प्रिय मित्रो,
साहित्य कुञ्ज के जो पुराने पाठक हैं और मेरे सम्पादकीय नियमित पढ़ते हैं, वह जानते हैं कि शब्दों की शुद्धता और उनके व्याकरण पर टिप्प्णी करना मेरा प्रिय विषय है। जब भी मैं इस विषय पर लिखता हूँ तो उसका कोई न कोई कारण अवश्य होता है। इस बार के सम्पादकीय का विषय भी ऐसा ही कुछ है।
साहित्य कुञ्ज के इस अंक के लिए कई कहानियाँ मिलीं। उनमें से एक कहानी के दो वाक्यों में उलझ गया। लेखक ने पहले वाक्य में टिकट ख़रीदने की बात की थी, इस वाक्य में टिकट पुल्लिंग था। शब्दकोश के अनुसार टिकट पुल्लिंग शब्द है, अर्थात् लेखक ने सही वाक्य लिखा था। दूसरे वाक्य में टिकट के बहुवचन के लिए टिकटें शब्द का प्रयोग हुआ परन्तु मूल्य के चौगुना होने की बात करते करते टिकट पुल्लिंग से स्त्रीलिंग हो गया। मैं स्वयं यहीं पर अटक गया। मुझे लगा कि कुछ तो ग़लत है, पर एक मिनट के लिए मैं भी समझ नहीं पाया कि ग़लत क्या है? लगा कि शब्द के प्रयोग में लिंग-दोष है। शब्दकोश देखा तो पाया कि टिकट पुल्लिंग है। एक झन्नाटा-सा लगा क्योंकि अभी तक यानी सत्तर वर्ष की अवस्था तक पहुँचने के बाद भी मैं टिकट का प्रयोग स्त्रीलिंग शब्द की तरह करता रहा था। सोचा तो प्रायः सुना था “टिकट नहीं मिला।” या “टिकट महँगा हो गया है।” दूसरी ओर अन्य लोगों से सुना था, “टिकट नहीं मिली।” या “टिकट महँगी हो गयी है।” प्रश्न था कि ऐसा क्यों? अगर शब्दकोश सही है तो एक बहुत बड़ा वर्ग इस शब्द को प्रयोग करते हुए स्त्रीलिंग क्यों बोलता या लिखता है? शब्दकोश में जो लिखा है प्रायः वह मैं आँख मूँद कर मान लेता हूँ, क्योंकि किसी को तो मान्यता देनी ही पड़ेगी। फिर भी मन विचार आया कि मैं किसी से पूछ तो लूँ कि उनके क्या विचार हैं?
व्हाट्स ऐप पर एक ग्रुप है: “भाषा परिचय” ज्ञान सागर। इस समूह में बहुत से भाषाविद् हैं और प्रायः भाषा और व्याकरण पर गम्भीर चर्चाएँ होती रहती हैं। मैंने अपनी दुविधा समूह के सामने रखी और सुझाव माँगे। सुझाव और समाधान दोनों मिले। कुछ मन को अधिक जँचे और कुछ कम जँचे। उन सभी मित्रों को धन्यवाद दिया कि उन्होंने विचार किया और समय निकाल कर समझाने का प्रयास किया। क्या मेरी समस्या का निराकरण हुआ, नहीं। क्योंकि समाधान और सुझाव देने वाले भी शायद उतने ही असमंजस में थे जितना मैं। कोई बोली पर आधारित तर्क दे रहा था और किसी का कहना था कि जो लेखक ने लिखा है उसे एक तरह से आँख मूँद कर मान लेना चाहिए, या सम्पादकीय अधिकार का प्रयोग करते हुए वाक्य को बदल दूँ— अपने अनुसार। यह मैं कैसे कर सकता हूँ, मेरा मत है कि सम्पादकीय अधिकार चाहे जो भी हो, मैं लेखक से बात किए बिना कुछ नहीं बदलता। केवल टाइपिंग की त्रुटियों या वर्तनी त्रुटियों का संशोधन करता हूँ। व्याकरण के वह दोष भी ठीक करता हूँ, जिनके बारे मैं पूरी तरह से जानता हूँ। अन्य संशोधनों के लिए लेखक से परामर्श करता हूँ, सुझाव देता हूँ यानी संशोधन करते हुए लेखक से निरंतर सम्पर्क बना रहता है।
