आज कैनेडा में ’हैलोइन’ का त्योहार है। इस त्योहार की कोई धार्मिक महत्ता नहीं है, बल्कि ईसाई धर्म के कुछ मतों में तो इसे मनाने से मना किया जाता है। उन मतों के अनुसार यह त्योहार पुरातन अन्धविश्वासों पर आधारित है जिन्हें ईसाई धर्म ने तोड़ने की चेष्टा की। विडम्बना है कि आज भी यह त्योहार मनाया जाता है। यह सत्य है कि समय के साथ प्रथाएँ बदलती रहतीं हैं; ऐसा ही इस त्योहार के साथ भी हुआ है। ईसापूर्व समय में लोग इकट्ठे होकर आग जला कर उसके आसपास विभिन्न पोषाकें पहन कर एकत्रित होते थे ताकि भूत-प्रेत उन पोषाकों से भयभीत होकर भाग जाएँ। आग जलाने की प्रथा तो समाप्त हो गई, भूत-प्रेत भी भाग गए परन्तु त्योहार बचा रहा।
मुख्य रूप से यह त्योहार बच्चों का है। शाम के समय बच्चे विभिन्न पोषाकें, मुखौटे और मेक-अप करके हाथ में बैग लिए द्वार-द्वार जाकर कैंडी माँगते हैं। कुछ-कुछ पंजाब में लोहड़ी से मिलता-जुलता भी लगता है। पंजाब में बच्चे लोहड़ी गाते हुए रेवड़ियाँ इत्यादि माँगते हैं और रात को लोहड़ी जलाने के लिए लकड़ी और उपले इकट्ठे करते हैं। यहाँ बच्चे दरवाज़ा खोलने वाले से पूछते हैं - “ट्रिक और ट्रीट”? यानी क्या हम आपके साथ कोई ट्रिक करें या आप हमें कैंडी की ट्रीट दोगे?
व्यस्क भी पीछे नहीं रहते। वह अपने मित्रों के साथ विभिन्न पोषाकें पहन कर पार्टी करते हैं, दूसरे शब्दों में अपने बीते बचपन को फिर से जीने का प्रयास करते हैं।
इस त्योहार में एक अड़चन का अंदेशा सदा बना रहता है। कैनेडा में यह पतझड़ की ऋतु है - यानी इस ऋतु के पश्चात जाड़ा नुक्कड़ पर खड़ा है। बदलती ऋतु में वर्षा के होने की सम्भावना बनी रहती है और बच्चे भगवान से मनाते रहते हैं कि कम से कम संध्या को तो बारिश न हो। क्योंकि कैंडी माँगने का समय अँधेरा होने पर शुरू होता है। ठंडी, गीली हवा में न तो कैंडी माँगने का मज़ा रहता है और न ही पोषाक प्रदर्शन का।
यहाँ पतझड़ की ऋतु एक ओर तो प्रकृति के विविध रंगों की छटा की ऋतु है दूसरी ओर ठंडी हवाओं की और अनचाही बरसातों की ऋतु है। ग्रीष्म ऋतु में वर्षा का स्वागत होता है और इस ऋतु में इसे सहने की विवशता होती है। पत्तों के बदलते रंग रुपहली धूप में वर्षा की यादों को अपने रंगों की चमक से धुँधला कर देते हैं। हरे, पीले, सिंदूरी, भूरे और लगभग जामनी पत्ते वातावरण में भी रंग भर देते हैं। मेपल के पीले पत्तों से झरती हुई धूप का प्रकाश भी पीला हो जाता है। कल युवान (मेरा पौत्र) ने अपनी होश में पहली बार पिछले आँगन में मेपल से झरते पीले पत्ते देखे। विस्मय भरी प्रसन्नता, और एक मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर गई। और वह अपनी नन्ही-नन्हीं बाँहें फैला प्रकृति के इस रंगीले उपहार को समेटने के लिए भागने लगा। परन्तु बार-बार अटक जाता - सूझता ही नहीं था कि भागे तो किस ओर? चारों दिशाओं से पेड़ से पीत-पातों की वर्षा हो रही थी। मैं पीछे खड़ा प्रकृति की सजीव सुन्दरता का दूर से आनन्द लेता रहा।
संध्या होते-होते वर्षा के आगमन का संदेश हवा के तीव्र झोंके सुनाने लगे थे। सुबह उठा तो घास और उस पर झरे भीगे पत्तों ने एक चादर बिछा दी थी। पतझड़ में वर्षा कितनी उदास होती है! जो रंगीन पत्ते कल हवा में लहलहाते हुए रंग बिखेर रहे थे, आज गीले रंगीन कपड़े की चिंदियों की तरह शाखाओं से लटक रहे हैं। कल फिर एक नई सुबह होगी - सूर्य देवता अपनी प्रखर उष्मता से फिर से हवा में रंग भर देंगे। परन्तु. . . हैलोइन के बच्चे तो पुनः नहीं आ पाएँगे. . . उनकी आज की उदासी क्या कल छँट जाएगी? पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों होती है? कम से कम एक दिन का अवकाश तो ले ही सकती है हैलोइन के लिए!
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