प्रिय मित्रो,
पिछले कुछ दिनों से यू-ट्यूब पर ‘अंदाज़े-ए-बयाँ‘ संस्था के उर्दू मुशायरे सुन रहा हूँ। वास्तव में उर्दू शायरी सुनने का शौक मुझे अपने पापा और ताया जी से विरासत में मिला है। मेरे ताया जी रेलवे में थे अक़्सर उनका लुधियाना आना होता। जब भी उनका दो-तीन घंटे से अधिक का ‘रेस्ट‘ होता तो वह हम लोगों से मिलने घर आ जाते। उन दिनों मोबाइल फोन तो होते नहीं थे, बस, समय है तो लोग आ जाया करते थे और फिर भाग-दौड़ आरम्भ होती थी आवभगत की। परन्तु ताया जी अपना प्रबन्ध अपने साथ करके लाते। अगर चाय का समय होता तो गली के सिरे पर दुर्गे हलवाई से ख़रीदे समोसे और बर्फ़ी का लिफ़ाफ़ा उनके हाथ में होता और अगर दोपहर के खाने के समय पहुँचते तो फलों का लिफ़ाफ़ा होता। दहलीज़ लाँघने से पहले वह रुकते और अगर पापा जी दिखाई देते तो वह मुस्कुराते हुए कोई शे’अर बोलते, जबाव भी पापा किसी शे’अर में देते और फिर हँसी का दौर आरम्भ होता।
पापा जी को मैंने कभी कोई पुस्तक पढ़ते नहीं देखा, हाँ उर्दू का अख़बार वह नियमित तौर पर पढ़ते थे। शायद बचपन में जो उर्दू साहित्य का शौक़ उनमें जगा था उसकी संतुष्टि अख़बार में छपे उर्दू साहित्य से करते थे। एक बार मैंने उनसे पूछा भी था कि क्या आपने कभी लिखने का प्रयास नहीं किया? उनका उत्तर था, “नहीं, मैंने तो कभी नहीं लिखा पर दविन्दर (ताया जी) लिखता था।” पापा जी पाँच भाई थे और उन भाइयों की प्रथा थी कि एक भाई को छोड़ कर बाक़ी बड़े भाइयों को भ्राजी कहा जाता था। मैंने उन्हें फिर पूछा कि अब भी लिखते हैं क्या? तब उन्होंने एक रोचक घटना बतायी।
ताया जी ने जैसे ही लिखना-पढ़ना सीखा उन्होंने उर्दू में नज़्में लिखनी आरम्भ कर दीं थीं। उन दिनों पंजाब की अधिकारिक भाषा उर्दू ही थी, हिन्दी केवल “धर्म शिक्षा” के पीरियड में पढ़ाई जाती थी। मेरे दादा जी पंजाब में खन्ना मंडी में रहते थे। शाम के खाने के बाद, मुख्य बाज़ार में लालटेन की रोशनी में एक दुकान के थड़े पर लोग इकट्ठे होते। स्वतन्त्रता संग्राम के समाचार सुनाए जाते, भाषण होते और देशभक्ति की नज़्में और ग़ज़लें पढ़ी और सुनी जातीं। स्वतन्त्रता संग्राम से खन्ना मंडी का गहरा सम्बन्ध था। लाला लाजपत राय खन्ना से ही थे। उनकी हवेली आढ़त बाज़ार में स्थित थी। पापा ने बताया, कि ताया जी ने भी वहाँ जाना आरम्भ कर दिया था और दादा जी ने उन्हें कभी रोका नहीं। वह शायद किशोरावस्था में होंगे कि एक दिन दादा जी मिलने थानेदार घर आया। उसने दादा जी से बहुत विनम्रता से कहा, “लाला जी, दविन्दर को शाम में बाज़ार जाने से रोकिए। यह वहाँ खड़ा होकर नज़्में सुनाता है और वाहवाही बटोरता है। पुलिस की नज़र में बच्चा चढ़ने लगा है।”
उसके बाद दादा जी ने ताया जी जाने नहीं दिया और ताया जी ने लिखना छोड़ दिया।
