प्रिय मित्रो,
अभी नए वर्ष की शुभकामना संदेश थमे भी नहीं थे कि जनवरी के दो सप्ताह बीत गए। मकर सक्रांति की आप सभी को शुभकामनाएँ!
इन दिनों मैं कैनेडा की अपेक्षा भारत की राजनीति में अधिक रुचि ले रहा हूँ, यद्यपि मैं सदा से स्थानीय राजनीति में भाग लेने का अधिक पक्षधर रहा हूँ। मैं सोचता हूँ कि हम जिस समाज में जी रहे हैं, कार्यरत हैं, या जिस समाज में करों की भरपाई कर रहे हैं, वहाँ पर अपने अधिकारों के प्रति सजग रहना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। अधिकतर प्रवासी भारतीय कैनेडा की राजनीति की अपेक्षा भारत की राजनीति में अधिक रुचि लेते हैं। मैं समझता हूँ कि प्रवासियों के दैनिक जीवन पर और उनकी भावी पीढ़ियों पर सीधा प्रभाव स्थानीय राजनीति का होता है। अगर प्रवासी अपने हितों की रक्षा के लिए अपने अधिकारों का प्रयोग समझदारी से नहीं करता तो निश्चय ही वह स्थानीय समाज के हाशिए पर धकेल दिया जाता है। गत दिनों में कैनेडा में यह प्रत्यक्ष रूप से देखने में आया। अब स्थानीय राजनीति करवट ले रही है इसलिए हमारा दायित्व हो जाता है कि हम सही अवसर आने पर अपने मत का प्रयोग सुविचारित ढंग से करें।
ऐसा भी नहीं है कि मैं भारत से दूर होता जा रहा हूँ, बल्कि इंटरनेट ने प्रवासियों को अपनी मातृभूमि से दूरी के प्रभाव से मुक्त कर दिया है। विदेश में रहते हुए भी हम लोग भारत में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों से परिचित रह सकते हैं। चाहे कुंभ के मेले की धूम हो या दिल्ली के चुनाव की उठा-पटक हो, या इसरो के द्वारा अंतरिक्ष में अन्वेषण के प्रयास—प्रवासी भारतीय सुविज्ञ हो सकता है। एक साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन और सम्पादन के लिए यह ज्ञान केवल महत्त्वपूर्ण ही नहीं बल्कि अनिवार्य होना चाहिए। कारण स्पष्ट है, यह स्थापित तथ्य है कि हर काल और देश में लेखक की कृतियों में समाज प्रतिबिम्बित होता है और उसका लेखन समाज को प्रभावित करता है। अकेला लेखन ही कभी क्रान्ति लाने में सक्षम तो नहीं होता परन्तु क्रान्ति के लिए भूमि अवश्य तैयार कर सकता है।
उपर्युक्त विचारों की पृष्ठभूमि को भी मुझे इस पटल पर रखना चाहिए। मैं देख रहा हूँ कि भारत की राजनीति इस समय दो ध्रुवों में बँट चुकी है। शासन और प्रतिपक्ष की विचारधारा को देखते हुए लग रहा है कि कोई मध्यमार्ग है ही नहीं। शासन स्पष्ट रूप से भारतीय समाज के बहुपक्ष के अधिकारों की रक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो चुका है। प्रतिपक्ष इसे इसलिए समझ नहीं पा रहा क्योंकि अभी तक भारतीय बहुमत की भावनाओं और अधिकारों को उनके द्वारा अनदेखा किया गया। अब जब बहुमत अपने अधिकारों का प्रवर्तन करना चाहता है तो यह पुरानी सत्ता की समझ से परे की बात हो जाती है। सीधी सी बात है, मामला वोटों का है। आगे सनातन समाज बँटा हुआ था, अब वह इस विभाजन की खाई को पाटता नज़र आ रहा है। एक सुचारु समाज के लिए अनिवार्य है कि शक्तिमान घटक अपनी शक्ति का अनुचित प्रयोग न करे। परन्तु उसके अधिकारों का जो ऐतिहासिक हनन होता रहा है, उसके प्रति वह सचेत क्यों न हो? ऐसा भी तो नहीं हो सकता कि बहुमत अपने अधिकारों के प्रति सचेत भी हो और वह परिस्थितियों को ज्यों का त्यों भी रहने दे। यह न्यायसंगत और तर्कसंगत है कि वह अपनी खोई हुए सामाजिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करे।
इस बदलती व्यवस्था को सही दिशा देने के लिए सामाजिक नेताओं को बागडोर सँभालनी होगी। क्या ऐसा हो सकेगा? यह एक मनन का विषय है।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
Anima Das 2025/01/16 06:04 AM
आपके विचार और व्यथा.. दोनों ही यथार्थ है। परिवर्तन आना आवश्यकत है। सनातनी संस्कृति को ध्वस्त करने में सभीने शक्ति लगाई है। अब भारतीयों को जागरूक हो जाना चाहिए। देश से दूर होते हुए भी देश को आत्मा से लगाए रखा है आपने सर। परंतु यहाँ यह क्यों नहीं हो पा रहा?
shaily 2025/01/15 01:55 PM
सही कहा आपने, क्या सनातन सब कुछ जानते हुए यथास्थिति स्वीकार करेगा? आप कैनेडा में रहते हुए क्या कुछ देख रहे हैं यहां का विपक्ष उसे देखने में असमर्थ है। तुष्टिकरण की राजनीति एक अल्पसंख्यक वर्ग तक सिमट कर रह गई, बहुसंख्यक चुप रहे ये उनकी असमर्थता थी या जानकारी का अभाव? लेकिन सब होता रहा, संविधान के साथ खिलवाड़, 42वाँ संशोधन, सेकुलर बनाया जाना... सब सहते रहे। शायद आत्मविश्वास को छीन लिया गया था और सब अंजान रहे। ट्रुडो समझ गए, भारतीय (?) कब समझेंगे?