मेरे सोचने की प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं हुई। याद आया कि पिछले दिनों हिन्दी राइटर्स गिल्ड के व्हाट्स ऐप समूह में एक यूट्यूब में शास्त्रीय गायन का लिंक शेयर करते हुए किसी ने पूछा था कि क्या यह गीत ग़लत है क्योंकि “वसन्त” शब्द का रूप स्त्रीलिंग था। वसन्त “आया” होना चाहिए, गायिका इसे “आयी” कह रही थी। कुछ वर्ष पहले तक मैं “पवन” को हवा की तर्ज़ पर स्त्रीलिंग ही लिखता था जबकि शब्द पुल्लिंग है। कुछ मित्रों को पूछा था और वह भी मेरी तरह भ्रांत थे।
हम हिन्दी प्रेमी वर्ष में दो बार हिन्दी दिवस मनाते हैं। शायद ही कोई अन्य भाषा के लिए कोई अन्य देश ऐसा करता हो कि एक बार तो “हिन्दी दिवस” मनाए और दूसरी बार “विश्व हिन्दी दिवस” मनाए। दूसरी ओर भाषा की यह स्थिति है कि निरंतर ऐसे प्रश्न उठते रहते हैं जो मैं उठा रहा हूँ। क्या कोई ऐसी संस्था, मंडल या संस्थान है जो ऐसे शब्दों का पूर्ण विश्लेषण करके अंतिम रूप से उसका व्याकरण निश्चित कर दे, उसका अर्थ निश्चित कर दे, उसकी वर्तनी निश्चित कर दे। आप आश्चर्यचकित मत हों अब मैं साधारण शब्दों की वर्तनी की बात कर रहा हूँ। उदाहरण दे रहा हूँ: आप ही बताएँ “श्रीमती” सही है या “श्रीमति”, “श्रद्धांजलि” सही है या “श्रद्धांजली”, “अंगारा” सही है या “अँगारा”। उत्तर देने में शीघ्रता मत करें पहले एक बार विभिन्न शब्दकोश देख लें। ऐसा ही प्रश्न एक बार “सामर्थ्य” के लिए खड़ा हुआ था। डॉ. हरदेव बाहरी के अनुसार “सामर्थ्य” पुल्लिंग है। अभी शब्दकोश का नाम भूल रहा हूँ, उसमें यह स्त्रीलिंग था। अंतिम निर्णय के लिए मैंने “नागरीप्रचारणी सभा” के शब्दकोश में देखा तो और भी उलझ गया। क्योंकि उस शब्दकोश में यह शब्द पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों ही है।
हिन्दी भाषा के लिए एक अन्य बड़ी समस्या है जिसके बारे में मैंने अभी तक चर्चा नहीं सुनी। हिन्दी के विद्वान कभी हिन्दी के व्याकरण का तर्क देते हैं और कभी संस्कृत के व्याकरण का। मैं सदा से मानता आया था कि कि शायद हिन्दी को संस्कृत की पुत्री इसलिए कहा जाता है कि इन दोनों का आधार एक ही होगा, यानी व्याकरण एक ही होगा। दो वर्ष पहले आचार्य संदीप त्यागी से “श्रीमती” और “श्रीमति” के बारे में पूछा तो उन्होंने दोनों व्याकरणों की बात कह दी। क्या हिन्दी भाषा अभी तक इसी मकड़जाल में फँसी है कि इसका व्याकरण कौन-सा है?
