प्रिय मित्रो,
आज सम्पादकीय लिखने में बहुत देर हो गई। प्रायः इस समय तक अंक अपलोड कर हटता हूँ, भारत में सुबह के 7:12 बज चुके हैं और अभी सम्पादकीय लिख रहा हूँ।
इस सप्ताह हुआ कुछ यूँ कि अपनी जवानी के दिनों में लौटना पड़ा। शायद आप ग़लत समझ रहे हैं या मैंने ठीक से कहा नहीं है। मैं फिर से सही कहने का प्रयास करता हूँ—जो दायित्व हम जवानी में निभाते हैं, वह दायित्व मैंने और मेरी धर्मपत्नी ने पिछले सप्ताह निभाए। हमारी छोटी बहू को अपने ऑफ़िस के काम से ब्रिटिश कोलम्बिया (कैनेडा का पश्चिमी तटवर्ती प्रान्त) जाना पड़ा। इसलिए अपने पोते, पोती को सम्भालने का दायित्व हमारा होना ही था। वैसे तो इसमें भी एक अलग ही आनन्द आता है। पोता युवान पहली कक्षा में है और पोती मायरा अभी डे-केयर में जाती है। हालाँकि मेरा बेटा भी हाथ बँटा रहा था परन्तु हम दोनों ने, एक तरह से, उसे हाशिए से बाहर कर दिया।
सुबह सात बजे से हमारी ड्यूटी आरम्भ हो जाती। बच्चों के नाश्ते से लेकर दोपहर का टिफ़िन पैक करके स्कूल और डे-केयर में छोड़ने की। शाम को बेटा मायरा को ले आता और युवान को मैं और मेरी पत्नी स्कूल से ले आते। रात के खाने के बाद बेटा मायरा को अपने साथ ले जाता और युवान हमारे पास ही रहता। यानी एक तरह से हमारी जवानी के दिन लौट आए। मेरे बेटे और बहुएँ भी तो यही करते हैं।
रात आते-आते हम दोनों ख़ूब थक जाते। मैं प्रायः सुबह साढ़े तीन उठता हूँ पर इन दिनों साढ़े पाँच से पहले नींद ही नहीं खुलती थी। जब तक कम्प्यूटर ऑन करके एक-दो रचनाओं को सँभालता, युवान आ खड़ा होता अपने प्रश्न लिए। दादू यह क्या लिख रहे हो? क्या आप मुझे हिन्दी पढ़ना सिखाओगे? यह क्या लिखा है? बोल कर सुनाओ। चलो, कोई गूगल गेम खेलते हैं। ऐसे में कंप्यूटर को बंद करना ही भला लगता।
आज मेरी बहू शाम को लौट आयी है। बच्चों को उसके पास छोड़ कर लौटते हुए शाम के साढ़े सात बज गए। खाना खाकर कम्प्यूटर लेकर ख़ाली स्क्रीन को ताक रहा था तो नीरा ने पूछा, क्या लिखोगे? मैं कहा कि लिख दूँगा कि व्यक्तिगत व्यस्तता के कारण इस बार सम्पादकीय नहीं लिख रहा। उसने कहा, “बात तो ठीक ही है, लिख दो बच्चों की देख-भाल करता रहा।” विचार मन को भा गया। जानता हूँ कि यह व्यक्तिगत अनुभव हैं शायद इस मंच पर साझे नहीं करने चाहिएँ, परन्तु यह भाव और अनुभव हर दादा-दादी, नाना-नानी के हैं। बात तो की जा सकती है। एक और विचार मन में आ रहा है, कि मेरे मम्मी पापा ने भी तो हमारे बेटों को पालने मैं ऐसे ही हाथ बँटाया है। मेरे पापा जब कैनेडा आए थे तो उनके शरीर का दायाँ हाथ और टाँग लकवे के कारण पूरी तरह सक्रिय नहीं थे। ऐसे में भी वह रोता बच्चा देख, कहते कि मुझे पकड़ा दो। उनके चेहरे के भाव अभी याद आते हैं। आनन्द से भरी मुस्कान, और बच्चों के कान में हौले-हौले बुदबुदाते हुए। बच्चा तुरंत चुप कर जाता और पलट कर उनके चेहरे की ओर देखने लगता। शायद वह भी वही कहते होंगे जो मैं अपनी मायरा या युवान के कान में कहता हूँ। मायरा की दंतुल मुस्कान और नाचती आँखों को देखते ही जीवन की थकावट न जाने कहाँ खो जाती है। यही इस बार का सम्पादकीय है।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
राजनन्दन सिंह 2024/03/05 08:23 AM
