(अशिष्ट, अश्लील शब्द अंग्रेज़ी में कहने से मान्य और शिष्ट नहीं हो जाते)
प्रिय मित्रों,
पिछले सप्ताह टीवी पर एक हिन्दी वेब सिरीज़ देखी। कथानक अच्छा था, संदेश अच्छा था और वर्तमान भारतीय समाज के युवा वर्ग में भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग भी पैदा करने वाला था। अगर सब कुछ ठीक था तो मैं असहज क्यों हूँ? मैं, भारतीय लेखन, विशेषकर टीवी पटकथा लेखन की दिशा के प्रति चिंतित क्यों हूँ? शायद इसलिए कि टीवी के नाटकों की कहानियाँ भी साहित्य ही हैं। साहित्य समाज का दर्पण, इसीलिए हम उससे जुड़ पाते हैं और इसी जुड़ाव के कारण चिंतित हूँ।
हिन्दी सिरीज़ मेरे लिए मनोरंजन का ‘नया’ साधन है, क्योंकि मैं ऐसा ही समझता हूँ और मानता भी हूँ। टीवी पर सीरियलों के आरम्भिक दिनों में, मैंने बड़ी उत्सुकता से भी देखने आरम्भ किए थे परन्तु फिर जल्दी ही मन उचाट हो गया। सभी की एक-सी कहानी, एक-सी वेश भूषा और घटिया निर्देशन। कैमरे से हर शॉट में कैमरा मैन अपने करिश्मे दिखाने में अधिक समय गँवाता। एक ही वाक्य को चार-पाँच कोणों से दिखाया जाना और पार्श्व संगीत के नाम पर धम्म-धम्म का शोर—लगने लगा कि यह समय को व्यर्थ गँवाने से अधिक कुछ भी नहीं।
कुछ लोगों ने जब बार-बार कहा कि अब अच्छी सिरीज़ बनने लगी हैं जो ओटीटी पर रिलीज़ की जाती हैं, वह देखने योग्य हैं। मैंने साहस करके देखनी आरम्भ कीं और एक के बाद एक देखता चला गया। पहले अपराध जगत की सिरीज़ देखीं, क्योंकि अधिकतर वही चर्चा में थीं। उनमें रोमांचकारी, रहस्यमयी या वीभत्स दृश्यों के साथ मैं समझौता करता चला गया। कथानक अच्छे थे, संवाद भी सही थे। हाँ, गालियों की भरमार थी, पारिवारिक मूल्यों की हर संभावना की धज्जियाँ उड़ाई जा रहीं थीं फिर भी मैं स्वयं को समझाता रहा कि इस कहानी में पात्रों के अनुसार सब सही है। अपराधी से सच्चरित्र होने की आशा नहीं होनी चाहिए। मेरे मानस में धारणा बनने लगी कि अब छोटे पर्दे पर हिन्दी का मंच पाँव जमाने लगा है। कथानक के साथ न्याय करने लगा है। निर्देशन में गंभीरता है, चित्रण में कुशलता है, अभिनय भी चरम को छूता है। बल्कि मुझे हिन्दी फ़िल्म की अपेक्षा इन सिरीज़ में अधिक आनन्द आने लगा।
पिछले सप्ताह जो सिरीज़ देखी उसने मेरी धारणा को चकना-चूर कर दिया। इस सिरीज़ में केवल एक पात्र के संवादों ने, कम से कम मेरे लिए तो एक विकट प्रश्न खड़ा कर दिया। सिरीज़ है “बंदिश बैंडिट्स”! कहानी का उद्देश्य भारतीय शास्त्रीय संगीत को किसी भी प्रकार के संगीत की आधार शिला प्रमाणित करने का था और लेखक और निर्देशक ऐसा करने में सफल हुए हैं और बधाई के पात्र हैं। कहानी भी मूल रूप से अच्छी थी परन्तु मैं एक बात समझ नहीं पाया कि जब सभी पात्रों के संवादों में गंभीरता है, और स्तरीय हास्य बुना गया है तो फिर एक महत्त्वपूर्ण पात्र की भाषा और हास्य को क्यों गटर-छाप बना दिया गया है। पात्र पढ़ा-लिखा युवक है जो रॉकस्टार नायिका का मैनेजर/एजेंट है। वह प्रोड्यूसिंग कंपनी के साथ रॉकस्टार के अनुबंधों का समन्वय करता है। ऐसे पढ़ा-लिखा व्यक्ति एक भी वाक्य अश्लील शब्दों के प्रयोग के बिना नहीं बोलता। और अश्लील शब्द भी ऐसे-ऐसे जो दर्शक/श्रोता ने कभी सुने भी नहीं होंगे। लगता है कि लेखक ने इनका अन्वेषण करने के लिए गहन प्रयास किया होगा।
