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प्रिय मित्रो,

क्या लेखक बना जा सकता है?  प्रश्न अटपटा नहीं है। क्या कोई भी व्यक्ति परिश्रम करके लेखक बन सकता है? एक क्षण ठहर कर विचार करें। क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं? क्या सोचते हैं आप? क्या मेरा प्रश्न निरर्थक लगता है?

चलिए मैं ही चर्चा आरम्भ करता हूँ। जब मैं चार-पाँच वर्ष के बच्चों के साथ बात करता हूँ तो उनकी कहानी कहने की क्षमता को सुनकर विस्मित होता हूँ और आनन्द भी उठाता हूँ। अवश्य ही आपने भी ऐसा कभी न कभी अनुभव किया होगा। सभी बच्चे एक छोटी सी घटना की कहानी कह सकते हैं। जितना उनका जीवन का अनुभव होता है उसके अनुसार विस्तार होता है उनकी कहानी में। आप बस उन्हें उकसाते रहें; पूछ्ते रहें कि ’फिर क्या हुआ?’। जब तक आप रुचि दिखाते रहेंगे, कहानी चलती रहेगी। जैसे ही बच्चे वाक्य बनाने में सक्षम होते हैं वह अपनी कल्पनाओं को अभिव्यक्त करना भी सीख जाते हैं। सपनों में उन्हें क्या डराता है, कभी उनसे पूछ के तो देखिए। पूरा शब्द चित्र खींच देंगे वह। जब आपसे वह कोई प्रश्न पूछें और आप उन्हें हँसाने के लिए  कोई उल्टा-सीधा उत्तर दें, आप देखेंगे कि उनकी आँखों में एक विशेष चमक आ जाती है कि मैं सब समझता/समझती हूँ। कई बार तो वह आपकी ही कही बात को आगे बढ़ा देते हैं। यानी आपके व्यंग्य को परिवर्द्धित कर देते हैं। यही तो लेखन का बीज है, जो प्रत्येक मानव में जन्म से ही आरोपित हुआ होता है। ऐसा मेरा मानना है। अगर इस बीज को पोषित करने वाला वातावरण मिले तो लेखन के लिए शिक्षा के कुछ सोपान ही तो चाहिएँ। संवेदनाएँ तो जन्म से ही मानव में होती हैं। पालने में आँखों से ही बच्चे न जाने कितना कुछ कह जाते हैं। वह उनकी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति होती है। शिक्षा उन्हें बस शब्दावली देती है। अगर हम बच्चे को अपनी बातों से संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का अवसर देंगे तो उसकी संप्रेषण क्षमता को फलने-फूलने का अवसर मिलेगा। दूसरी ओर अगर हम बच्चे की बातों को अनसुना ही करते रहेंगे तो वह मौन हो जाएगा। दूसरे शब्दों में उसकी संवेदना की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाते ही उसके अंदर के सृजनता के बीज को हम कुचल देंगे। अगर आप मेरे तर्क से सहमत हैं तो सम्पादकीय के आरम्भ में किए गए प्रश्न के उत्तर इसी में ही निहित हैं।

भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली से तो मैं परिचित नहीं हूँ परन्तु हमारे “युग” में जो कि साठ-पैंसठ वर्ष पहले का था, उस समय में कल्पना को अध्यापक ही आरम्भ में ही कुचल देते थे। रट्टा मार कर जो पुस्तक में है, बस वही सुनाओ और वही लिखो। आप अगर उस युग से हैं तो आपको भी याद आते होंगे वह निबन्ध जो हमें लिखने के लिए दिए जाते थे—वही घिसे-पिटे विषय, वही वाक्य, वही आरम्भ और वही अन्त। किसी में भी छात्र को अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करने का अवसर ही नहीं दिया जाता था। जहाँ तक मुझे याद आता है कभी भी किसी भी कक्षा में यह नहीं कहा गया कि आप कोई कविता या कहानी लिखो। अगर कोई अच्छा अध्यापक होता भी था जो साहित्यिक बीज को पोषित करना चाहता था वह पाठ्यक्रम से बाहर जाकर करता था। सौभाग्यवश मुझे आठवीं कक्षा में ऐसे ही एक हिन्दी के अध्यापक मिले। घिसे-पिटे विषयों पर जो निबन्ध लिखने के लिए दिए जाते थे और जो मैं लिखता था, उसे देखकर वह मुस्कुरा देते थे। पर कभी भी  उन्होंने मेरी पीठ नहीं थपथपाई कि अच्छा लिख रहे हो; लिखते रहो। मेरे लिए तो उनकी मुस्कुराहट ही बहुत थी क्योंकि वह पिटाई करने के शौकीन थे। वैसे ही कक्षा में भय छाया रहता था।

