प्रिय मित्रो,
कल रात एक अंग्रेज़ी की पुरानी फ़िल्म देख रहा था ‘रनअवे ब्राइड’। इस चलचित्र के नायक रिचर्ड गियर थे और नायिका थीं जुलिया रॉबर्ट्स। पटकथा लिखी थी सारा पारिऑट और जोसैन मक्गिबन ने। फ़िल्म के नायक रिचर्ड गियर एक समाचार पत्र के स्तम्भ लेखक हैं, जिनके स्तम्भ अधिक सोचे-समझे नहीं होते इसलिए किसी भी विषय पर अंतिम घंटों में लिख डालते हैं। कई बार उनके विषय विवादस्पद भी हो जाते हैं। यहीं से रोचक कहानी आरम्भ होती है। रिचर्ड गियर के पात्र की स्तम्भ लेखन प्रक्रिया में मुझे अपना प्रतिबिम्ब दिखाई दिया। मेरे सम्पादकीय भी कोई सोचे-समझे नहीं होते, विवादस्पद अगर होते भी हों, कोई मुझे बताता नहीं। बस एक बार किसी ने प्रतिक्रिया में दबे स्वरों में लिखा था कि सम्पादकीय में मैं अपने अनुभव ही क्यों लिखता हूँ?
आज अक्तूबर के प्रथम अंक की सभी रचनाओं को अपलोड करने के बाद, सम्पादकीय के बारे में सोचना आरम्भ किया तो रात की फ़िल्म याद आई। पटकथा में एक स्तम्भ लिखने से लेखक का जीवन उलट-पुलट हो जाता है। ख़ैर, वास्तविकता और नाटकीयता में अन्तर तो होता ही है। अब, जब लिख रहा हूँ तो एक-एक करके कई प्रश्न आँखों के आगे नाच रहे हैं। संभवतः इस सम्पादकीय के अंत तक पहुँचते हुए उन प्रश्नों को और उनके उत्तरों को समझ पाऊँ।
कहा जाता है कि सम्पादकीय में सम्पादक को अपने दिल की बात कहने पूर्ण अधिकार होता है। क्या यह वास्तव में ऐसा ही होता है? क्या सम्पादकीय में प्रकाशक का या पत्र-पत्रिका के मालिकों का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है? कई बार सुनने में आता है कि समाचार का व्यापार करने वाले प्रतिदिन सुबह मीटिंग में तय करते हैं कि आज कौन-से समाचार को उछाला जाएगा और कौन-से समाचार को दबाया जाएगा। ऐसी नीति के चलते सम्पादकीय कैसे अछूता रह सकता है। कहने को तो आदर्श परिस्थितियों में पत्रकारिता से निष्पक्ष होने की आशा रखी जाती है परन्तु अगर समाचार के व्यापारी अपने विज्ञापनदाताओं को प्रसन्न करने के लिए समाचारों का चयन करें या उसका झुकाव बदल दें तो कहाँ की निष्पक्षता और कहाँ का आदर्शवाद! ऐसी व्यवस्था में सम्पादकीय से लेकर समाचार पत्रों की दिशा का निर्णय तो व्यापार करता है।
अब बात करते हैं साहित्यिक पत्रिकाओं की। मेरा मानना है कि प्रत्येक पत्रिका अपने पाठकवर्ग की रुचियों का ध्यान रखते हुए रचनाओं का चयन करती है। किसी-किसी पत्रिका का सम्पादन इतना कुशल होता है कि पाठकवर्ग की रुचियों में परिवर्तन लाने का प्रयास भी किया जाता है। और कुछ पत्रिकाएँ किसी विमर्श का झण्डा इतना कस कर पकड़े रहती हैं कि उन पत्रिकाओं में विमर्श विशेष की संकीर्ण विचारधारा का वहन करने वाली रचना ही स्थान पा सकती है। इन पत्रिकाओं का सम्पादकीय भी उसी विचारधारा का ही प्रचार प्रसार करता है। ऐसी पत्रिकाएँ कम से कम एक तरह से ईमानदार होती हैं कि विज्ञापनदाताओं की अपेक्षा यह चन्दे पर निर्भर रहती हैं और अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करतीं।
फ़िल्म में रिचर्ड गियर के स्तम्भ पर नारी पाठकों की प्रतिक्रिया के कारण उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। देखिए यहाँ पर पत्रकारिता की स्वतन्त्रता की धज्जियाँ तो उड़ ही गईं। ऐसा तो वास्तविक जीवन में भी होता है। कुछ नारी उद्धार के एनजीओ ऐसा आन्दोलन खड़ा कर देते हैं कि पत्रकारिता को भी झुकना पड़ता है। परन्तु अगर नारियों की दृष्टि से देखें तो उनकी प्रतिक्रिया भी तो मायने रखती है; नहीं तो कोई भी लेखक कुछ भी लिखता रहे। लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जाती रही, दूसरी ओर अगर लेखक ने सामाजिक मान्यताओं का अतिक्रमण किया तो नारी वर्ग की मान्यताओं का हनन तो हुआ ही। स्वतन्त्रता कभी भी पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं होती।