आप में से कुछ लोग कहेंगे कि यह एक मनोरंजन के लिए मंचित नाटक ही तो है, तो फिर इतनी गम्भीरता से विवेचन क्यों? चिंता क्यों? चिंता इसलिए कि विदेश में रहते हुए मैं भारतीय-चरित्र का ह्रास देख रहा हूँ। भाषा की शालीनता का ह्रास तो पश्चिमी जगत में हो चुका है और भारत उसी दिशा में जा रहा है। संभवतः पश्चिमी जगत की नक़ल करते हुए या प्रतिस्पर्धा में हिन्दी के व्यवसायिक साहित्यकार अपने दायित्व को अनदेखा कर रहे हैं।
आगे भी लिख चुका हूँ, मेरी धारणा है कि साहित्यकार दार्शनिक से भी बड़ा होता है क्योंकि वह अपने दर्शन को लिखता भी है और अपने लेखन द्वारा समाज के हृदय में उतर भी जाता है। वह उपदेश नहीं देता बल्कि उसके विचार अंतर्मन में पैठ कर मानवीय चरित्र को परिष्कृत करने का भाव उत्पन्न करते हैं। माना जाता है और कहा भी जाता है कि अहिन्दी भाषियों तक हिन्दी पहुँचाने में फ़िल्मों की बड़ी भूमिका रही है। यह बात टीवी सीरियलों पर भी लागू होती है। अगर पात्र अपने चरित्र के अनुसार शालीन भाषा का प्रयोग करेंगे, उसे ही तो युवा सुनेंगे और अपनायेंगे। माना कि खलनायक से हम अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह एक बुद्धिजीवी की भाषा बोलेगा परन्तु उसकी भाषा पर कुछ अंकुश तो लेखक लगा ही सकता है। इस सिरीज़ में एक पात्र के संवादों की भाषा को लेखन द्वारा सप्रयास निकृष्ट से निकृष्टतम बना दिया गया है।
मुझे बहुत पहले की एक घटना याद आ रही है। 1977 में मैं यू.एस. में टीआरडब्ल्यू डैटा सिस्टम के ट्रेनिंग सेंटर में तीन महीने के लिए सिंगर सिस्टम टेन कंप्यूटर का प्रशिक्षण लेने के लिए गया हुआ था। उन दिनों मैं यू.एस. के समाज और कनेडियन समाज के अंतर पर काफ़ी मनन कर रहा था। क्योंकि ट्रेनिंग सेंटर में विभिन्न स्टेट्स से इंजीनियर आते-जाते रहते इसलिए यू.एस. समाज के आंतरिक अंतरों को समझने अवसर मिलता था। एक दिन बात भाषा में गालियों के संक्रमण की हो रही थी। कैफ़ेटेरिया में लंच के दौरान हमारी टेबल एक पचास-साठ के बीच की आयु वाली एक सेक्रेटरी ‘डॉटी’ बैठी थी। मैं उस समय पच्चीस वर्ष का था और अन्य लोग भी तीस से कम आयु के ही थे। वह सभी को माँ की तरह संबोधित कर रही थी। उसने बताया कि जब उसने “गॉन विद द विंड” फ़िल्म देखी तो अंतिम संवाद में एक शब्द था जिसे सुनकर पूरा हाल स्तब्ध रह गया। मैं हैरान हुआ क्योंकि मैंने दसवीं कक्षा की छुट्टियों “गॉन विद द विंड” उपन्यास अंग्रेज़ी में पढ़ा था। मारग्रेट मिचल द्वारा यह १०३७ पृष्ठ का उपन्यास यू.एस. सिवल वॉर (गृह युद्ध) के संदर्भ में लिखा गया था। अंतिम पंक्ति में फ़िल्म का नायक/खलनायक नायिका के साथ सम्बंध विच्छेद करते हुए कहता है, “फ़्रैंकली, माय डियर, आई डोंट गिव ए डैम” (Frankly, my dear, I don't give a damn). उस समय के समाज (1940) “डैम” शब्द भी गाली थी जिसे सार्वजनिक स्थानों में बोलना अशिष्टता थी। अब घर-घर में “ऐफ़” शब्द आम बातचीत का हिस्सा है। विदेशों में ही नहीं बल्कि भारत में भी। यह बात अलग है अगर आप इस शब्द का हिन्दी अनुवाद करके बोलें तो शायद बड़ों के सामने स्वीकार्य न हो। परन्तु अगर हम इसी दिशा में बढ़ते रहे तो निःस्संदेह यह दैनिक भाषा हो जाएगी और बच्चे अपनी माँ के साथ भी वार्तालाप में इसका प्रयोग करेंगे।
