प्रिय मित्रो,
आप सबको नव वर्ष की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ!
काश! आपको नव वर्ष की शुभकामनाओं का संदेश किन्हीं भिन्न परिस्थितियों में देता। वास्तविकता सुरसा की तरह मुँह बाए सम्पूर्ण विश्व को निगलने के लिए तत्पर खड़ी दिखाई देती है। यह मानव की कर्मठता और जिजीविषा ही है कि मानवता इस अदृश्य दानव के समक्ष सीना तान कर खड़ी है।
वैश्विक प्रयासों के कारण कुछ माह पूर्व तक लगने लगा था कि हम आपदा को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। जीवन सामान्य दिशा की ओर अग्रसर होने लगा है। बाज़ारों में रौनक़ दिखाई देने लगी है। मित्र एक दूसरे से मिलने लगे थे। साक्षात् साहित्यिक गोष्ठियों के बारे में बातें होने लगी थीं। बच्चे स्कूल जाने लगे थे। पार्कों में झूलों पर जीवन चहकने लगा था। वैक्सीन के आँकड़ों को देखते हुए विश्वास जड़ें पकड़ने लगा था कि वाइरस चाहे न भी मरे पर मनुष्यों में प्रतिरोधक क्षमता ऐसी हो जाएगी कि कोविड केवल एक साधारण फ़्लू तक तरह बन कर रह जाएगा। हम इसके साथ जीना सीख लेंगे। यद्यपि विशेषज्ञ दबे स्वरों में चेतावनी देते जा रहे थे कि इस वाइरस से इतनी सुगमता से छुटकारा नहीं मिलने वाला। हुआ भी वही।
वाइरस ने एक नए अवतार में अपनी उपस्थिति दिखला दी। भारत की अपेक्षा इस अवतार ने पश्चिमी देशों को अपनी चपेट में पहले और अधिक शक्ति के साथ लिया है। क्रिसमस के त्योहार और नव वर्ष की धूम-धाम के सारे कार्यक्रम धरे के धरे रह गए। स्थिति तो ऐसी है कि पूर्ण लॉकडाउन पर भी विचार होने लगा है। मनोरंजन के लिए जहाँ भी भीड़ इकट्ठी हो सकती थी, उपस्थिति की संख्या सीमित हो गई है। इस बार प्रशासन की निन्दा नहीं हो रही। लगता है कि वाइरस के चाबुक ने उन विद्रोहियों को भी अनुशासित कर दिया है जो वाइरस के होने पर भी संशय प्रकट करते थे; वैक्सीन लगाने वाले स्थलों के सामने प्रदर्शन करते थे। कहा जाता है कि ओमिक्रोन वाइरस इतना ख़तरनाक नहीं है परन्तु जितनी सुगमता से यह संक्रमित करता है—वह चिंता का विषय है। आशा की किरण दक्षिणी अफ़्रीका से ही उदय हो रही है जो ओमिक्रोन का जन्मस्थल है। वहाँ पर इस वाइरस की लहर अब घट रही है। संभवतः पश्चिमी जगत में भी . . . वाक्य पूरा करते हुए भी डरता हूँ।
आज वर्ष की अंतिम संध्या के समय सम्पादकीय लिख रहा हूँ। भारत में इस समय 2022 की पहली सुबह के 4:00 बजे हैं। अपने दायें हाथ चाय के कप को कोस्टर पर रखा हुआ है। उससे उठ रही भाप में देखते हुए सोच रहा हूँ। यह संध्या मनन की होती है। गत वर्ष की क्या उपलब्धियाँ रहीं, आने वाले वर्ष की क्या सम्भावनाएँ हैं? यह विषय रहता है मनन का। क्या जिन सपनों या संकल्पों के साथ 2021 आरम्भ किया था, वह सत्य हुए हैं या हम उन पर खरे उतरे हैं? हमारे प्रयास हमें किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं? क्या नए वर्ष में अपनी दिशा को बदलना होगा? यही विचार रह-रह कर कौंध रहे हैं।
कुछ अंक पहले मैंने आप सब को सूचित किया था कि साहित्य कुञ्ज में सबके लिए हिन्दी का प्रूफ़रीडिंग टूल बनवा रहा हूँ। शायद यह पिछले वर्ष कि सबसे बड़ी उपलब्धि रहेगी। इस ऐप का इस अंक के प्रकाशन के लिए बहुत उपयोग किया है। अभी कई समस्याएँ हैं जिनसे मैं और प्रोग्रामर जूझ रहे हैं। आपको सूचित करना चाहता हूँ कि विराम चिह्नों के संशोधन का भाग तो पूरा हो चुका है। पन्द्रह सौ से अधिक शब्दों को सही करने की क्षमता तक हम पहुँच चुके हैं। दिन-प्रतिदिन यह संख्या बढ़ रही है। यह काम शीघ्र पूरा होने वाला नहीं है। इसलिए जब यह शब्द संख्या तीन-चार हज़ार तक पहुँच जाएगी, तो यह सुविधा मैं सार्वजनिक कर दूँगा। आप लोगों कि सहभागिता उस समय आरम्भ हो जाएगी। आपके उपयोग में जो शब्द संशोधित नहीं होंगे, उनकी सूची आपको मुझे देनी होगी। इस से शब्द संशोधन सूची विस्तृत करने में सहायता मिलेगी।
हिन्दी भाषा ऐसी है कि पूर्ण रूप से किसी भी उपकरण से संशोधन असम्भव है। एक उदाहरण दे रहा हूँ, जिन संज्ञाओं में उल्लेख और संबोधन का अन्तर केवल अनुस्वार है, उसके प्रयोग होने या न होने का निर्णय प्रयोगकर्ता (यूज़र) को ही करना होगा। उदाहरण हैं: मित्रो, मित्रों; दोस्तो, दोस्तों इत्यादि। इन दोनों में बिना अनुस्वार के शब्द संबोधन के लिए हैं और अनुस्वार वाले शब्द उल्लेख में प्रयोग होते हैं। ऐसे ही कई और शब्द होंगे जिनमें नुक़्ता भाषा और अर्थ का अन्तर डाल देता है। उदाहरण है: सजा, सज़ा; राज, राज़; जरा, ज़रा; कदम, कदम इत्यादि।
यह लिखते हुए विचार आ रहा है कि नव वर्ष के लिए हमें कुछ संकल्प करने की आवश्यकता है।
-
हम वर्तनी और व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध लिखने का प्रयास करेंगे।
-
विराम चिह्नों का उचित प्रयोग करेंगे।
-
अपने लेखन को सुधारने के लिए अच्छे लेखकों की रचनाओं का विश्लेषण करेंगे। उनकी रचनाओं के कला पक्ष और तकनीकी पक्ष का अध्ययन करेंगे।
-
लिखने से अधिक पढ़ेंगे।
-
हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए आधुनिक तकनीकी से नहीं घबराएँगे। और हम एक दूसरे की सहायता करेंगे।
-
हम हिन्दी भाषा और साहित्य को बेहतर बनाने के लिए नारेबाज़ी की अपेक्षा कर्म पर अधिक निर्भर रहेंगे।
इससे पहले कि मैं स्वयं नारेबाज़ी का दोषी ठहराया जाऊँ, अपने सम्पादकीय को विराम देता हूँ। यह साहित्य प्रेम की शक्ति ही है कि यह सम्पादकीय संत्रास में लिप्त आरम्भ हुआ था और उत्साह के साथ समाप्त हो रहा है।
सभी मित्रों को एक बार पुनः नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
2024
2023
- टीवी सीरियलों में गाली-गलौज सामान्य क्यों?
- समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन?
- क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?
- क्या आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय है?
- दर्पण में मेरा अपना चेहरा
- मुर्गी पहले कि अंडा
- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित…
- जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ
- संभावना में ही भविष्य निहित है
- ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही
- प्रवासी लेखक और असमंजस के बादल
- वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
- कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती
- मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है
- मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी सिनेमा
- पेड़ की मृत्यु का तर्पण
- कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
- कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित ‘साहित्यिक’ मजमेबाज़ी
- गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ?
- मेरे पाँच पड़ोसी
- हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ
- गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता
- आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने…
- अरुण बर्मन नहीं रहे
2022
- अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही…
- आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ हैं!
- हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट…
- देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता
- भारत में प्रकाशन अभी पाषाण युग में
- बहस: एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म
- हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद का महत्त्व
- आपके सपनों की भाषा ही जीवित रहती है
- पेड़ कटने का संताप
- सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान
- अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
- बात शायद दृष्टिकोण की है
- साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!
- राजनीति और साहित्य
- कितने समान हैं हम!
- ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना के घोडे़
- भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी . . .!
- कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन
- बसंत अब लौट भी आओ
- अजीब था आज का दिन!
- कैनेडा में सर्दी की एक सुबह
- इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री
- नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प
- क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?
2021
- आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण रचनाओं की
- नींव नहीं बदली जाती
- सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी साहित्य में महत्व
- क्या इसकी आवश्यकता है?
- धैर्य की कसौटी
- दशहरे और दीवाली की यादें
- हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ
- विमर्शों की उलझी राहें
- रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट या सोशल मीडिया के मंच?
- सामान्य के बदलते स्वरूप
- लेखक की स्वतन्त्रता
- साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के साहित्य जगत में एक ख़ालीपन
- मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है
- शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा
- साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ
- कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य
- समीक्षक और सम्पादक
- आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास की और संगठित होने…
- अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही…
- राजनीति और साहित्य का दायित्व
- फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य की पुस्तकें क्यों…
- स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी
- सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’ फ़िल्म
2020
- यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता
- क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल का सूर्य
- शोषित कौन और शोषक कौन?
- पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण
- साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप समूह आरम्भ
- साहित्य का यक्ष प्रश्न – आदर्श का आदर्श क्या है?
- साहित्य का राजनैतिक दायित्व
- केवल अच्छा विचार और अच्छी अभिव्यक्ति पर्याप्त नहीं
- यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी!
- हिन्दी साहित्य को भविष्य में ले जाने वाले सक्षम कंधे
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 2
- पहले मुर्गी या अण्डा?
- कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 1
- लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी और संरक्षक
- यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने की भूख का सकारात्मक पक्ष
- एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा
- अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग
- आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं
- हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक
- लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत लौटना
- वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम और गुरु अर्जुन देव जी…
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- काठ की हाँड़ी केवल एक बार ही चढ़ती है
2019
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- कितना मीठा है यह अहसास
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
2018
2017
2016
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- लघुकथा की त्रासदी
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- मेरी प्राथमिकतायें
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- भाषा में शिष्टता
- साहित्य का व्यवसाय
- उलझे से विचार
मधु 2022/01/02 09:31 PM
आदरणीय घई जी, नव वर्ष की आप व आपके साहित्य कुंज के सभी प्रेमियों को हार्दिक शुभकामनाएँ। मुझे आप द्वारा नव वर्ष के लिए सुझाये गये संकल्प अति उत्तम लगे। मैं इस बात की आपको पूरी छूट देती हूँ कि मेरी आगामी रचनाओं में यदि आपको तीन से अधिक अशुद्धियाँ मिलें तो उन्हें चिह्नित कर प्रकाशित कर दें। ताकि भविष्य में वर्तनी और व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध लिखने में पुन: असावधानी बर्तने की धृष्टता न कर सकूँ।