लिखते हुए फिर कहीं से कहीं बह गया।
मैंने इस पात्र में अपना प्रतिबिम्ब क्यों देखा? मैं अपने सम्पादकीय पूरी ईमानदारी से लिखता हूँ। राजनीति और धार्मिक विवादों से किनारा इसलिए करता हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि राजनीति और धार्मिक आस्था व्यक्तिगत होती है। अपने पद का लाभ उठाते हुए मुझे इसका ऐसा प्रदर्शन नहीं करना चाहिए जो किसी को भी असहज अनुभव करने पर विवश कर दे। प्रश्न यह भी है कि अगर कोई आपकी राजनैतिक विचारधारा, धार्मिक आस्था पर आक्रमण करे तो आप कब तक चुप रहेंगे? सोशल मीडिया के चलते आजकल की परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गई हैं कि अगर आप अपनी धार्मिक आस्था का थोड़ा-सा भी प्रदर्शन कर दें तो वैश्विक स्तर पर विरोध होना आरम्भ हो जाता है।
जिस तरह चलचित्र के नायक के पास स्तम्भ लिखने के बाद इतना समय बचता ही नहीं है कि उसे एक बार फिर से पढ़ भी सके। इसीलिए उसके लेखन में उसके विचार शुद्ध होते हैं, उन पर “पोलिटिक्ल करेक्टनेस” का आवरण नहीं चढ़ा होता है। वही हाल मेरे सम्पादकीय का होता है। कई बार विचार आता है कि मैं भी विद्वानों की तरह उक्तियों का प्रयोग करते हुए ऐसी गरिष्ठ भाषा में सम्पादकीय लिखूँ कि आम पाठक को तो शब्दकोश देखना ही पड़ जाए। यह कुछ ऐसा ही हुआ कि मैं अपने सीधे-सादे व्यक्तित्व पर एक सुनहरा आवरण ओढ़ लूँ और मुझे दर्पण में मेरा अपना चेहरा ही दिखाई न दे।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
Hemant Kumar Sharma 2023/10/01 07:54 PM
देखने,सुनने समझने के बाद अपनी अभिव्यक्ति थोड़े समय में कल्पना में गुंथ कर प्रस्तुत करना आसान कार्य नहीं है। शब्दों का जमघट सबके सम्मुख मन को घेरे रहता है। उसमें से जो चुन कर निर्माण होता है कई बार स्वयं को ही आश्चर्य में डाल देता है। क्रिकेट मैच के अन्तिम ओवर में विजय की तरह। और राजनैतिक दूरी का सवाल है वह सब साहित्यकारों के लिए उचित है। राजनैतिक और धार्मिक आस्था को व्यक्तिगत कह कर साहित्यकारों को सचेत कर दिया है कि वैमनस्य के वश हो कृतित्व ना करें । संपादक के लिए एक रैफरी की तरह कार्य करना और बड़ा कर्तव्य हो गया जो आपके शब्दों से व्यक्त होता है। लिखना तो बहुत कुछ है पर --उम्दा और कम समय में लिखे सारगर्भित लेख पर कुछ पंक्तियां हैं -परदा कितना अक्स पे,पर नजर वाक़ी है।-----हेमन्त
Anima Das 2023/10/01 06:57 AM
अत्यंत संवेदनशील.... सर
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मधु शर्मा 2023/10/01 10:50 PM
इस अंक का सम्पादकीय पढ़ते हुए मैं सोचने पर विवश हो गई कि मैं, जो हर पत्रिका का सम्पादकीय देखकर भी सदैव अनदेखा कर दिया करती थी, तो साहित्य-कुन्ज के प्रकाशित होते ही सर्वप्रथम सम्पादकीय ही क्यों पढ़ती हूँ? वह इसीलिए कि प्रत्येक प्रसंग नयी व रुचिकर जानकारी प्रदान करता हुआ, सादा परन्तु गहन सोच से ओतप्रोत होता है। और फिर प्रतिदिन सैंकड़ों लेखकों द्वारा भेजी गईं विभिन्न-विभिन्न रचनाओं की छाँट-काट कर अगले अंक के लिए समय पर सम्पादक जी द्वारा उसका फ़ोल्डर तैयार करना...मुझे तो उनके अथक परिश्रम का सोचते ही सिहरन सी उठती है। सम्पादक जी पुनः ढेरों बधाई के पात्र हैं। साधुवाद!