चिंता इस बात की है कि हम पश्चिम की नक़ल करते-करते उनकी गालियों को अंग्रेज़ी भाषा में अपना रहे हैं। अर्थ तो वही हैं पर भाषा विदेशी होने के कारण शायद हम उसे उच्च वर्ग की भाषा के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। अशिष्ट, अश्लील शब्द अंग्रेज़ी में कहने से मान्य और शिष्ट नहीं हो जाते। उन शब्दों की फूहड़ता भाषा से धुल नहीं जाती।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
हेमन्त कुमार शर्मा 2023/12/07 06:45 PM
सहज प्रतिक्रिया है अपशब्द। वर्तमान के दायरे में विगत को नहीं देखा जा सकता।नायक अपने भाव प्रस्तुत कर के असल में अपनी मनोदशा की ओर संकेत करता है। गालियां बकने का भी फलसफा है - वह दूसरों को दी जाती है। स्वंय को इसका प्राप्ति कर्ता बनाना कोई नहीं चाहता। यहाँ यह भी ध्यान रखें अशिष्ट भाषा वही बकता है जो हीन-भावना का शिकार हो। अपने को दूसरे से सर्वश्रेष्ठ बताने का प्रयास भर है।यहाँ सुमन जी ने दो बात उठाई है - पहली वैब सीरीज में अपशब्दों का भरपूर प्रयोग गलत है और पाश्चात्य का अनुकरण हो रहा है। भारतीय अंग्रेजी में गाली देने लगे हैं और इसे वह शेखी मानते हैं जैसे झल्ला ने पर 'शिट ' शब्द एक उदाहरण भर है । अन्य गालियां यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं है।और साहित्य इस पर लगाम लगा सकता है। साहित्य तो कला की विधा ही उस तरह की है जिसमें अनर्गल बात को भी इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है कि वह अशिष्ट बात शिष्ट लगे।वैब सीरीज के स्क्रिप्ट राइटर कोई मुंशी प्रेमचन्द तो नहीं है।वह लिखेंगे अपने बहुमत दर्शकों के लिए। हम जैसे तो कभी कभी वैसे ही फंस जाते हैं इनके झांसे में।कला के हिसाब से यह उम्दा ही है। परंतु विष मिले भोजन की भांति इन्हें छोड़ ही देना चाहिए। चाहे वह कितना ही स्वादु हो। लगभग हर वैब सीरीज में यथार्थ को अतिशयोक्ति तक फिल्माने का जुनून है। कितना सही है कितना गलत यह समय ही बताएगा।अब बैडरूम सीन और वर्गल भाषा अगर छोड़ दिए जाए, जो इन वैब सीरीजों की जान है तो यह अधिक प्रभावी होगी और इसकी पहुँच ज्यादा दर्शकों तक होगी।सुमन जी प्रशंसा के पात्र हैं जिन्होंने इस महत्वपूर्ण वार्ता पर सब पाठकों का ध्यान दिलाया। एक बात और है जो मस्तिष्क में टिप्पणी लिखते हुए आई है। शायद मैं भी ऐसा ही हूँ।हम सब लेखकों को इस पत्रिका से जुड़े कुछ समय तो हो गया है। अभी भी संपादकीय पर टिप्पणी माँगनी पड़े यह हम सब के लिए लज्जा का विषय है।लेखक वर्ग कब अपना आलस्य छोड़ेगा।यह क्रिया तो हमें बिना कहे ही करनी चाहिए। अन्य अच्छी कृतियों पर भी कुछ कहना चाहिए। क्या केवल अपने सगे संबंधियों को ही प्रोत्साहित करना है या अपने मित्रों को।एक यह कारण भी है अच्छी कृतियों का प्राप्त ना होना।मन के भाव बहा कर ले गए।होश में आने पर क्षमा प्रार्थी हूँ।सुमन जी के लिए कुछ शब्द हैं --- तेरी कही सर माथे पर, तुझे तलाशा हाथों की लकीरों में, तेरा रूतबा ढूंढा खुदा के फकीरों में। - हेमन्त
