प्रिय मित्रो,
पिछले दो सप्ताह से मन कुछ विचलित है। जब भी घर के पिछले लॉन में जाता हूँ, तो मन भर आने लगता है। पाठकों को याद होगा कि कुछ महीने पहले मैंने अपने सम्पादकीय में एक मेपल के पेड़ की चर्चा की थी जिसको कटवाने की सोच रहा था। अब वह समय आ गया है कि अब इस मेपल के पेड़ को काटना ही पड़ेगा।
व्यक्ति भी विचित्र प्राणी है। अपनी प्रजाति की सीमाएँ लाँघते हुए प्रकृति की प्रत्येक जीव-निर्जीव व वस्तु से प्रेम करना आरम्भ कर देता है। परन्तु जब संसाधनों से अपनी स्वार्थ सिद्धि हो तो धरती की छाती फाड़ कर, जंगल काट कर, जीवों की हत्या करके प्रकृति का शोषण करने से भी चूकता नहीं है। क्या मैं ऐसा ही हूँ? पिछले वर्ष जब पेड़ कटवाने का सोचना आरम्भ किया था तब कटवाने की विवशता नहीं थी बल्कि पैटियो की टाइलों और छत पर भागते रैकून को रोकने का विकल्प था। परन्तु अब यह विकल्प विवशता है। अब प्रश्न स्वार्थ सिद्धि का नहीं बल्कि अपनी और परिवार की सुरक्षा का है। पर पेड़ के साथ जो भावनात्मक संबंध है, वो भी तो है।
मेरा घर लगभग चालीस वर्ष पुराना है। यह पेड़ भी शायद उतना ही पुराना होगा। इसके तने की चार फीट की ऊँचाई पर किसी मकान मालिक ने कम से कम तीस वर्ष पूर्व निर्ममता से पेड़ की बड़ी शाख को काट दिया होगा। शाखा कटने से पेड़ को जो घाव लगता है उसके उपचार के लिए एक पेस्ट लगानी पड़ती है जो कि नहीं लगाई गई। मैं इस घर में पिछले छह वर्षों से हूँ। पिछले तीन वर्षों से समस्या को जानता हूँ और नर्सरी से परामर्श भी कर चुका हूँ। विशेषज्ञों के अनुसार अब बहुत देर हो चुकी थी, कुछ भी किया जाना संभव नहीं था। पेड़ के तने के बीचोंबीच एक दरार पड़नी भी आरम्भ हो चुकी थी जो हर बरस बढ़ती जा रही थी।
ठंड कम होते ही मैंने पेड़ के घाव के कोने में एक छेद देखा तो उसमें एक छोटी डंडी डाली। आश्चर्य की बात थी कि यह छेद नौ इंच गहरा था और डंडी के अंत में काले रंग की गली हुई लकड़ी भी बाहर आई। मौसम ठीक होते ही एक माह पूर्व के एक वृक्ष विशेषज्ञ को आकलन के लिए बुलाया। उसने भी पेड़ को काटने की सलाह दी क्योंकि तेज़ हवा या हल्के से तूफ़ान से भी पेड़ के दो हिस्से हो सकते हैं।
वास्तविकता का सामना करते ही, ऐसे लगा कि परिवार के किसी सदस्य को ’इच्छामृत्यु’ का सुझाव दिया गया हो। ऐसी अवस्था में वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए व्यक्ति को जिन चरणों से गुज़रना होता है, मैं उनमें से गुज़र रहा हूँ। कुछ सप्ताह पूर्व अपने पोते युवान के साथ खड़ा पेड़ का निरीक्षण कर रहा था। मैंने वैसे ही उससे कहा कि युवान बेटे, इस पेड़ को काटना पड़ेगा। मैं जानता हूँ पाँच वर्षीय युवान पैदा होने से लेकर अब तक इस पेड़ के नीचे खेलता रहा है। आँख-मोचौली खेलते हुए पेड़ के पीछे छिपता है। वर्षा होने के पश्चात उसकी दादी पेड़ की टहनियों को हिला कर, गोदी में युवान को लिए एक बार फिर से बारिश का आनन्द दिलवाती रही है। खिलखिलाता युवान “दादी मोर, दादी अगेन” की मनुहार लगाते बड़ा हुआ है। मैं उसे पेड़ की नियति समझा कर मानसिक रूप से उसे तैयार करना चाहता था। चिंता थी कि किसी वीकेंड को वह आएगा और देखेगा कि पेड़ कहाँ गया? अवश्य ही मेरी बात से वह चिंतित हो उठा था। उसने मुझ से पूछा, “दादू, व्हेयर द गॉड विल गो (Dadu, where the God will go). अचानक मुझे ख़्याल आया कि पेड़ के नीचे छोटे-छोटे पत्थरों के ऊपर मैंने भगवान बुद्ध की प्रतिमा रखी हुई है। युवान मुझसे भी आगे की सोच रहा था। एक शूल सा सीने में चुभा। बच्चे किस तरह से कहे या अनकहे ही अपने आसपास की वस्तुओं से संबंध बना लेते हैं। नन्हे युवान को भगवान की चिन्ता है कि पेड़ कट जाएगा तो बुद्ध कहाँ बैठेंगे! मैंने उसे कहा कि हम भगवान बुद्ध को घर के आगे वाले लॉन में लगे मेपल के पेड़ के नीचे ले जाएँगे। उसे संतोष तो हो गया। परन्तु अन्दर आकर चुपचाप दादी ले लिपट गया। नीरा ने मुझसे पूछा कि इसे क्या हुआ? मैंने बताया कि इसे मेपल की चिंता है। दादी ने उसे छाती से लगा लिया और वह भी लिपटा रहा।
