मैं जब यू.एस.ए. के चरित्र की बात कह रहा हूँ तब मैं नैतिकता या अनैतिकता की बात नहीं कर रहा। यह चरित्र आचार-व्यवहार से सम्बन्धित है। कनेडियन राष्ट्रीय चरित्र शिष्ट और क्षमाप्रार्थी (एपॉलोजैटिक) प्रवृत्ति का है। यू.एस.ए. एक आक्रामक, अशिष्ट और स्वार्थी प्रवृत्ति का देश है यद्यपि दोनों देशों की सीमाएँ मिलती हैं फिर भी यह उतना ही सच है जितना कि भाषा एक होने से संस्कृतियाँ एक-सी नहीं होतीं।
मैं पिछले कई वर्षों से निरंतर यू.एस. जाता रहता हूँ। इन दिनों मेरा बड़ा बेटा न्यू जर्सी में है, उसके पास वर्ष में पाँच-छह बार तो जाना हो ही जाता है। इस बार यानी ट्रम्प की विजय के बाद पहली बार जा रहा था। पिछली बार चुनाव से ठीक पहले गया था। उस समय शायद मैंने कहीं लिखा भी था कि रास्ते के ग्रामीण अंचल में ट्रम्प की लोकप्रियता स्पष्ट दिखाई दे रही थी। हालाँकि नगरों में अलग स्थिति थी। इस बार जाने तक ट्रम्प राष्ट्रपति बन चुका था।
इन दिनों विश्व भर में राजनीतिक जगत में खलबली मची है। देखा जाए तो कोविड काल के समाप्त होने के बाद से, विश्व में शान्ति हुई ही नहीं। यूक्रेन-रूस का युद्ध, इज़राइल-हमास-हिज़्बुल्लाह युद्ध, बंग्लादेश की राजनीतिक परिस्थिति का मटियामेट होना, सीरिया का लगभग विभाजन और अन्त में ट्रम्प शासन का उदय।
अगर आप वैश्विक राजनीति और रणनीति में रुचि रखते हैं और इसका अध्ययन करते हैं तो आप यह भी समझते होंगे कि इस खलबली के पर्दे के पीछे यू.एस. की भूमिका किसी न किसी रूप में रही है। अब तो यह भी प्रमाणित हो गया है कि भारत के किसान आन्दोलन, मणिपुर की हिंसा इत्यादि के पीछे भी यू.एस.ए. के बाइडन शासन का बहुत बड़ा हाथ रहा है। यू.एस.ए. की डेमोक्रैटिक पार्टी इस भ्रांति में थी कि वह भारत जैसे सशक्त देश को अस्थिर करके अपनी पिट्ठू सरकार को स्थापित कर सकती है—जैसा कि समय-समय पर अन्य देशों में वह ऐसा करती रही है। इतिहास में इसके दर्जनों उदाहरण मिल जाते हैं। बाइडन प्रशासन की सबसे बड़ी ग़लती थी यूक्रेन-रूस के युद्ध को प्रायोजित करना। इस युद्ध के प्रभाव बहुआयामी हुए जिसका अमेरिका के राजनीतिज्ञों को अनुमान नहीं था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप वैश्विक अर्थव्यवस्था गम्भीरता से प्रभावित हुई। रूस और यूक्रेन दोनों ही ,ऊर्जा, खाद्यान्न, खनिजों इत्यादि के महत्त्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता थे। यह स्वाभाविक ही था कि युद्धरत होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्रों से होने वाले उत्पादन में बाधा आई। वैश्विक बाज़ार में इनकी उपलब्धि बाधित होने से इनका मूल्य बढ़ने लगा, देशों की अर्थ व्यवस्था में मुद्रास्फीति के प्रभाव दिखने लगे और व्यवस्थाएँ चरमराने लगीं। कई युरोपीय देशों की सरकारें एक-एक करके ताश के महल के पत्तों की तरह गिरने लगीं। इसी तरह यू.एस.ए. की सरकार अछूती नहीं रही। इस राजनीतिक व्यवस्था के परिवर्तन के काल में भारत अपने स्थान पर अडिग रहा। मोदी प्रशासन पुनः निर्वाचित हुआ। उधर बाइडन प्रशासन को ट्रम्प प्रशासन ने विस्थापित कर दिया।
