कर रहे हैं। धार्मिक त्यौहार के महत्त्व को कम कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य विवाद भी उन दिनों उठ खड़ा हुआ था। इससे पहले कि विवाद की बात करें तत्कालीन कनेडियन समाज को समझने की भी आवश्यकता है। महानगरों में अधिकतर लोग ईसाई मत के गोरे लोग थे। उन दिनों आ रहे आप्रवासियों में बहुत से लोग इस्लामी जगत से आ रहे थे और मुख्यतः महानगरों में बस रहे थे। जिनमें से अधिकतर शरणार्थी थे। क्रिसमस का इतने जोर-शोर से मनाया जाना उन्हें अखरता था। स्कूलों में बच्चे त्योहार के महीने को मनाते हुए, पहली दिसम्बर से क्रिसमस के गीत गाते। स्कूलों में ‘क्रिसमस पेजेंट’ के रंगारंग कार्यक्रम होते, जिसमें ईसा मसीह के जन्म से संबिधित नाटक होते, कुछ भजन होते और क्रिसमस के गीत “क्रिसमस कैरोल” गाए जाते। स्कूलों को ख़ूब सजाया जाता। संक्षेप में कहूँ तो क्रिसमस संपूर्ण वातावरण में छा जाता।
मेरे बेटे भी स्कूल से लौटते हुए क्रिसमस के गीत गाते हुए ही घर में प्रवेश करते। घर में भी क्रिसमस ट्री लगा कर सजाते, नीचे उपहारों का ढेर भी लगता। क्रिसमस के ग्रीटिंग कार्ड भी भेजे जाते। मित्रों के साथ उपहारों का आदान-प्रदान होता या दैनिक जीवन में आपका जिन लोगों से वास्ता पड़ता है, उन्हें भी उपहार दिए जाते, जैसे कि डाकिया, बैंक की टेलर, बच्चों के शिक्षक इत्यादि।
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, उन दिनों कैनेडा में आने वाले आप्रवासियों में भी कुछ परिवर्तन आ रहा था। युरोपियन देशों की तुलना में एशिया से अधिक आप्रवासी आ रहे थे। इन आंगुतकों का धर्म और सामाजिक पृष्ठभूमि बिलकुल अलग थी। जब इन आप्रवासियों के बच्चे घर में घुसते हुए ईसाई धर्म के भजन या गीत गाते तो माता-पिता के सब्र का कटोरा फूट जाता। धीरे-धीरे यह समस्या मुखर होने लगी। यहाँ तक कि शिष्टाचारवश ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ पर भी आपत्ति दर्ज करवाई जाने लगी। कनेडियन समाज बहुत सहनशील और शिष्ट समाज है। नए लोगों की आपत्तियों को दूर करने के लिए उन्होंने अपनी परम्परा ही बदल दी। है न विस्मित करने वाली बात—जिस समाज ने आपको शरण दी, वह अपने आपको बदल दे कि आपको बुरा न लगे।
स्कूलों में क्रिसमस पेजेंट समाप्त हो गई। “हैव ए मैरी क्रिसमस” की बजाय “सीज़न’ज़ ग्रीटिंग्ज़” कहा जाने लगा। यानी कि आंगतुकों ने वर्ष के सबसे बड़े त्योहार के आनन्द को ही समाप्त कर दिया। हालात ऐसे हो गए कि ‘हम तो मनाते ही नहीं, आपको भी सार्वजनिक रूप से मनाने नहीं देंगे’। वह यह भूल गए कि इस देश में आने से पहले आप जानते थे कि आप ईसाई मत के बाहुल्य वाले देश में जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से देख रहा हूँ कि समाज फिर से “गुड ओल्ड डेज़” की ओर लौट रहा है।
इस सबमें मज़े की बात यह है कि देखा जाए तो २५ दिसम्बर को मनाया जाने वाला त्योहार ही बनावटी है। इस दिन तो ईसा मसीह का जन्म ही नहीं हुआ था। इसीलिए ऑर्थोडेक्स क्रिश्चियन चर्च ईसा के जन्म को ६ या ७ जनवरी को मानता है और क्रिसमस मनाता है। यानी यह त्योहार अब शुद्ध रूप से व्यवसायिक त्योहार है।
ठीक उसी तरह जिस तरह से, जैसे कहा जाता है ‘वेलेंटाइन डे’ चॉकलेट बनाने वाली कंपनियों और फूल बेचने वालों का बनाया हुआ त्योहार है। परन्तु क्रिसमस के मानवीय उदारता के पक्ष को अनदेखा नहीं कर सकते। मौलिक रूप से यह त्योहार सद्भावना का त्योहार सदा से रहा है। शायद इसीलिए मैं तो पूरे ज़ोर-शोर से इसे मनाता हूँ। इन दिनों में लोग दिल खोल कर दानार्थी संस्थाओं को धन देते हैं। मित्रों के साथ मिल बैठ कर प्रीति भोज करते हैं। सदूर बिखरे परिवार अपने बूढ़े हो रहे माता पिता के घर लौटते हैं। राह चलते आँख मिलते ही मुस्कुरा कर अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही क्या है?