इस बार के साहित्य कुञ्ज के अंक में तेजपाल सिंह ‘तेज’ जी का एक महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुआ है, ‘साहित्य और मानवाधिकार के प्रश्न’। लेख की जो भी परोक्ष विचारधारा है आप उससे सहमत हों या न हों यह आपकी अपनी विचारधारा पर निर्भर करता है, परन्तु कुछ शब्द इस आलेख में ऐसे लिखे गए हैं जिनका न तो आप खंडन कर सकते हैं और न ही उन्हें ग़लत कह सकते हैं। वह लिखते हैं, “साहित्य का मूल बोध व्यक्ति को अनुप्रामाणित और अनुशासित करता है तथा साहित्य में मानव अधिकारों का परिलक्षित होना साहित्य को तो संस्कारित ही नहीं करता अपितु साहित्य को मानव के और अधिक क़रीब लाने की भूमिका निभाता है।”
इस वाक्य में जो शब्द मुझे सबसे अधिक प्रभावित कर रहा है और मेरे मन में एक आंदोलन जगा रहा है वह है, “संस्कारित” साहित्य समाज को संस्कारित करता है। यह एक सार्वभौमिक प्रमाणित तथ्य है। पहले तो केवल लिखित साहित्य ही था बाद में रंगमंच भी साहित्य के प्रसार का साधन बना। इस काल खण्ड में साहित्य के सम्प्रेषण के विविध साधन हैं। हम जो लेखक हैं या साहित्य प्रेमी हैं इन सभी साधनों में से एक या अनेक से जुड़े हुए हैं। साधन चाहे जो भी हो, साहित्य का सामाजिक दायित्व वही रहता है। संस्कारों को एक पीढ़ी से दूसरी तक ले जाना ।
जो आंदोलन मेरे हृदय चल रहा है वह इन्हीं कुछ घटनाओं से पैदा हुआ है। अंदाज़-ए-बयाँ के किसी भी मुशायरे में मैंने एक भी शायर को कोई चुटकुले सुनाते नहीं देखा। खन्ना मंडी के बाज़ार में, दुकान के थड़े पर जो कहा, सुनाया जा रहा था, वह भी पवित्र आन्दोलन था। जहाँ उन चुटकुलों और भद्दे वक्तव्यों की कहीं कोई जगह न थी जो कि आजकल हिन्दी के कवि सम्मेलनों में सुनाए जाते हैं। संचालक के द्विअर्थी सम्वाद, विशेषकर कवियत्रियों के साथ, पूरे साहित्य को कलंकित करने के समान हैं। अगर आप “स्टैंड अप कॉमिक” हैं तो आप उस कला को निखारें। अपने मौलिक चुटकुले लिखें। कवि सम्मेलनों के कवियों की तरह मत करें कि सोशल मीडिया से उठाए गए चुटकुले सुनाएँ जो सभी ने सुन रखे हैं। शिकायत तो मुझे स्टैंड अप कॉमिक्स से भी है जिन्होंने यह विधा पश्चिम की नक़ल से आरम्भ की है। जब मैं सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में कैनेडा पहुँचा था तो इन कॉमिक्स की भाषा अश्लील नहीं होती थी। इनके प्रोग्राम हम टीवी पर परिवार के साथ बैठ कर देखा-सुना करते थे। अश्लील भाषा वाले कॉमिक नाइट क्ल्बों और शराबख़ानों तक ही सीमित थे। उन्हें मुख्यधारा का कॉमिक नहीं माना जाता था।
मुझे याद रहा है एक शो जो मैंने टीवी पर देखा था। उस समय एक वरिष्ठ कॉमिक था जिसका मंचीय नाम था “रैड बट्न्स”। उसने एक घंटे तक श्रोताओं का मनोरंजन किया। और अंत में उसने विशेष रूप से कहा कि आपने मुझे एक घंटा सुना, परन्तु आपने मेरे मुँह से एक भी गाली या कोई अश्लील भाषा नहीं सुनी। लोगों ने खड़े होकर करतल ध्वनि से उसका अभिनंदन किया।
वर्तमान के स्टैंड अप कॉमिक्स का यह साहित्यिक दिवालियापन है या उनकी सोच और शब्दावली इतनी बौनी हो चुकी है कि वह अश्लील संदर्भों के बिना कुछ कह ही नहीं पाते। उसका बुरा परिणाम सीधा समाज के संस्कारों पर पड़ता है। जब टीवी या मोबाइल पर बच्चे इन कार्यक्रमों को अपनी भाषा में सुनते हैं, वह इसे बोल-चाल की भाषा मान लेते हैं। इन गालियों के पैदा होने वाली घृणा के अभ्यस्त हो जाते हैं। इससे संस्कारों की मृत्यु हो जाती है।
कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित साहित्यिक मजमेबाज़ी से हमें बचना होगा। ताली केवल तभी बजाएँ, जब सुनाई जा रही रचना आपको प्रभावित करे और आपका हृदय तरंगित हो उठे।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
Usha Bansal 2023/04/21 02:39 PM
आपने मेरे मन की बात लिख दी। गाली गलौज मंच से सिनेमा तक पसर गई है जिसने सलनायक को नायक पर , गंदीबात को सही बात , भैंस को चराये कह कर अश्लील गाने व नाच न करने वालों को गरीब चरवाहों पर कटाक्ष कर लोगों को संस्कारहीनता की ओर धकेला है । लडकियों पर कसी जाने वाली फब्तियाँ, बलातकार इसकी ही उपज है। समाज व राष्ट्र के हित को भुला कर ऐयाशी व चकाचौंध परोसना मानवीय गुणों की जड पर प्रहार है। आपका संम्पादकीय बहुत कुछ सोचने को उद्वेलित करता है । यह भ्रष्टाचार यूं हीं नही पनपा है , बहुत से साहित्य चुटकलों व दूर्दशन ने इसे प्रसारित किया है । सोर्स राम की महिमा जैसी कहानियों ने सोर्स को महिमामंडित किया है।
महेश रौतेला 2023/04/18 09:43 AM
आपने सही कहा है।अश्लीलता साहित्य और मनुष्य के व्यक्तित्व का नाश करती है।
सुमन कुमार घई 2023/04/15 03:03 PM
आदरणीय राजेन्द्र जी, आपने सही कहा। हमारा अधिकतर लेखन व्यक्तिगत अनुभवों और उनसे जनित संवेदनाओं पर ही आधारित होता है। क्योंकि जीवन का अधिकांश हिस्सा विदेश, यानी कैनेडा में बिताया है इसलिए मेरे लेखन, विशेषकर कहानियों मेरे व्यस्क जीवन के अनुभव दिखाई देते हैं। जब भारत के साहित्यिक संसार की बात करता हूँ तो यह स्वाभाविक है कि उम्र के जो बीस वर्ष वहाँ बिताए हैं, वह भी याद आने लगते हैं। पैदा अम्बाला में हुआ। चार वर्ष खन्ना मंडी रहा, और बाक़ी समय लुधियाना में।
Rajender Verma 2023/04/15 10:30 AM
संपादकीय टिप्पणी हर बार पढ़ता हूं किंतु प्रतिक्रिया पहली बार दे रहा हूं। वैसे प्रतिक्रिया कहना भी गलत होगा। आप अपनी टिप्पणी में अनेक बार पंजाब और भारतवर्ष पहुंच जाते हैं। यही आपके लेखन और क्रियाशीलता के लिए कदाचित खाद पानी है। अनन्त शुभकामनाएं!
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Sarojini Pandey 2023/04/25 05:11 PM
आदरणीय संपादक महोदय, किसी भी पात्र से वही वस्तु निकाली जा सकती है जो उसमें भरी गई हो। रंगमंच से अथवा दूरदर्शन के भिन्न-भिन्न चैनलों या यूट्यूब पर अपनी कविताएं सुनाने वाले कितने कवियों ने श्रेष्ठ कवियों को पढ़ा होगा ,यह उनकी रचनाओं से समझा जा सकता है। आजकल के विदूषक और कवि सस्ता सड़क छाप साहित्य पढ़कर बड़े हुए हैं और वे वैसी ही अभद्र भाषा में और अनर्गल विषयों पर पढ़ते और सुनाते हैं। आजकल यह भी चलन है कि अभद्र भाषा वास्तविकता के अधिक निकट होती है। जैसा साहित्य पढ़ा जाता है समाज वैसा बनता है और जैसा समाज होता है वैसा ही साहित्य पढ़ा जाता है। यह संभवत सनातन सत्य है उसको बदलना बहुत कठिन है हां प्रयत्न होता रहना चाहिए।