शुक्रवार को पेड़ कटने की प्रक्रिया आरम्भ हो गई। वृक्ष-विशेषज्ञ घर आकर पेड़ के कई चित्र खींच कर ले गया है। उसने तने की परिधि, और घाव की भूमि से ऊँचाई नापी है। अब वह नगरपालिका से वृक्ष काटने का परमिट लेगा। हो सकता है कि नगरपालिका मुझ से शुल्क लेने के साथ ही इस वृक्ष के बदले में और पेड़ लगाने के लिए कहे। अगर मैं उन्हें अपने लॉन में लगा पाने में अक्षम हूँ तो हो सकता है नगरपालिक मेरी ओर से कहीं पेड़ लगाए जिसका ख़र्चा मुझे देना पड़ेगा। अन्य शब्दों में मुझे इस पेड़ की मृत्यु का तर्पण करना होगा।
जिस तरह परिवार के वृद्धजन पेड़ होते हैं जिनकी छ्त्रछाया में परिवार सुरक्षित रहता है, उसी तरह पेड़ भी हमारे बुज़ुर्ग होते हैं—कम से कम मैं ऐसा समझने लगा हूँ।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
सुशील कुमार पटियाल 2023/05/15 01:26 PM
श्रीमान आपका यह लेख पढ़कर मैं थोड़ा भावुक हो गया क्योंकि एक समय पर भी था जब मैंने कई तरह के पेड़ पौधे लगाए मगर नौकरी और कमाने की चाहने गांव छुड़वा दिया। आज बहुत से पौधे पेड़ बन गए हैं, कुछ उजड़ गए हैं मगर मैं जब भी गांव जाता हूं एक एक पेड़ से गले मिलता हूं। पता नहीं क्यों पर एक अजीब सा सकूं और आनंद अनुभव होता है। आपका धन्यवाद। 8130969995
सरोजिनी पाण्डेय 2023/05/15 12:54 PM
आदरणीय संपादक महोदय वृक्ष के साथ आपके मानसिक लगाव और उसके कटने की पीड़ा मैं अच्छी तरह समझ सकती हूं। यहां दिल्ली में जिस सोसाइटी में मैं रहती हूं वहां मंदिर बनाने के लिए एक पेड़ काटने की आवश्यकता थी मेरे जैसे कुछ प्रकृति प्रेमी रहवासियों ने इसका विरोध किया ।परंतु आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह दब कर रह गई। हमें समझाने के लिए पेड़ को तो काटा नहीं गया लेकिन उसको जिस तरह मंदिर में बंद कर दिया गया उससे वह अब 2 साल के अंदर सूखकर कंकाल रह गया है।। उस पर मैंने एक कविता भी लिखी है उसे आज व्हाट्सएप पर साझा करूंगी,पढ़िएगा।
प्रीति अग्रवाल 2023/05/15 07:13 AM
एक और नया अंक, एक और विचारणीय सम्पादकीय! हार्दिक बधाई आदरणीय! मैं आपकी मनोदशा से सहमत हूँ, मेरे घर मे भी कुछ पौधे हैं, जिनसे मेरा परिवार जैसा नाता बन गया है। ऐसे की कुछ पक्षी हैं जिन्हें रोज़ दान डालती हूँ, अब तो लगता है कुछ को पहचानती भी हूँ! इस लगाव को क्या नाम दें!!
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मधु शर्मा 2023/05/15 10:33 PM
सम्पादकीय पढ़कर मन द्रवित हो गया।आप जैसे समझदार लोग ही हमारी घायल धरती माँ की मरहम-पट्टी करते हुए उसे उसकी ही मिट्टी में मिलने से रोकने का पूरा प्रयास करने में जुते हुए हैं। आज से तीस-चालीस वर्ष पूर्व हमारे यू.के. के महाराजा चार्ल्स जब-जब वृक्ष-पौधों के प्रति अपनी रुचि व संवेदना व्यक्त करते तो लोग उनकी बातों को हँसी-मज़ाक में उड़ा दिया करते थे।और अब तो विश्व भर में उसी संवेदना ने एक नयी जागृति का रूप धारण कर लिया है। जंगल बाँसों के हमें हटाने पड़े, उल्टे बाँस बरेली को लाने पड़े, बढ़ रही आबादी बसाने हेतु, मधु, हज़ारों घर उसी जगह बनाने पड़े।