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
प्रदीप श्रीवास्तव 2022/12/01 01:56 PM
‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ के जरिए आपने एक वैश्विक समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया है. एक बड़े समुदाय की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने मजहब अपनी परंपराओं को सर्वश्रेष्ठ मानता है, अन्य समुदाय भी ऐसा ही सोचते हैं. लेकिन पहले समुदाय और अन्य में फर्क यह है कि पहला समुदाय अन्य की धार्मिक मान्यताओं परंपराओं को घृणा की दृष्टि से देखता है, उन्हें वह एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर पाता. जबकि अन्य समुदाय के लोग अपने धर्म, त्यौहार, परंपराओं के साथ साथ दूसरों की मान्यताओं को भी सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, समय-समय पर उनके कार्यक्रमों में सम्मिलित भी होते हैं. पहले समुदाय की इस घोर असहिष्णुता, संकुचित मानसिकता ने दुनिया में बड़ी समस्या बना रखी है. यह अपनी विशाल जनसंख्या के कारण पूरी दुनिया में फैले हुए हैं . अन्य समुदाय की अपेक्षा इनकी जनसंख्या कई गुना ज्यादा रफ्तार से बेतहाशा बढ़ रही है. जिसके कारण इनके पास संसाधनों का अभाव बराबर बना ही रहता है. जिसके चलते यह दुनिया में हर तरफ जाते रहते हैं. इस समुदाय की विशेषता यह भी है कि दुनिया में पहले यह शरण मांगता है, मदद मांगता है, जब मिल जाती है, तो यह सब देने वाले को ही यह समुदाय बर्दाश्त नहीं कर पाता, उसको ही वहां से बेदखल करने की कोशिश में जुट जाता है. इसके लिए वह दंगे फसाद विवाद आतंकवाद आदि सारे हथकंडे अपनाता है. दुनिया उनकी इस घोर असहिष्णुता, संकुचित मानसिकता से बुरी तरह त्रस्त हो चुकी है. वह अब इसका समाधान चाहती है. वह चाहती है कि जैसे बाकी समुदाय दूसरे की धार्मिक मान्यताओं , परंपराओं से घृणा नहीं करते वैसे ही यह समुदाय भी संकुचित दायरे से बाहर निकलकर समाज को और सभ्य समृद्ध बनाने में अपना भी योगदान सुनिश्चित करें.
Usha Bansal 2022/12/01 08:22 AM
Happy Christmas to all हम भारतीय त्यौहार पसंद हैं । किसी भी बहाने मिठाई खाने , हँसने , शोरगुल करने का अवसर नही खोना चाहते। तो चलो यह भी सही। गाय भी ग्याभन , * बैल भी * गर्भवती
सरोजिनी पाण्डेय 2022/12/01 07:53 AM
संपादक महोदय त्योहारों और व्यावसायिकता की बात जो आपने अपने संपादकीय में उठाई है ,वह आधुनिक बाजार युग का परम सत्य है। अधिकांश त्यौहार अपना मूल भाव त्याग कर व्यावसायिकता की भेंट चढ़ चुके हैं ।जहां तक 'गुड ओल्ड डेज़ 'में लौटने की बात है ,उसमें मुझे कई बार ऐसा लगता है कि अपने संप्रदाय या धर्म की अस्मिता को बचाए रखना और बढ़-चढ़कर उसका दिखावा करना भी त्योहारों को बहुत अधिक जोर शोर से मनाने का एक कारण हो सकता है। फिर भी त्यौहार तो त्यौहार है उसमें यदि वसुधैव कुटुंबकम का पालन किया जाए तो इससे बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता ।हम अपने त्योहार मनाएं और दूसरों के त्यौहार को सद्भावना से देखें ,यही मानव धर्म है।
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महेश रौतेला 2022/12/01 09:45 PM
गीता मैं कृष्ण भगवान कहते हैं ,"सभी प्राणियों में मैं हूँ, धरती की सुगंध हूँ।" लगता है ईश्वर ही पूर्ण शान्ति नहीं चाहते हैं इसलिए वे इतनी विविधता ( धर्म आदि) कर देते हैं की आदमी सतत संघर्ष में पड़ा रहता है।