ट्रम्प की सरकार बनते ही एक प्रकार के युद्ध समाप्त होने लगे जबकि दूसरे प्रकार के युद्ध आरम्भ होने की दुंदभि ट्रम्प ने बजा दी। यूक्रेन-रूस का युद्ध समापन की ओर अग्रसर हो रहा है। इज़राइल-हमास भी शान्त हो चुका है और अब तो वेस्ट बैंक के पुनःनिर्माण की बात होने लगी है। सीरिया की बिसात पर भी यूरोप, यू.एस.ए. और रूस अपनी-अपनी गोटियाँ बिठा रहे हैं। दूसरी ओर जो युद्ध ट्रम्प आरम्भ कर रहे हैं, वह वाणिज्यिक और आर्थिक है। ट्रम्प द्वारा यह नीति परिवर्तन अनपेक्षित नहीं है। इसकी घोषणा अपने चुनाव अभियान में निरन्तर वह करते रहे हैं। और उन्होंने इसकी समय-सीमा भी निर्धारित कर दी थी। समस्या यह है कि विश्व भर के राजनीतिज्ञ उनको सामान्य राजनीति के पैमाने से नापने का प्रयास करते हैं जबकि वह राजनीतिज्ञ है ही नहीं। मैं उन्हें उनके बड़बोलेपन के कारण उन्हें स्पष्ट वक्ता कहने से भी कतराता हूँ। जितना वह करते हैं, उससे अधिक वह बोलते हैं जिसके कारण आम राजनीतिज्ञ उन्हें गम्भीरता से नहीं लेते। ट्रम्प ने अपने चुनाव अभियान में घोषित किया था कि वह यू.एस.ए. के आयात-निर्यात के आर्थिक संतुलन को बनाने के लिए आयातित वस्तुओं पर प्रशुल्क लगाएँगे या बढ़ाएँगे। उस समय विश्व की अन्य सरकारें व्यंग्य करते हुए मुस्कुरा रही थीं कि ऐसा कर पाना असम्भव है। अब, जब ट्रम्प सत्तासीन हैं और उन्होंने जो कहा था, वही वह कर रहे हैं तब यू.एस. को निर्यात करने वाले देशों में भाग-दौड़ मची है। अधिकतर देश इसके लिए तैयार नहीं थे। जो ट्रम्प अब कर रहे हैं वैसा ही विश्व के अन्य देश पहले से करते रहे हैं। तभी तो अमेरिका का वाणिज्यिक संतुलन बिगड़ा हुआ है और उन्हें घाटे में ले जा रहा है। क्या ट्रम्प की नीतियाँ हानिकारक हैं? अमेरिका के लिए हों न हों, परन्तु अन्य यू.एस.ए. के मित्र देशों के लिए अवश्य हैं।
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मैं कैनेडा में पिछले बावन वर्षों से रह रहा हूँ। मैं कैनेडा और यू.एस.ए. में वाणिज्यिकी पारस्परिक निर्भरता और आर्थिक सम्बन्धों को अच्छी तरह समझता हूँ। कैनेडा के (अब) भूतपूर्व प्रधान मन्त्री जस्टिन ट्रूडो के ट्रम्प के साथ व्यक्तिगत संबंध कभी भी ठीक नहीं रहे। ट्रम्प उन्हें हमेशा कमतर आँकते रहे हैं। तभी तो ट्रम्प ने अपने बयानों में कैनेडा को यू.एस.ए. में विलय करने की बात कही और प्रधान मन्त्री ट्रूडो को गवर्नर बनने का न्यौता दे डाला। इसका प्रभाव कैनेडा पर गहरा पड़ा, ट्रूडो को त्यागपत्र देना पड़ा और अब कल ही कैनेडा के नए प्रधान मन्त्री मार्क कार्नी ने शपथ ग्रहण की है।
