प्रिय मित्रो
मेरे सम्पादकीय सोचे-समझे नहीं होते। प्रत्येक अंक में अन्तिम चरण सम्पादकीय लिखने का होता है। अंतिम क्षण तक अंक में कुछ न कुछ अपलोड करता रहता हूँ . . . सम्पादकीय के विषय को सोचने का समय ही नहीं मिलता। जो भी मन में आता है लिखने लगता हूँ। उसके पश्चात कहाँ से आरम्भ करके कहाँ पहुँचता हूँ इसका भी कोई पूर्वानुमान नहीं होता।
इस समय शाम के पौने पाँच बज रहे हैं और भारत में प्रातः के तीन पन्द्रह बजे हैं। और सम्पादकीय के विषय से संघर्षरत हूँ। उठ कर कमरे में घूमने लगता हूँ। खिड़की से बाहर देखता हूँ, पिछले सप्ताह के बर्फ़ के तूफ़ान की बर्फ़ अब जमकर ठोस हो चुकी है। बर्फ़ के ढेरों के कोने मटमैले हो चुके हैं। धवलता खो चुकी है। सड़कों पर वाहन न फिसलें इसलिए नमक और रेत का जो मिश्रण छिड़का गया था उसका नमक तो पिघलती बर्फ़ के साथ गटर में बह चुका है। बची है तो यह रेत और कीचड़़। हृदय से हूक उठती है—बसंत अब लौट भी आओ!
इन दिनों भारत के साहित्य में होली-बसंत की बातें होने लगती हैं। यहाँ अभी एक-आध बर्फ़ का तूफ़ान आना बा़क़ी रहता है। यहाँ कि कहावत है, “मार्च शेर कि तरह दहाड़ता आता है और मेमने की तरह मिमियाता जाता है”। इसी शेर की दहाड़ का इंतज़ार है ताकि उसके बाद बसंत का स्वागत कर सकें। शायद अधिक ही उत्सुक हूँ, भूल गया हूँ कि कैनेडा में बसंत से पहले वर्षा ऋतु का आगमन होगा। कल पहली मार्च है, उसके बाद अप्रैल में वर्षा होती है और मई में बसंत के फूल खिलने लगते हैं। एक और कहावत है “अप्रैल की बरसात मई के फूल लाती है”। अभी से बसंत की प्रतीक्षा क्यों कर रहा हूँ?
अपने कमरे पिछले लॉन को देख रहा हूँ। बर्फ़ के ढेर अभी भी लगे हैं। फ़ेंस के साथ-साथ सीधी धूप नहीं पड़ती। वहीं बर्फ़ के नीचे फूलों की क्यारियाँ हैं। पिछले वर्ष बाज़ार से बहुत कम फूलों के पौधे ख़रीदे थे। अधिकतर फूल वही थे जो हर वर्ष उग आते हैं। इस घर में आए हुए छह वर्ष बीत चुके हैं, अगर पिछले वर्ष को छोड़ दूँ तो कोई भी सब्ज़ी नहीं लगाई इस घर में। पिछले घर में दिल खोल कर सब्जी की खेती करता था। हाँ घर में सब्ज़ी की खेती। एक बार लौकी की चार बेलें इतनी फूली-फलीं कि सम्भालनी कठिन हो गईं। लौकी की तरकारी, कभी सूखी भाजी तो कभी रसे वाली। लौकी के कोफ़्ते, लौकी का रायता। नीरा तंग आ गई। कोई भी मित्र मिलता मीटर भर लम्बी लौकी थमा देता। अगर कोई खाने के लिए हमें आमन्त्रित करता तो फोन पर ही हिदायत दे देता—लौकी मत लाना!