सरोजिनी पाण्डेय 2025/01/15 12:58 PM
आदरणीय संपादक महोदय आपके इस अमूल्य सुझाव के लिए आप बधाई के पात्र हैं। मेरा यह मानना है कि इन दोनों समाज को जागरूक करने का काम सोशल मीडिया बड़ी कुशलता से कर रहा है बस इसका दुरुपयोग ना हो यही प्रार्थना रहती है।
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राजनन्दन सिंह 2025/01/16 12:05 PM
संपादकीय की अंतिम पंक्तियाँ कई बार पढ़ने के बाद स्पष्ट हुई। शासन और प्रतिपक्ष दोनों की विचारधारा को देखते हुए, मध्यमार्ग के पूर्णतः अभाव की परिस्थितियाँ। शासन की कटिबध्दता और प्रतिपक्ष का आँखें बंद रखने की चतुराई भरी जिद। शक्तिमान घटक द्वारा शक्तियों का अनुचित प्रयोग। बहुमत द्वारा अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने अथवा परिस्थितियों को यथावत रखने का विरोधाभासी अंतर्द्वंद्व। और अंततः निष्कर्ष के रुप में सामाजिक नेताओं की आवश्यकता। यह एक गहन चिंतन का विषय है। भारतीय राजनीति में आजादी के बाद निरंतर यह परिस्थिति बनी हुई है। आज भी जारी है और संभवतः आगे भी निकट भविष्य में इतनी जल्दी इसका कोई उचित समाधान नजर नहीं आ रहा। भारतीय राजनीति के इतिहास में जहाँ तक मेरी नीजी जानकारी अथवा समझ है, सामाजिक नेताओं ने (जो कि वास्तव में सामाजिक नेता नहीं बल्कि शक्तिमान घटक से हीं छिटके हुए लोग थे, परंतु समाज का नेतृत्व करते हुए दिख रहे थे।) दो बार आजमा कर देख लिया है। बहुमत प्राप्ति के बाद भी वे उस न्याय व व्यवस्था को स्थापित करने में असफल रहे जिसके लिए वो लड़ रहे थे अथवा जिस सामाजिक न्याय का सपना वे समाज को दिखा रहे थे। सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र में सामान्य एवं स्वभाविक सी प्रक्रिया है। परंतु राजनीति व नेताओं का श्रेणी परिवर्तन निश्चित रुप से हीं कोई अच्छा संकेत नहीं है। भारतीय नेताओं में चाहे वे किसी भी दल के हों, सोंच शिक्षा, सामाजिकता, नैतिकता व दृढ़ता का स्तर गिरता जा रहा है। नेताओं का प्रभाव उसके जोड़ तोड़ की कुशलता व फंड जुटाने की क्षमता से तय हो रहा है। उनकी शिक्षा व प्रशासनिक योग्यता बस औपचारिक व अनुपयोगी साबित हो रही है। कभी आइसीएस परीक्षा पास बाबू सुभाषचंद्र बोस शीर्ष नेतृत्व कर रहे थे तो आज दर्जन भर आइएस रैंक प्राप्त नेताओं का नाम तक किसी को पता नहीं कि वे कौन हैं? कहाँ किस पार्टी में किसका थैला ढो रहे हैं। जो हमारे वैश्विक प्रतिद्वंद्वी एवं छुपे हुए शत्रु देशों के लिए भले हीं एक खुशी एवं सकून का विषय है। इसलिए वे कभी कभार हमारी प्रशंसा करके अपनी चतुराई से हमें और उसी ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करने के कुप्रयास से नहीं चुकते । परंतु ऐसी परिस्थिति भविष्य में भारत के लिए एक घोर चिंता का विषय है। समाजहित में उठने वाली समाज के आवाज का क्रय-विक्रय हो जा रहा है। जिसका क्रय-विक्रय संभव नहीं उसे दबा दिया जाता है। जिसे दबाना संभव नहीं उसे अपमानित किया जाता है। हमारे नेता राजनेता सहित समस्त राजनीतिक पार्टियाँ पूँजी का निर्भर दास बनने पर विवश है। तो ऐसे में सामाजिक नेता कहाँ से पैदा होंगे। इतना तो तय है कि वे किसी कुम्हार की चाक पर गढ़े नहीं जा सकते। सामाजिक नेताओं की पूर्ति के लिए संपादक जी की चिंता बिल्कुल उचित हीं है "क्या ऐसा हो सकेगा?" यह सचमुच मनन का विषय है।