ट्रम्प के बड़बोलेपन से एक और बड़ी समस्या पैदा हो रही है जोकि मैंने इस बार अपने बेटे के पास न्यूजर्सी जाने पर व्यक्तिगत स्तर अनुभव की है।
मेरा मानना है कि दुनिया में लगभग देशों का एक सामूहिक चरित्र होता है जिसे अन्य देशों के लोग दूर से पहचान लेते हैं। यह एक प्रकार से उनका परिचय बन जाता है। यू.एस. के लोगों का यह राष्ट्रीय चरित्र दंभी होने का है। वह अन्य देशों के नागरिकों को सदा अपने से नीचा समझते हैं। उन्हें भ्रम रहता है कि यू.एस.ए. इतना अच्छा देश है कि सभी यू.एस.ए. में आना चाहते हैं। यू.एस.ए. के पढ़े-लिखे लोगों को भी विश्व के अन्य देशों के बारे में ज्ञान लगभग शून्य के बराबर है; अन्य देशों के इतिहास, सभ्यता, परम्पराओं की तो बात ही मत करो।
आपको एक अपना अनुभव बताता हूँ। बात शायद 1983 की है। मैं भारत से वापिस कैनेडा आ रहा था। वापसी पर हम (मैं, मेरी पत्नी और बड़ा बेटा) लन्दन में एक दिन के लिए रुक रहे थे। एयरपोर्ट से मैंने लन्दन के मध्य में एक होटल बुक किया और होटल पहुँचते ही अगले दिन घूमने के लिए एक पर्यटन-बस की बुकिंग कर ली, ताकि कम समय में जो भी देखा जा सकता है, देख लें।
अगले दिन बस में कई देशों के लोग थे। सभी चुपचाप बाहर देख रहे थे और गाइड को सुन रहे थे। बस की सबसे पीछे वाली सीटों पर तीन-चार युवा बैठे ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे थे, उनकी उम्र बीस से पच्चीस के बीच रही होगी। हँसी-मज़ाक शिष्टता की सीमाएँ लाँघ रहा था। गाइड ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया तो वह लोग और ज़ोर से बोलने लगे। हँसते हुए व्यंग्य करने के लगे कि “द्वितीय महायुद्ध में हमने तुम्हें बचाया” इत्यादि और भी न जाने क्या-क्या। बस “टॉवर ऑफ़ लंडन” पर रुकी क्योंकि यह एक ऐतिहासिक क़िला है। मैंने देखा कि इन युवाओं के बैग्ज़ पर कैनेडा का झंडा था। मुझे बुरा लगा कि इंग्लैंड में कनेडियन ऐसा अशिष्ट व्यवहार कर रहे हैं जैसा कि कनेडियन लोगों का चरित्र नहीं है। कनेडियन लोगों की पहचान शिष्टता और क्षमाप्रार्थी की है।
मैं गाइड के पास गया और उन धृष्ट युवाओं के व्यवहार के लिए क्षमा-याचना करते हुए कहा कि मुझे बुरा लग रहा है कि कनेडियन आपके साथ ऐसी उच्छृंखलता कर रहे हैं।
गाइड मुस्कुराया और कहने लगा, “आप चिंता मत करो। यह कनेडियन नहीं हैं, अमेरिकन हैं; यह लोग ऐसे ही हैं—डैम अमेरिकन्ज़।”
मैंने उनके बैग्ज़ की इशारा करते हुए कहा, “लेकिन उनके हैवर्सैक्स पर तो कनेडियन फ़्लैग है।”
गाइड का उत्तर और भी रोचक था, “हाँ, है न मज़े की बात, दुनिया को बचाने का दम भरते हैं और विदेश में जाकर कनेडियन झंडे के नीचे सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि अमेरिकन झण्डा लहराने से यह निशाने पर आ जाते हैं।”
