प्रिय मित्रो,
किसी भी काल में सामान्य क्या होता है? कौन तय करता है कि क्या सामान्य है? या इसे कोई तय करता भी है या नहीं। मानव का सामर्थ्य समय की नदी में बहते तिनके की तरह है, क्या वह कह सकता है कि वह जो कर रहा है वह सामान्य है? हो सकता है कि जो वह अपनी बुद्धि के अनुसार कर रहा है– वह कर्म उसके लिए सामान्य हो। प्रश्न यह भी है कि क्या व्यक्तिगत सामान्य, सामाजिक सामान्य है? व्यक्ति समाज की इकाई है, यानी इकाई /अकेला है। तो क्या समाज द्वारा सामूहिक स्वीकृत आचरण को सामान्य कह देंगे? इतिहास की कई उदाहरणें मिल जाती हैं जिसमें समाज ने जिसे सामान्य समझा उसे वास्तव में मानवीय आचरण समझा ही नहीं जा सकता।
अगर सामान्य का अर्थ शब्दकोश में देखें तो लगता है कि इस शब्द के अनेकार्थ हैं। कुछ तो विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। यानी बात यहाँ भी उलझी हुई है।
यह प्रश्न महत्वपूर्ण है, विशेषकर, लेखकों के लिए। साहित्यकारों ने लगभग प्रत्येक काल में सामाजिक सामन्यता की सीमाओं का अतिक्रमण किया है। सामान्य समझी जानी वाली कुरीतियों की निन्दा की है । कई बार समय के घटनाक्रमों, प्राकृतिक आपदाओं, राजनैतिक विचारधाराओं ने सामान्य की परिभाषा बदल दी है।
शब्दकोश में सामान्य का अर्थ औसतन, मामूली, साधारण, महत्वहीन तक है। दूसरी ओर समान होने का भाव, परिपूर्ण, अनुरूपता, तुल्यता इत्यादि है। यानी शब्द वही है परन्तु सन्दर्भ अर्थ बदल देता है।
यह प्रश्न आज क्यों मस्तिष्क पर इतना हावी हो गया, इसका कारण भी बताता हूँ।
आज सुबह नाश्ते से पहले जब मैं अपने पोते को लेकर आया और अभी कार की चाबियाँ रख ही रहा था कि पत्नी ने घोषणा कर दी, "आज से मॉल खुल रहे हैं। नाश्ते के बाद चलेंगे" और साथ ही कुछ कामों की सूची भी सुना दी, जिनका आज ही पूरा होना अनिवार्य था।
मैंने धीमे से कहा, “देख लो, अगर ज़रूरी है तो। आज साहित्य कुञ्ज को अपलोड करने का दिन है।"
चेहरे की रंगत बदली, सुर बदले और बोली, “चलो फिर . . . युवान की कार सीट मेरी कार में लगा दो। मैं ही उसे साथ ले जाऊँगी। फिर अकेले में करते रहना अपने सारे काम।"
मैं दुविधा में पड़ गया—यह मुझे चुनौती दी गई है या मेरे साहित्य प्रेम को अदना घोषित कर दिया गया है या जिसे महत्वपूर्ण दायित्व मानता हूँ उसे तुच्छ कह दिया गया है। मैं सँभला, “अगले दो घण्टे में अगर काम हाथ में आ गया तो कुछ समय के लिए जा सकते हैं।"
हमारे संवाद युवान भी सुन रहा था। अभी उसने साढ़े तीन बरस पार ही किए हैं। हिन्दी बोलता तो नहीं पर अपने मतलब की बात हर भाषा में समझ लेता है। अब नीरा (दादी) की पैरवी पोता करने लगा था। उसकी अपनी सूची तैयार हो गई। मॉल में बच्चों के ऑर्केड में पुलिस कार की राईड लेनी थी। एक और बच्चों के झूलों वाला स्टोर है जिसे वह ब्लूब्लॉक्स कहता है, उसमें जाना आवश्यक था और उसकी सूची के अन्त में फ़्रेंच-फ्राईज़ भी सम्मिलित थीं। प्रजातंत्र में बहुमत जीत गया।
नाश्ता समाप्त होने के बाद मुझे मुश्किल से एक घण्टा मिला साहित्य कुञ्ज को समेटने के लिए। यह बता दिया गया कि कुछ भारतीय ग्रोसरी की आवश्यकता है। मॉल ग्यारह बजे खुलेगा तो ’इक़बाल’ से ग्रोसरी करते चलेंगे। मैंने सोचा ठीक है, यह भी सही। मेरे मन में घड़ी की सूइयों की दौड़ लग रही थी। अभी तो सम्पादकीय का विषय भी नहीं सूझ रहा था।
ग्रोसरी स्टोर पर पहुँचते ही युवान अपनी कार-सीट से चहका, “मेरा मास्क कहाँ है दादी।" एक विचार कौंधा—यह नया सामान्य है। साढ़े तीन बरस का बच्चा– जो अपना नाक भी पोंछने नहीं देता था, आज कार से उतरने से पहले अपना मास्क माँग रहा है। हम बड़ों को कोरोना के आरम्भिक समय में मास्क पहनने में परेशानी थी, युवान को नहीं।