कैनेडा में आरम्भिक कक्षाओं में बच्चों के कलात्मक रुझानों को परखा जाता है। बच्चों को कविता, कहानी लिखने के लिए कहा जाता है। संगीत के लिए कुछ सप्ताहों के लिए कोई वाद्ययंत्र घर ले जाने के लिए दिया जाता है। इससे ’होनहार के चिकने पात’ पहचाने जाते हैं। इसके अतिरिक्त स्कूलों की अपनी लाइब्रेरी होती है। मेरा पौत्र, युवान, चार वर्ष का है और सितम्बर से स्कूल जाने लगा है। जूनियर किंडरगार्टेन में है। अभी कुछ शब्द पढ़ने लगा है। सप्ताह में एक दिन उसकी कक्षा को स्कूल की लाइब्रेरी में ले जाया जाता है और उन्हें अपनी मनमर्ज़ी की पुस्तक के पन्ने पलटने की न केवल अनुमति है बल्कि प्रोत्साहित भी किया जाता है। पैदा होते ही बच्चों को उपहार में बच्चों की पुस्तकें देने की प्रथा है। जब बच्चा गोद में ही पुस्तकों के पन्ने पलटना सीख जाए तो पढ़ने में रुचि होने लगती है। पुस्तकें उसके मनोरंजन का साधन बनने लगती हैं। 

वापिस अपने मूल प्रश्न पर लौट रहा हूँ। क्या लेखक बना जा सकता है? दूसरे कोण से प्रश्न को देखता हूँ। लेखक बनने के लिए क्या चाहिए? संवेदनशील व्यक्तित्व, कल्पनाशक्ति, भाषा, अभिव्यक्ति का कौशल, मूलतः यही चाहिए। जैसा कि मैंने ऊपर प्रमाणित किया है कि प्रकृति का उपहार हर मानव को मिलता है। बड़े होते हुए हम इस उपहार को खो देते हैं या किसी अँधेरे कोने में छिपा देते हैं। लेखक बनने के लिए हमें इस उपहार को अँधेरों से निकाल कर सामने रखना है। इस उपहार को चाव से खोलना है। होता यह है कि जीवन की व्यस्तताओं में हम शब्दों को भी खो देते हैं। शब्दावली सीमित हो जाती है। भावों को व्यक्त करने की असमर्थता में झुंझला देते हैं या मुस्कुरा देते हैं पर शब्दों में नहीं ढालते अपनी झुंझलाहट या मुस्कुराहट को। इस अनुच्छेद की पहली पंक्ति के प्रश्न का उत्तर यही है—जन्म के समय जो हमें उपहार हमें मिला है उसके साथ हमें खेलना चाहिए।

कुछ दिन पहले डॉ. आरती स्मित से कुछ-कुछ इसी विषय पर थोड़ी बात हुई थी। संदर्भ था “क्रिएटिव राइटिंग” की शिक्षा का। मेरे मानना है कि ऐसे पाठ्यक्रमों में फिर से उन कौशलों से परिचित करवाया जाता है जो जन्मजात हममें पहले से ही होते हैं, और सब में होते हैं। एक ही घटनाक्रम को हम विभिन्न दृष्टिकोणों से देख सकते हैं और विभिन्न शैलियों में उसे शब्दों में ढाल सकते हैं। यह कौशल प्रत्येक लेखक में होना चाहिए। प्रायः यह होता है कि लेखक अपनी शब्दावली को सीमित कर लेते हैं या किसी अन्य का न पढ़ने से शब्दावली सीमित हो जाती है। सम्पादक की पैनी नज़र से यह अक्षमता पकड़ में आ जाती है। समझ तो पाठक भी जाता है पर वह इसे चिह्नित नहीं कर पाता। उसे वह लेखक उबाऊ लगने लगता है और पाठक पुस्तक बंद करके रख देता। लेखक और पाठक के बीच तना रोचकता सेतु टूट जाता है। यहीं पर क्रिएटिव राइटिंग की उपयोगिता मालूम होती है। माना कि भारत में इस विषय की कक्षाएँ न भी हों, पर व्यक्तिगत स्तर पर हम सब प्रयास तो कर सकते हैं। यह एक मानसिक और बौद्धिक व्ययाम है। लेखक बनने की पहली सीढ़ी है। नए लेखकों को प्रायः मैं अपने पत्रों में यही परामर्श देता हूँ। कई बार लेखक की योग्यता को परखते हुए, उसके लेखन में कमियों को देखते हुए, किसी विशेष लेखक की रचनाओं को पढ़ने का परामर्श भी देता हूँ। हर बार मैंने पाया है कि अगर नया लेखक वास्तव में बेहतर लिखना चाहता/चाहती है, अपने दर्प को नियंत्रण में रख सकता/सकती है, तो वह बेहतर लिखने लगता/लगती है।

यह है मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर—क्या कोई भी व्यक्ति परिश्रम करके लेखक बन सकता है? हाँ, निःस्संदेह बन सकता है।

तीसरे प्रश्न का उत्तर तो यह सम्पूर्ण सम्पादकीय ही है—क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?