राजेश'ललित'शर्मा 2023/12/03 05:00 PM
आदरणीय श्री सुमन कुमार घई जी,इसमें कोई संदेह नही आपने जो विषय उठाया है वह न केवल सामयिक है अपितु समाज की बदलती दशा को भी दर्शाता है। साहित्य जगत में इस पर पहले भी टिप्पणियां होती रही हैं। समाज में भी कसमसाहट होती रही है। परंतु केवल कुछ रुपयों के लिए फिल्म और टीवी निर्माण ने अपने सशक्त माध्यम को समाज को एक गर्त में धकेल दिया है।ओटीटी पर सरकार का भी दखल करने का अधिकार नहीं है।अत: उनको खुली छूट मिल गई है। पहले ही युवाओं में आधुनिकता और उदारवाद के नाम पर अपनी परंपराओं और संस्कृति से परे हो रहे हैं ।भाषा की मलिनता से ही मानस मलिन होते हैं। आपने उचित समय पर उचित मंच से जनजागृति का प्रयास किया है। आपको साधुवाद। साहित्य कुञ्ज' के रचनाकारों का समर्थन तो है ही। कृतज्ञ लेखक राजेश'ललित'शर्मा
आशा बर्मन 2023/12/03 02:29 PM
आदरणीय सुमन जी , मुझे आपका लिखा सम्पादकीय पढ़ना सदा से अच्छा लगता है | इस बार भी आपने भाषा से सम्बंधित एक सामयिक प्रश्न उठाया | हिंदी सीरियल में प्रयुक्त भाषा ,अव्यहारिक वेशभूषा तथा अनंतकाल तक चलनेवाले कथानक से ऊबकर मैंने भी हिंदी सीरियल देखना बंद कर दिया है | मैं बांग्ला के कार्यक्रम देखती हूँ | आप इस प्रकार के लेख लिखकर पाठकों को इस दिशा में. सोचने को विवश कर रहे हैं , साधुवाद ! -आशा बर्मन
विजय नगरकर 2023/12/01 08:45 PM
आदरणीय सुमन कुमार जी, आपने भाषा पतन की समस्या पर बहुत ही सटीक और महत्वपूर्ण बातें कही हैं। भाषा पतन एक गंभीर समस्या है, जिस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके लिए पश्चिमी सभ्यता की नकल, आधुनिकता की अंधी दौड़, मीडिया का प्रभाव आदि विभिन्न कारक प्रभावी है। भाषा का चमत्कारी फूहड़ प्रयोग जानबूझकर टीआरपी बढ़ाने के लिए सहेतुक किया जाता है। टीवी के अनेक कार्यक्रमों में स्तरहीन अश्लील प्रश्न प्रतिभागियों और उपस्थित दर्शकों द्वारा पूछे जाते है। यह कार्यक्रम संचालक द्वारा प्रायोजित किए जाते है। संवाद लेखकों पर दबाव रहता है। वित्तीय प्रबंध करनेवाले लोगों द्वारा हमेशा स्तरहीन,फूहड़ संवाद,प्रश्न थोपे जाते है। बाल कलाकारों के नृत्य और हावभाव अशोभनीय रहते है। यह एक प्रकार से बाल लैंगिक शोषण है। इनके गीत,हावभाव आयु को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि स्तरहीन दर्शकों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किए जाते है। लोकप्रियता के लिए साहित्य की बलि दी जाती है। प्रेमचंद,नीरज से लेकर अनेक महान साहित्यकारों का हिंदी फिल्म सृष्टि से मोहभंग हुआ है।
Anima Das 2023/12/01 04:42 PM
अत्यंत उत्कृष्ट एवं विचारणीय...