चाहे मेरे अमेरिकी मित्र बुरा मानें पर सच्चाई यही है।
मैं वर्ष में कई बार न्यू जर्सी जाता हूँ और ड्राईव करके जाता हूँ। इस बार मुझे एक बहुत बड़ा अन्तर अनुभव हुआ। वह था कि ट्रम्प के आते ही अमेरिका के नागरिकों के एक बहुत बड़े वर्ग में आक्रामकता का भाव पैदा हो रहा है। ट्रम्प ने अपने बड़बोलेपन से एक ऐसा वातावरण तैयार कर दिया है कि यू.एस.ए. एक तरफ़ है और दूसरी ओर पूरी दुनिया उसे लूट रही है। अब अमेरिका खड़ा होकर अपने हितों की रक्षा करेगा। अपने हितों की रक्षा करना ग़लत नहीं है परन्तु आक्रामकता और अशिष्टता ग़लत है। जैसे, चाहे ज़लेंस्की ग़लत था परन्तु कैमरे के सामने उसे डाँटना भी उतना ही ग़लत था जितना कि जस्टिन ट्रूडो का संसद में खड़े होकर निज्जर की हत्या का आरोप भारत पर लगाना।
इस बार तीन-चार बार मेरी कार की नम्बर प्लेट को देखकर ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाया गया, जो कि यू.एस.ए. और कैनेडा में एक गाली के बराबर माना जाता है। यह केवल इसलिए हुआ क्योकि मैं कनेडियन हूँ, और यू.एस.ए. में घूम रहा था और मेरी कार की नम्बर प्लेट कनेडियन थी। क्या ट्रम्प का सामाजिक आचरण पूरे राष्ट्र के आचरण को बदल रहा है? यह चिंताजनक भी है और विचलित करने वाला भी।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
डॉ. शैलजा सक्सेना 2025/03/19 03:03 AM
बहुत सामयिक चिंता का विषय लेकर आपने उसका सहज विश्लेषण किया है। आपको बहुत बधाई और आपका आभार। हम भारतीय हैं पर हम कनेडियन भी हैं और अब कैनेडा की स्थितियाँ चिंताजनक होती जा रही हैं। ट्र्म्प एक बड़े ’बुली’ की तरह व्यवहार करता दिखाई दे रहा है। यह बात सही है कि अमेरिका की ओर से अन्य देशों पर कम टैरिफ़ लगाया गया था जबकि बाकी देश उस पर अधिक कर लगाते रहे हैं। अमेरिका की आर्थिक हालत अब वह नहीं है जो पहले थी। ट्रम्प अगर अपने देश के बारे में सोचता है तो अच्छा है पर जैसा आपने लिखा कि उसके लिए कैनेडा को ५१ वां राज्य बनाने की घोषणाएँ करना, अभद्र नहीं अपितु डरावना विचार है। कैनेडा की आर्थिक स्थिति को बिगाड़ कर उसे पराधीनता की स्थिति में ला देने से अमेरिका का दंभ भले बढ़ जाए पर उसका किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं होगा। कल वह कैनेडा को उसके संसाधनों के कारण ले लेना चाहता है, आज वह नेटो में जाकर ग्रीनलैंड लेने की बात कर रहा है जैसे दुनिया कोई चॉकलेट का डिब्बा हो और ट्र्म्प हर चॉकलेट उठा कर, उलट पलट कर देख रहा हो कि वह कौन सी चॉकलेट खाना चाहता है। एक बार फिर धन्यवाद कि आपने इस विषय पर लिखा।
डा. लता सुमंत 2025/03/17 05:08 PM
अति सुंदर संपादकीय। हार्दिक बधाई। नमस्कार.