बचपन में यानी साठ वर्ष पहले जब शब्दज्ञान आरम्भ किया था, तब उस समय वर्तनी भी रटी थी, वह कहीं-कहीं तो लुप्त ही हो चुकी है। बचपन में पढ़ा था “सम्भालना” अगर इसे दूसरे ढंग से लिखें तो “संभालना” होना चाहिए। परन्तु अब इसे शब्दकोश के अनुसार “सँभालना” लिखा जाता है। दूसरी ओर “सम्भावना” सीखा था तो उसे अब अधिकतर संभावना लिखा जाता है। यह अनुस्वार और अनुनासिका के चिह्नों द्वारा लिखा जाना मान्य तो है परन्तु भाषा के प्रति श्रद्धाभाव रखने वाले मुझे टोक देते हैं कि कम से कम मैं तो “सम्भावना” ही लिखूँ। शायद इसीलिए कभी “संपादकीय” नहीं लिखता “सम्पादकीय” लिखता हूँ।
सम्पादकीय का अन्त/अंत करते हुए सोच रहा हूँ कि क्या इस विषय के मूल-तत्त्व/मूल-तत्व के महत्त्व/महत्व को व्यक्त कर पाया हूँ कि नहीं। क्या इसी तरह चलते रहे तो “उत्तर” को हम “उतर” और “कुत्ता” को “कुता” तो नहीं लिखने लगेंगे। और कुछ वर्षों के बाद शब्दकोश दोनों को सही कहने लगेंगे जैसे कि “चिह्न” और “चिन्ह” स्वीकार्य हो गये है; “ब्रह्मा” और “ब्रम्हा” भी लिखा जाने लगा है, “आह्वान” और “आवाहन” एक हो गए हैं और भी क्या-क्या लिखूँ, सूची का अंत ही नहीं दिख रहा। अभी विराम चिह्नों की उलझन को तो छूआ ही नहीं।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
प्रीति अग्रवाल 2023/02/04 10:04 AM
हमेशा की तरह सुन्दर विचारणीय सम्पादकीय l
Sarojini Pandey 2023/02/03 06:23 AM
आदरणीय संपादक महोदय विषय अत्यंत विचारणीय है। भाषा की शुद्धता को लेकर आप की प्रतिबद्धता आदरणीय है। भाषा के जिस मानक रूप की छवि मेरे मन में है उसके विपरीत जब मैं साहित्य में अशुद्ध भाषा देखती हूं तो मुझे भी अत्यंत पीड़ा होती है। साथ ही मेरे मन में यह भी बात आती है कि आज से 50 वर्ष पूर्व लिखे गए साहित्य में जो भाषा का रूप था ,क्या वह आज तक चला आ रहा है? उसकेभी 20 वर्ष पूर्व जो साहित्य लिखा गया था ?क्या उसमें भाषा का वही रूप था ,जो आज से 50 वर्ष पहले का था ? शायद इसका उत्तर नहीं में ही है। आजकल जो भाषा लिखी जा रही है उसकी अशुद्धता या तो आंचलिक ता के कारण है या फिर जो लोग अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने के बाद हिंदी में लिख रहे हैं वह सीधे-सीधे अंग्रेजी का अनुवाद हिंदी में करना चाहते हैं। भाषा नदिया की धार की तरह है जो अपना मार्ग स्वयं बनाएगी, कभी सीधी ,कभी टेढ़ी, कभी गिरती ,कभी उछलती, कभी दूसरी नदियों से मिलती हुई। हम और आप इस प्रवाह को रोक नहीं पाएंगे। बस होना यह चाहिए कि धारा बहती अवश्य रहे,और 'प्रदूषण ' कम से कम हो।
Aacharya 2023/02/02 01:54 PM
सादर नमन जी , संपादक महोदय से संपर्क किया प्रकार किया जा सकता हैं। कृपया बताएं। अपनी कुछ कविताएं और आलेख प्रकाशित कराने की इच्छा हैं। मेरे नंबर 8178677715 हैं। कृपया संपादक जी का नंबर उपलब्ध कराएं।
महेश रौतेला 2023/02/01 10:01 PM
अच्छा लगा सम्पादकीय। कुछ गलतियां शायद टायपिंग के कारण आती हैं और कुछ अज्ञानता और कुछ भाषा के लचीलेपन/ अपभ्रंश के कारण। जैसे मैंने जैसा पढ़ा," श्रीमती,श्रदांजलि, अंगार" सही होना चाहिए। सभी भाषाओं में यह देखा जाता है जैसे अमेरिकन अंग्रेजी और ब्रिटिश अंग्रेजी color, colour आदि।
अविनाश ब्यौहार 2023/02/01 08:26 PM
साहित्य कुंज का हर अंक सुंदर रहता है
निर्मल कुमार दे 2023/02/01 03:21 AM
पठनीय और विचारणीय संपादकीय। बहुत उम्दा। आभार
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डा. इन्द्र सेंगर 2023/02/13 11:32 AM
आदरणीय बन्धु वर सादर प्रणाम मैं आजकल' दिवंगत भारतेतर साहित्यकार' ग्रंथ का लेखन कर रहा हूँ. इस साहित्यिक यज्ञ के लिए आपके सहयोग की नितांत आवश्यकता है. आप अपने यहाँ के दिवंगत हिंदी सेवियों का पूर्ण परिचय मुझे ईमेल से उपलब्ध कराने की कृपा करें. मैं आपका हृदय से आभारी रहूंगा. मेरा फोन नं +919911190634 ईमेल: drindrasengar@ gmail. Com सादर आपका डा. इन्द्र सेंगर भारत