मॉल में पहुँचे तो अभी ग्यारह नहीं बजे थे, कुछ मिनट बाक़ी थे। कोई सौ-डेढ़ सौ लोग लाईन में खड़े थे। जब तक कार पार्क की और मॉल के पास पहुँचे तो लाईन अन्दर जा चुकी थी। युवान फिर बोला, “लुक दादू, नो लाईनअप।" यह इस नई पीढ़ी की शब्दावली का एक सामान्य शब्द था – "लाईनअप"।
अन्दर कुछ स्टोर अभी भी बन्द थे। अचानक नीरा की सूची केवल युवान की राईड्स तक सीमित हो गई। दोनों ही आर्केड अभी बन्द थे। दुकानें भी चरणों में खुल रही हैं। युवान निराश तो हुआ परन्तु उसे शीशे पर चिपके हुए नोटिस दिखा दिए। पढ़ने का प्रयास करने लगा है इन दिनों। क्लोज़्ड (closed) पढ़ और समझ लेता है। बस पढ़ लिया तो कोई ज़िद नहीं, कोई सुबकना नहीं। उसे समझ है कि "बैड जर्म" सभी को बीमार कर रहा है इसीलिए सब बन्द हो जाता है।
अब सूची में केवल फ़्रेंच-फ़्राईज़ खाना ही बचा था। "टाको बैल्ल" से फ़्रैंच फ्राईज़ लेने जाते हुए मैंने युवान को आगाह करना आरम्भ किया कि फ्राईज़ कार में खायेंगे। उसका प्लान मॉल में ही खाने का था। फ़ूड कोर्ट में खाने वाली मेज़ों और कुर्सियों पर बैठना मना था। फ़्राईज़ देते हुए लड़की ने कहा कि बाहर बालकनी में आप बैठ कर खा सकते हैं। यह सुनकर युवान चहक उठा। दादू की बात ग़लत थी, बैठ कर खाया जा सकता है। बालकनी में तपती धूप में एक मिनट बैठना भी कठिन हो गया। युवान ने चुपचाप कार की शरण ली और घर लौटते हुए फ़्राईज़ का आनन्द हम तीनों ने लिया। मॉल से ख़ाली हाथ लौटने और फ़्राईज़ पर केवल दो डॉलर ख़र्च करने की बात सोचते हुए मैं मुस्कुरा रहा था। जो सोच कर मॉल आए थे उसमें केवल युवान को फ्राईज़ मिलीं थीं, आश्चर्य था कि किसी का भी मुँह फूला हुआ नहीं था।
यह भी इस समय का नया सामान्य ठीक उसी प्रकार था जिस तरह से मास्क, सेनेटाइज़र, लॉक डाउन, लाईनअप, कोरोना और वैक्सीन इत्यादि।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
Madhu 2021/07/02 12:23 AM
सामान्य शब्द के विभिन्न अर्थ हल्की-फुल्की उदाहरणों सहित समझाने के लिए आभार। देश, काल व परिस्थति इत्यादि अनुसार जो बात एक व्यक्ति के लिए सामान्य है, अन्य व्यक्ति के लिए असामान्य हो सकती है, क्योंकि उसे उसी देश, काल या परिस्थति का अनुभव नहीं या फिर संभवत: उन्हें पहले व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखना ही न चाहता हो।
डॉ आर बी भण्डारकर 2021/07/01 10:53 AM
बच्चों की दुनिया बड़ी निराली होती है।बच्चे तथ्यों को बड़ी जल्दी समझते हैं और तेजी से ग्रहण करते हैं।युवान जी को आशीर्वाद।
Sarojini Pandey 2021/07/01 08:47 AM
अति रोचक यही है मानव की जिजीविषा जो हमेंसे सहस्राब्दियों से निरंतर प्रदूषित होती पृथ्वी पर बचाए हुए है
राजनन्दन सिंह 2021/07/01 07:25 AM
रुचिकर संपादकीय। युवान को ढेर सारा प्यार। आपकी एक तस्वीर मुझे याद है, आप और युवान मिलकर एक पेड़ लगा रहे हैं। और आज एक और शब्द चित्र। दादा दादी के साथ कार में बैठा पोता। कभी दादा जी को कभी दादी जी को फ्रेंच फ्राईज बढाता हुआ नन्हा युवान। यह जीवन की तस्वीर है..
इन्दिरा वर्मा 2021/07/01 06:15 AM
बहुत मज़ा आया सुमन जी । बच्चे जीवन में बहुत कुछ बदल देते हैं । सामान्य की परिभाषा भी उनके अनुसार तय हो जाती है । यूँ भी कुछ सामान्य बताना चाहें तो हमें ( न्यू नोर्मल) की दिशा दिखाई जाती है । अब यह न्यू नोर्मल भी तो समय, व्यक्ति तथा हालात के हिसाब से बदलता रहा है । हम जैसे लेंगो को यदि कन्फ़्यूज़न होता रहता है तो ठीक ही है !
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डॉ.सुनीता जाजोदिया 2021/07/02 05:09 PM
जीवन के सामान्य प्रसंग से आपने समय-सापेक्ष सामान्य व्यवहार पर नन्हे युवान के जरिए बखूबी प्रकाश डाला है, सच है साहित्यकार ही सामान्य के असामान्य सामाजिक प्रभाव से रूबरू करवाता है