इस विषय पर आपके विचारों का स्वागत है।

यह मेरे विचार हैं,आप असहमत हो सकते हैं। साहित्य कुञ्ज में किसी भी रचना भेजने वाले को मैं लेखक ही समझता हूँ। यह बात अलग है कि वह किस सोपान पर खड़े हैं, यह उन्हें समझाना मेरा दायित्व है।

— सुमन कुमार घई

 

टिप्पणियाँ

Dr. Veena Vij 'udit' 2022/01/17 06:56 AM

आ, सुमन जी आपका संपादकीय गहन विचार लिए है। प्रत्येक व्यक्ति लेखक है इसमें कोई दूसरी राय नहीं है, बशर्ते उसके पास विचार ,अनुभूति, संवेदना ,शब्द संयोजन का खजाना हो। हमारा जमाना और था आज तो छोटे बच्चों को क्रिएटिव राइटिंग का होमवर्क दिया जाता है। बच्चों में विचार अभिव्यक्ति के गुण को प्रोत्साहित किया जाता है। भारतीय शिक्षा पद्धति भी वैज्ञानिक हो गई है। यहां आपके विचारों का समर्थन करती हूं। आपने संपादकीय में सार्थक प्रश्न की चर्चा-परिचर्चा की है। आपको साधुवाद! सादर, वीणा विज'उदित'

डॉ आर बी भण्डारकर 2022/01/16 12:46 PM

सम्पादकीय, 'क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं' अच्छा लगा; बधाई। बच्चों का संदर्भ देने से यह सम्पादकीय अधिक सुचिंत्य,प्रेरक बन गया है।हर व्यक्ति लेखक है वह अपनी भावनाएं कागज पर, खेत मे,खलिहान में,अपने उद्यम में कैसे उतारता है यह देखने समझने की बात है। कागज पर भी सबकी क़लम एक-सी नहीं चलती है।सबकी शब्दावली, अलग,शैली अलग और अनुभूतियां भी विविधता भरी होती हैं।

Sarojini Pandey 2022/01/16 11:30 AM

आदरणीय सुमन जी नमस्कार इस अंक का संपादकीय मेरे हृदय के बहुत ही निकट है ।मैंने भी अभी लिखना शुरू किया है या यूं कहूं कि अपने लेखन को प्रकाशित होते देख रही हूं आपकी पत्रिका में !!मैं आपसे शत-प्रतिशत सहमत हूं कि हर व्यक्ति लेखक है और नहीं भी है ,तो वह हो सकता है ! मेरा तो मानना यह है कि हिंदी की वर्णमाला में व्यंजन क से शुरू होकर ह पर समाप्त होते हैं तो हर वह.व्यक्ति जो क से ह तक की वर्णमाला जानता है 'कहानी 'जरूर 'कह' सकता है। कहीं एक बार पढ़ा भी था कि हर व्यक्ति कम से कम एक उपन्यास तो लिख ही सकता है क्योंकि उसने भी एक जीवन जिया है।

प्रीति अग्रवाल 2022/01/15 03:41 AM

आदरणीय सुमनजी, आपका सम्पादकीय हमेशा की तरह कुछ नया लिए हुए, और अत्यन्त रुचिकर। मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ कि प्रयेक व्यक्ति में एक लेखक छुपा होता है और यह भी सच है कि यदि उचित प्रोत्साहन या वातावरण न मिले तो हमेशा के लिए छुपा ही रह जाता है। बचपन से ही मेरी दादी को और पिताजी को कहानियां सुनाने का बहुत शौक था और वो भी पूरे हाव भाव के साथ। चुटकुले सुनते समय तो वे खुद ही इतना हंसने लगते थे कि मुझे तो आधों का अंत भी नहीं याद, पर सब लोटपोट हो रहे होते थे। मुझे लगता है जो बच्चे कहानियाँ सुनते हुए बड़े होते है, वे ज़रूर रक न एक दिन लेखक बनते है, चाहे जीवन के पचास वर्ष पूरे करने के बाद ही लिखे...अब मुझे ही देख लीजिये

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