शैली 2025/03/16 11:32 AM
दो देशों के चरित्रगत विशेषताओं का दिग्दर्शन कराने के लिए हार्दिक आभार। अमेरिका एक ज़माने में सर्वशक्तिमान होने का दम्भ रखता था तो ठीक था, दबदबा तो अस्थिरता पैदा करके ही बनाया जाता है, वो काम सभी शक्तिशाली देश सदैव से करते आए हैं क्या Ottoman Empire रहा हो, ब्रिटेन या अमेरिका। भारत और चीन से ये पश्चिमी देश तो चिढ़ ही रहे हैं, उनके एकाधिकार को चुनौती यहीं से मिल रही है। कैनेडा की छवि ट्रुडो ने बहुत बिगाड़ी, ट्रंप अमेरिका की बिगाड़ने पर तुले हैं। जो जैसा करेगा भरेगा भी वैसा ही... कुछ वर्ष और दादागीरी कर लें, बाद में तो एशिया ही power centre होगा, बुझने से पहले दिया भभकता है, अमेरिका भी भभक रहा है, ताप तो सभी देशों को भुगतना पड़ेगा।
ऊषा बंसल 2025/03/16 07:57 AM
सुमन जी ऐसे संवेदनशील विषय पर लिखने के लिए बहुत बहुत आभार। जब सत्ता परिवर्तन होता है तो हिंदी की कहावत याद आ जाती है , सूप बोले तो बोले , छलनी भी बोलने लगती है , जिसमें छेद हजार । अमेरिका में हालात और भी खराब हैं। अमेरिका में Eugenics तो बहुत कम संख्या में है। अधिकतर तो अन्य देशों से आये हैं। इन्होंने अपनी मूल सभ्यता का तो सफाया कर दिया। अब उधार की जोड तोड से बनी सभ्यता ही इनकी सभ्यता है। तब इनका स्वभाव , राजनीति केवल इयुजिन के हित में काम करें यह संदिग्ध है। प्रत्येक सरकार के कुछ अपने सहायक , सहयोगी होते हैं जिनके हित को वह सर्वोपरि रखते पर बहुमत की अनदेखी नहीं करते। इतिहास से हमने कोई सबक नहीं सीखा इसलिए वह बार बार दोहराता है। नौ दुर्गा, इतने अवतार इसीलिए बार बार हुए। जर्मनी का दुखद अंत हुए अधिक समय नहीं हुआ है पर अगर नस्लवाद फिर सिर उठायेगा तो उसका परिणाम पहले से भी भंयकर होगा। वक्त की बात है। इतिहास कोने में खड़ा चुनौती दे रहा है !!!
डॉ. सुषमा देवी 2025/03/15 10:44 PM
सुमन जी, अमेरिका की उद्दंडता के लिए कहीं-न-कहीं वहाँ जाने का सपना संजोने वाले देश भी जिम्मेदार हैं | मैं तेलंगाना राज्य के विभिन्न महाविद्यालयों में २३ वर्षों से हिंदी के प्राध्यापन क्षेत्र से संबद्ध हूँ| यहाँ हर तीसरे घर का व्यक्ति अमेरिका को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है | मोदी जी के शासन में आने के बाद से इस उन्माद में किंचित कमी तो आयी है, विदेश व्यामोह का पटाक्षेप होना शेष है| विचारशील संपादकीय के लिए साधुवाद देती हूँ |
लखनलाल पाल 2025/03/15 10:18 PM
साहित्य कुंज पत्रिका के इस अंक में कनाडा और अमेरिका के नैतिकता और अनैतिकता पर लम्बा संपादकीय लिखा गया है। यद्यपि मैं इन देशों को समाचार पत्रों या टीवी चैनलों के माध्यम से ही थोड़ा बहुत जान सका हूं। चूंकि आपको वहां रहते हुए एक जमाना बीत गया है तो आपकी बात ज्यादा प्रामाणिक होगी ही। किसी देश को जानना हो तो उस देश के नेता, खिलाड़ी और साहित्य से जान लिया जाता है। जस्टिन ट्रूडो कनाडा के प्रमुख रहे हैं। उनकी हरकतों से लगता था कि वे निरे देहाती हैं। शी जिनपिंग की फटकार और भारत से बेवजह पंगा लेकर मुंह की खाने के बाद ये समझ में आ रहा था कि कैसा देश है जिसमें कोई सेंस ही नहीं है। लेकिन आपकी संपादकीय ने भ्रम दूर कर दिया। कनेडियन नैतिकतावादी होते हैं। अपनी अशिष्टता छिपाने के लिए दूसरे देश के लोग कनाडा का सिंबल यूज कर लेते हैं। चूंकि अमेरिका विश्व की धुरी बन चुका है इसलिए उसके बारे में लगभग सब जानते हैं। यह भी जानते हैं कि उसे अपने ज्ञान, पावर का घमंड लिए हमेशा घूमता