परिवार इस सृष्टि की एक कोशिका है। परिवारों का समूह हीं यह संसार है। इस संसार में पूर्ण परिवारिक जिम्मेवारियों के साथ सामंजस्यपूर्ण सफल जीवन जीना एक जीवन कला है। और जो कला है वह निश्चय हीं सुखदायी व सीखने योग्य है। इसे सीखा जाए तो यही साहित्य है। इसी में जीवन की सफलता है। युवान मायरा को बहुत बहुत हार्दिक स्नेह एवं अन्य सभी सदस्यों को सादर अभिवादन।
जितेन्द्र कुमार 2024/03/03 05:43 PM
नमस्ते सर, वास्तव में बहुत ही अच्छा लगा।
विजय विक्रान्त 2024/03/01 08:38 PM
बहुत सुन्दर सम्पादकीय सुमन जी। युवान और मायरा को बहुत बहुत प्यार देना।
महेश रौतेला 2024/03/01 08:07 PM
आपने मेरी नातिन की याद दिला दी जब वह 4 साल की थी और मैं उसके स्कूल के वार्षिक कार्यक्रम में गया था। "तीसरे खेल में संगीत बजता था और गेंद जल्दी-जल्दी अगले व्यक्ति को पास करनी थी, जहाँ पर संगीत बन्द होता था, उसे टोकरी से चिट निकालना था और उसमें लिखे गीत को गाना था, यदि गीत न आता हो तो अपने मन से कोई गीत या भजन गाना होता था। सभी ने पुराने गाने ही गाये या भजन। दो महिलाओं ने भजन गाया जिसका भाव था," हे कृष्ण तुम पृथ्वी पर आना, राधा को साथ में लाना। हे राम तुम धरती पर आना, सीता जी को साथ में लाना।" एक बुजुर्ग ने गाया," पल-पल दिल के पास, तुम रहती हो--।" दूसरे ने," याहू, चाहे तुम मुझे जंगली कहो---।" एक स्वर था," ओ मेरी जोहर जबीं, तुझे मालूम नहीं---। दूसरा स्वर था," रात बाकी, बात बाकी ---।" मेरा पास जब गेंद रूकी तो मैं असमंजस में पड़ गया कि क्या गाया जाय। फिर मुझे याद दिलायी गयी और स्वर निकले," हे, नील गगन के तले, धरती का प्यार पले, ऐसे ही जग में आती हैं सुबहें, ऐसे ही शाम ढले---।" फिर बगल से स्वर फूटा," कभी, कभी मेरे दिल में ख्याल आता है---।" और ," ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे---।" सब बहुत दूर निकल गये थे बचपन में।और कार्यक्रम का उद्देश्य भी यही था। अन्त में चार साल की लड़की ने गाया," आजकल तेरे-मेरे प्यार के चर्चे ,हर जबान पर---।" तो सभी बुजुर्ग ठहाका लगा कर हँसने लगे। इसके बाद ,राष्ट्रगान के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।" इतने में उसने डायरी वापिस माँगी। शाम होने को थी। रात को एक ही होटल में ठहरे। मैंने उससे पूछा," तुम्हें गाना आदि कुछ आता है।" वह बोली हाँ, गाऊँ।और गाने लगी," एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है। जिन्दगी और कुछ भी नहीं, मेरी तेरी कहानी है---।" अब भी जब आती है तो सोने के लिए हमारे बीच में घुस जाती है, सात साल की है।
भीकम सिंह 2024/03/01 07:35 PM
बहुत सुंदर लिखा, हार्दिक शुभकामनाऍं ।
अरुण कुमार प्रसाद 2024/03/01 12:51 PM
अच्छा है। दायित्व याद रहने चाहिए।
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मधु 2024/03/05 02:05 PM
प्रत्येक दाद-दादी व नाना-नानी की भावनाओं को उजागर करता हुआ सम्पादकीय। हम अपनी सन्तान के बड़े होने तक उनके प्रति प्रेम से अधिक उत्तरदायित्व निभाने में लगे रहते हैं, परन्तु नाते-नातिनों व पोते-पोतियों के लिए तो केवल प्रेम ही प्रेम उमड़ रहा होता है। कहावत भी तो है कि मूल से ज़्यादा ब्याज प्यारा होता है। साधुवाद।