डॉ पदमावती 2023/12/01 02:59 PM
नमस्कार आदरणीय बढ़िया संपादकीय! आाजकल अश्लील लिखा जाता है,छपता है , अश्लील ही पढ़ा जाता है, पुरस्कृत होता है,अश्लील की ही माँग है क्योंकि अश्लील “बिकता “है । साहित्य सिनेमा सोशल मीडिया हर जगह यही चलता है । पश्चिम पर दोषारोपण अपराध बोध से मुक्त होने का बहाना है । आधुनिक कहलाने की होड़ में हमारे ही आदर्श संस्कार कपूर बनकर उड़ गए । दुखद है । आने वाली पीढ़ी के सामने बहुत बड़ी चुनौती है । बढ़िया संपादकीय । सच्चाई से रूबरू कराता।
महेश रौतेला 2023/12/01 02:54 PM
आपने सम्पादकीय में सही बात उठायी है। साहित्य का काम हमें सभ्य बनाना है। गाली में अश्लील शब्दों का प्रयोग वर्जित ही रहा है। कोई भी जन नेता अच्छा हो या बुरा इन शब्दों का प्रयोग जनता को संबोधित करने में नहीं करता है शायद पूरे विश्व में। तो साहित्यकार /नाटककार का उत्तरदायित्व तो उससे अधिक है। जिन शब्दों को सुनकर हम सहज नहीं रह पाते उन्हें टीवी पर दिखाना सही नहीं कहा जा सकता है।
सुधाकर मिश्रा 2023/12/01 12:34 PM
आपकी चिंता वाजिब है। आपके विचारों से मैं पूर्ण सहमत हूं।
shaily 2023/12/01 10:29 AM
जनमानस से जुड़े और आगामी पीढ़ियों के बारे में चिन्तित करने वाले सम्पादकीय के लिए हार्दिक आभार। वास्तव में ये चिंता का विषय है। पहले अंग्रेज़ी फ़िल्म और सीरीज़ में अभद्र भाषा सुन कर बुरा लगता था। लेकिन यह भी सत्य है कि विदेशी भाषा में कुछ शब्द मन में वैसी जुगुप्सा पैदा नहीं करते जितनी रोजमर्रा की भाषा के अभद्र शब्द विचलित करते हैं। अच्छा लगता था कि हमारे देश में बनी फ़िल्म और सीरीज़ में वैसी निम्नस्तरीय भाषा का प्रयोग नहीं होता। लेकिन धीरे-धीरे हिन्दी फ़िल्म और सीरीज़ अंग्रेज़ियत के अन्धे अनुकरण का शिकार हो गईं। अभद्रता इस हद तक पहुँच गयी है कि अफ़सोस होता है।
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
2024
2023
- टीवी सीरियलों में गाली-गलौज सामान्य क्यों?
- समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन?
- क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?
- क्या आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय है?
- दर्पण में मेरा अपना चेहरा
- मुर्गी पहले कि अंडा
- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित…
- जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ
- संभावना में ही भविष्य निहित है
- ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही
- प्रवासी लेखक और असमंजस के बादल
- वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
- कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती
- मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है
- मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी सिनेमा
- पेड़ की मृत्यु का तर्पण
- कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
- कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित ‘साहित्यिक’ मजमेबाज़ी
- गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ?
- मेरे पाँच पड़ोसी
- हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ
- गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता
- आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने…
- अरुण बर्मन नहीं रहे
2022
- अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही…
- आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ हैं!
- हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट…
- देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता
- भारत में प्रकाशन अभी पाषाण युग में
- बहस: एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म
- हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद का महत्त्व
- आपके सपनों की भाषा ही जीवित रहती है
- पेड़ कटने का संताप
- सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान
- अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
- बात शायद दृष्टिकोण की है
- साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!
- राजनीति और साहित्य
- कितने समान हैं हम!
- ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना के घोडे़
- भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी . . .!
- कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन
- बसंत अब लौट भी आओ
- अजीब था आज का दिन!
- कैनेडा में सर्दी की एक सुबह
- इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री
- नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प
- क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?
2021
- आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण रचनाओं की
- नींव नहीं बदली जाती
- सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी साहित्य में महत्व
- क्या इसकी आवश्यकता है?
- धैर्य की कसौटी
- दशहरे और दीवाली की यादें
- हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ
- विमर्शों की उलझी राहें
- रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट या सोशल मीडिया के मंच?
- सामान्य के बदलते स्वरूप
- लेखक की स्वतन्त्रता
- साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के साहित्य जगत में एक ख़ालीपन
- मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है
- शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा
- साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ
- कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य
- समीक्षक और सम्पादक
- आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास की और संगठित होने…
- अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही…
- राजनीति और साहित्य का दायित्व
- फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य की पुस्तकें क्यों…
- स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी
- सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’ फ़िल्म
2020
- यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता
- क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल का सूर्य
- शोषित कौन और शोषक कौन?
- पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण
- साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप समूह आरम्भ
- साहित्य का यक्ष प्रश्न – आदर्श का आदर्श क्या है?
- साहित्य का राजनैतिक दायित्व
- केवल अच्छा विचार और अच्छी अभिव्यक्ति पर्याप्त नहीं
- यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी!
- हिन्दी साहित्य को भविष्य में ले जाने वाले सक्षम कंधे
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 2
- पहले मुर्गी या अण्डा?
- कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 1
- लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी और संरक्षक
- यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने की भूख का सकारात्मक पक्ष
- एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा
- अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग
- आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं
- हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक
- लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत लौटना
- वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम और गुरु अर्जुन देव जी…
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- काठ की हाँड़ी केवल एक बार ही चढ़ती है
2019
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- कितना मीठा है यह अहसास
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
2018
2017
2016
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- लघुकथा की त्रासदी
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- मेरी प्राथमिकतायें
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- भाषा में शिष्टता
- साहित्य का व्यवसाय
- उलझे से विचार
वंदना मुकेश 2023/12/16 02:12 PM
बहुत ही सटीक और सामयिक संपादकीय है सुमन जी । यह प्रश्न मुझे निरंतर कचोटता है कि ओटीटी तथा युवा हास्य कलाकारों (स्टेंड अप कॉमेडियन ) द्वारा गालियों और का भद्दे संवादों का प्रयोग किया जाता है । इस संदर्भ में जमतारा नामक फ़िल्म का उल्लेख करना चाहूँगी । फ़िल्म का उद्देश्य तो बहुत अच्छा है । किंतु इतने भद्दे संवादों और गालियों का प्रयोग है कि परिवार के साथ देखने बैठे थे। लेकिन १५ मिनिट बाद ही बंद करना पड़ी। आगे की भाषा झेलने की क्षमता नहीं थी। एक हास कलाकार के कार्यक्रम में जाते बेटे में कहा, “मम्मी, प्लीज़ थोड़ी बहुत भाषा ख़राब हो तो प्लीज़ इग्नोर कर देना, वैसे मैंने कलाकार को डायरेक्ट मैसेज किया है कि माँ- बाप के साथ आ रहा हूँ , थोड़ा ख्याल रखना। “ कार्यक्रम शुरु हुआ और कलाकार महोदय ने एक डायलॉग दागा । एक भद्दी गाली के साथ, “ ***** तुम्हें माँ- बाप को लाने किसने कहा था, अब लाए हो तो भुगतो! “ कहने का तात्पर्य यह है कि आप किसी कार्यक्रम, किसी फ़िल्म में क्या देखेंगे, सुनेंगे उसकी कल्पना करना असंभव है। गाली तो गाली ही है । इस तरह की भाषा का जमकर विरोध किया जाना चाहिये । आपके संपादकीय में मेरा दुखती रग पर हाथ रख दिया । ये बात- बात पर गालियों का प्रयोग करनेवाले बच्चे धरोहर स्वरूप अगली पीढ़ी को क्या दे पायेंगे? धन्यवाद ।