फिरता रहता है। कोढ़ में खाज यह हो गई कि ट्रम्प महोदय अमेरिका के राष्ट्रपति बनकर आ गए। वे भी अपनी हरकतों से पूरे विश्व को मथने में लगे हैं। ट्रम्प साहब ठहरे बनिया आदमी। झराझर अमेरिकी दुकान कैसे चले सो टैरिफ-टैरिफ की रट लगाए घूम रहे हैं। विश्व अभी तेल देख रहा है, हो सकता है कि कुछ समय बाद ट्रम्प महोदय जी को तेल की धार देखनी पड़ जाए। कुछ भी हो। हम इन देशों की बुराई खूब कर लें पर यह मानना पड़ेगा कि उन्होंने ये देश इंसानों के रहने के काबिल बना दिए हैं। तभी तो सारी दुनिया के लोग वहां रहना चाहते हैं। आप बड़े हैं, या आप हम लोगों से श्रेष्ठ है तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप हमारे साथ गलत करेंगे। हमारा शोषण करेंगे, हमें धमकाएंगे। भई ये करोगे तो हम अपना बचाव तो करेंगे ही। अब इसमें आप बुरा मानकर कुर्सी छोड़ दो तो हम थोड़े जिम्मेदार हैं। सुमन कुमार घई सर, आपने कनाडा और अमेरिका को लेकर बढ़िया संपादकीय लिखा है। आपको बहुत-बहुत बधाई सर।
निर्मल कुमार दे 2025/03/15 10:02 PM
बेबाक आकलन। अति सुंदर संपादकीय। हार्दिक बधाई सर।
महेश रौतेला 2025/03/15 08:23 PM
सही आकलन।यूएसए(अमेरिका) एक शक्तिशाली देश है। वह बार-बार ऐसा आचरण करता है। निक्सन के समय भी हम यह सुनते थे। एक ओर प्रजातंत्र की बात करता है दूसरी ओर सैनिक शासकों/तानाशाहों का भी समर्थन करता है। गलत और सही के बीच वह अपने हित चुनता है। शक्ति का विकल्प भी नहीं है या तो प्रशासक उदार हो। पूरा मानव इतिहास भी कुछ ऐसा ही है।
सरोजिनी पाण्डेय 2025/03/15 06:11 PM
संपादक महोदय भारतीय सूक्ति 'यथा राजा तथा प्रजा', एक शाश्वत सत्य है।
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
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- यू.एस.ए. और इसका चरित्र
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- और अंतिम संकल्प . . .
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2024
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- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
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- उलझे से विचार
Dr. Ritu Sharma Nannan Panday 2025/03/20 02:25 PM
आदरणीय संपादक महोदय, आपने विश्व कीं ज्वलंत समस्या पर हमारा ध्यान आकर्षित किया है । ट्रम्प के सत्ता में आने के बाद जो बदलाव आया है वह मैं नीदरलैंड में भी देख रही हूँ । मुझे नीदरलैंड में रहते हुए लगभग 22 वर्ष हो गए हैं और पिछले कई वर्षों से यहाँ के टाउन हॉल की परामर्श समिति की सदस्य के रूप। में कार्यरत हूँ। इसलिए ट्रम्प के सत्ता में आने से यूरोप भी चिंतित है। क्योंकि हम बहुत सारी चीज़ों को अमेरिका से आयात करते हैं। बायडन के काल में ही नहीं उससे पहले भी अमेरिका सबको अपना बाप समझ सबके बीच में टांग अड़ाता रहा है। हथियारों की मदद कर वह युद्ध को शांत नहीं बढ़ाता जा रहा है। यही ग़लती नीदरलैंड ने भी की यूक्रेन के युद्ध के लिए अपने 18 लड़ाकू विमानों को देकर और 18 मिलियन यूरो यूक्रेन को दे कर उनके पाँच लाख से अधिक लोगों को अपने यहाँ शरण लेकर। अब अपनी जनता के लिए घर नहीं है। यूरोप यूक्रेन के युद्ध के समय से ही आर्थिक संकट झेल रहा है और अब अमेरिका द्वारा सामान के आयात कर बढ़ जाने से और अमेरिका की तर्ज़ पर नीदरलैंड्स फर्स्ट की शुरुआत यहाँ भी हो गई है । एक सार्थक व सूचना परक संपादन के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद!