प्रिय मित्रो,
आज का सम्पादकीय लिखते हुए मेरे शब्द गुम होते जा रहे हैं। विषय है और लिख भी रहा हूँ परन्तु शब्द रुक जाते हैं, अपना अर्थ खोने लगते हैं और फिर मिट जाते हैं।
२२ अप्रैल को पहलगाम में हुई आतंकी घटना को किन शब्दों में लिखूँ? क्या शब्द एक निरह की चीख को लिख पाएँगे? उस पत्नी की पुकार को कैसे व्यक्त करें जिसके पति को उसके सामने गोली से उड़ा दिया गया? या उस व्यक्ति के ठहरे हुए क्षणों को किस भाषा में कहें जो घुटनों बल बैठ कर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा के क्षण का बंधक था। उस मासूम के शब्दों को कैसे दोहराएँ जो अपने पिता की मौत को देख तो चुका है परन्तु समझ नहीं पाया है।
आक्रोश है, शोक है, आँख में पानी है और नसें लहू के उबाल से फड़क रही हैं। कोई कैसे लिखे इस घटनाक्रम को क्योंकि शब्दों से भावों की अभिव्यक्ति की सीमा होती है। जब पीड़ा असीम हो तो क्या मौन ही एक मात्र साधन बचता है अभिव्यक्ति का?
परन्तु नहीं, लिखना आवश्यक है—नहीं लिखूँगा तो इस दुःख का विरेचन नहीं हो पाएगा। और यह दुःख घृणा में बदल जाएगा। घृणा विवेक को नष्ट कर देगी। विवेक नहीं होता है तो फिर प्रतिशोध छिन्न-भिन्न हो जाता है—बिखर जाता है। प्रतिशोध लक्ष्य भ्रमित हो जाता है। आँख लक्ष्य से नहीं हटनी चाहिए। प्रतिशोध आवश्यक है। पहले भी आतंकी घटनाएँ हुईं। एक शिथिल मानसिकता वाली सरकार या तुष्टिकरण की नीतियों वाली सरकार अनदेखा करती रही। समय बदल गया। सरकार बदल गई। राजनीति बदल गई। जनता में आत्मविश्वास का संचार हुआ। इतिहास के पन्नों से धूल हटने लगी। भारतीय अपने इतिहास को भी जानने लगे हैं और पढ़ाए गए झूठे इतिहास को पहचानने लगे हैं। भारत वैसे भी भगवान कृष्ण का देश है और शिशुपाल का इतिहास भी जानता है। एक सीमा तक अज्ञानी, भ्रमित और बुद्धिहीन को क्षमादान दिया जा सकता है। बुद्धिहीनता जब किसी निरह के प्राण हरने लगे तो कृष्ण का सुदर्शन चक्र तो चलेगा ही।
जनता प्रतीक्षा कर रही है। भुजाएँ फड़क रही हैं। दुश्मन घबरा चुका है। उसकी सेना के शिवर ख़ाली हो रहे हैं। विमान छिपाए जा रहे हैं। आकाश भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। नदी, नहरों में पानी सूख रहा है। शासन के गले सूख रहे हैं। सेनापति खन्दक में छिपा है। सजग रहना है, लक्ष्य नहीं खोना है। पाठ पढ़ाना आवश्यक है। आतंकवादी की अपेक्षा आतंक की जड़ को काटना है। पाकिस्तान का नाश ही एक मात्र साधन दिखाई दे रहा है। झूठ की नींव पर खड़ा देश कब तक अपनी धर्मांधता में जी सकता है। एक दिन तो कृष्ण का सुदर्शन चक्र भोगना ही पड़ेगा। उचित समय है कर्म फलीभूत होने का।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
Anima Das 2025/05/05 05:33 PM
प्रतीक्षा मुझे भी है... अब राक्षसों का विनाश करना ही होगा.. हमारे देश के अंदर भी छद्म नाम से भेष से रह रहें हैं ये.. देश के अंदर रहने वाले गद्दार भी तो कम नहीं है... आपके संपादकीय में चिंता एवं धैर्य का सम्मिलित भाव है... ये हम पाठकों को उद्वेलित भी करता है. . . . धन्यवाद सर
आशा बर्मन 2025/05/05 04:54 PM
सुमनजी , आपने इन शब्दों से भारतीय मूल के लोगों के मन की बात कह दी है। "सजग रहना है, लक्ष्य नहीं खोना है। पाठ पढ़ाना आवश्यक है। आतंकवादी की अपेक्षा आतंक की जड़ को काटना है। पाकिस्तान का नाश ही एक मात्र साधन दिखाई दे रहा है। झूठ की नींव पर खड़ा देश कब तक अपनी धर्मांधता में जी सकता है। एक दिन तो कृष्ण का सुदर्शन चक्र भोगना ही पड़ेगा। उचित समय है कर्म फलीभूत होने का।" -आशा बर्मन
विजय विक्रान्त 2025/05/04 06:22 AM
सुमन जी आप ने एक दम सही फ़रमाया है कि आतंकवाद को समाप्त करना और पाकिस्तान को ठोक ठोक कर सबक सिखाना बहुत ज़रूरी। यहाँ सवाल केवल पाकिस्तान को ठोकने का ही नहीं है बल्कि उसके साथ साथ देश में जो गद्दार बैठे हुए हैं उनको भी ठिकाने लगाने का है। भारत देश का सब से बड़ा दुर्भाग्य रहा है कि 1947 के बाद गाँधी ने मुसलमानों को खुश रखने के लिए हिन्दुओं को “अहिंसा परमो धर्म:” मन्त्र की जो अफ़ीम के नशे की गोली घुट्टी में पिला दी थी और उसके जाने के बाद नेहरू और उस के ख़ान्दान वालों ने, अपनी गद्दी कायम रखने के लिए, उस परम्परा को चालू रखकर हिन्दुओं को बुज़दिल बना दिया था। अब जब भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में मोदी जी ने इस मन्त्र के अगले भाग “धर्म हिंसा तथैन च:” यानि “धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उस से भी श्रेष्ठ है” का ज्ञान देकर हिन्दुओं को जागृत करना शुरू कर दिया तो नेहरू परिवार और तुष्टीकरण करने वाले और दूसरी पार्टियों के नेताओं को मिर्ची लग गई। 1857 में जब जनरल रोज़ ने झाँसी पर हमला किया था तो किले के द्वार पीर अली और दुल्हाजू नाम के दो गद्दारों ने रोज़ के लिए खोल दिए थे। (वृन्दावनलाल वर्मा की पुस्तक “लक्ष्मीबाई से)। आज 168 साल बाद भी वही स्थिती अभी भी वैसी है और अभी भी पीर अली और दुल्हाजू किसी और नाम से भारत को हराने और भगवान कृष्ण रूपी मोदी को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। यह जब्र (ज़ुल्म) भी देखा है तारीख़ की नज़रों से। लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई।
सत्यवान साहब 2025/05/03 06:41 PM
ज़ख्म को जख्म से अब भर के दिखाना होगा, तू दवा है ही, दर्द हर के दिखाना होगा। दर्द बुजदिल को भी महसूस तभी हो सकता, सामने सीधे ही अब जड़ के दिखाना होगा। किसकी परवाह करें, कैसा ज़माना साक़ी? मौत से पहले ही, अब मर के दिखाना होगा? ‘आरज़ू’, अब भी तूं ख़ामोश रहेगी कब तक? जाग — रंजिश के पर कतर के दिखाना होगा। ~सत्यवान साहब
मधु 2025/05/01 11:37 PM
चूहे यदि हानि पहुँचाने के बाद दुम दबाकर अपनी बिलों में घुस जाते हैं तो क्या उन मुट्ठी भर चूहों के लिए कोई ऐसी दवा या छोटी-मोटी सेना उपलब्ध नहीं जो उनका नामोनिशान मिटा सके? उनके वहशीपन से पीड़ित हो-होकर कब तक निर्दोष लोग व उनके परिवारजन यूँही जीवन पर्यन्त रोते-कलपते रहेंगे? माननीय सम्पादक जी की भाँति हम करोड़ों लोगों की भी आत्मा क्रंदन कर रही है परन्तु हम स्वयं को असहाय पा रहे हैं, जो इस दुख को और भी असहनीय कर रहा है।
सरोजिनी पाण्डेय 2025/05/01 07:08 AM
फड़कती भुजाओं ,उबलते रक्त वाले योद्धा का मनन मंथन । वंदनीय संपादकीय।
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मुरली मनोहर श्रीवास्तव 2025/05/14 10:24 AM
आदरणीय सुमन जी आपने सम्पादकीय में उन भावनाओं को शब्द प्रदान कर दिए हैं जो हर भारत वासी के हृदय में छुपे हैं , जो वह कहना चाहता है .