अगले वर्ष ऐसा ही कुछ टमाटरों के साथ हुआ। पनीरी ख़रीदने में एक सप्ताह चूक गया। जब नर्सरी गया तो बचे-खुचे कमज़ोर से पौधे मिले। कुछ अधिक ख़रीद लिए सोचकर कि इनमें से आधे तो बचेंगे नहीं। पर होनी को कौन टाल सकता है या मेरे हाथों का जादू था कि एक सप्ताह में पौधे सिर उठाकर स्वागत करने लगे। उस वर्ष अस्सी पाउंड यानी 36 किलो टमाटर हुए! नीरा ने हाथ खड़े कर दिए, “आपने लगाए हैं आप ही निपटो”। पड़ोसी भी कितनी बार मेरे टमाटर स्वीकार करते? अंत में एक दिन नीरा को बाज़ार भेज कर घर के सभी भगौने टमेटो सॉस से भर दिए। जब मैंने इतना परिश्रम किया था तो नीरा का दिल भी पिघल गया और उसने सॉस को सँभाल दिया। इसका अर्थ यह नहीं है कि मुझे कोई दण्ड नहीं मिला। हाईकोर्ट का निर्णय था कि मैं आजीवन खेती-बाड़ी नहीं करूँगा। उसके अगले वर्ष हम वह घर बेच कर इस छोटे घर में आ गए। दोनों बेटे अपने अपने फ़्लैट्स में जा चुके थे।
परमात्मा की मेहरबानी कुछ ऐसी रही कि इस छोटे घर का लॉन पिछले बड़े घर से भी बड़ा है। पर मेरे हाथ बँधे हुए थे। नीरा भी कब तक बिना घर की सब्ज़ी के रहती; दो वर्ष पहले कहीं से मिर्चों के छह पौधे ख़रीद ही लाई। फूलों के पौधों के बीच उसने लगा दिए। दिन-रात पौधों को देखती। एक-एक पत्ती का हिसाब उसके पास रहता। मिर्च के छोटे-छोटे फूलों को देख कर ख़ुश होती। मैं मुस्कुराता कि अब इसे पता चल रहा है कि अपने हाथ से सब्ज़ी उगाने का क्या आनन्द होता है! मैंने दबी ज़बान में कुछ सलाह देनी चाही, उसने मेरी ओर देखते ही कहा—नहीं! सोचना भी मत और कहना भी मत!
पिछली गर्मियों में फिर एक दिन छह पौधे मिर्च के ले आई, अगले सप्ताह बैंगन के छह पौधे ले आई। कुछ दिन के बाद सिसीलियन बैंगन छह पौधे मुझे फिर दिखे। तब मैंने टोका कि क्या तुम्हें पता है कि बैगन के हर पौधे के बीच कितनी दूरी चाहिए? यह कहने भर की देर थी, उत्तर मिला—मैं ही सब कर रही हूँ, यह नहीं कि कुछ सहायता कर दो। ख़ैर सब्ज़ी उगाने का दायित्व मेरा हो गया पर उसने ख़रीदना नहीं छोड़ा। लौकी की चार बेलें भी आईं और चार प्रकार की मिर्चों के छह छह पौधे भी आए। अंत में छह पौधे शिमला मिर्च के भी आ गए। इतने पौधों का करता। सही दूरी पर लगाता तो वह बीच बचे हुए पौधे लगा देती। परिणाम यह हुआ कि बैंगन के हर पौधे को केवल एक ही बैंगन लगा। सिवाय मिर्च के कुछ ख़ास फ़सल नहीं हुई। सितम्बर में निर्णय लिया कि अगले साल योजनाबद्ध सब्ज़ी उगाई जाएगी।
इस वर्ष कहानी क्या होगी, मालूम नहीं। मैडम अभी भारत में हैं, मार्च के दूसरे सप्ताह लौटने वाली हैं। हमेशा कहता हूँ “घर घरवाली का होता है” आदमी तो उसकी दया से ही रह पाता है। वैसे दिल की बात कहूँ तो अब उसका यहाँ न होना भी अखर रहा है। शायद—बसंत अब लौट भी आओ का अर्थ कुछ और ही है!
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
शैलजा सक्सेना 2022/03/03 10:30 AM
यह संपादकीय एक कहानी सा रहा, मीठी सी कहानी सा...! आपका बसन्त तो मार्च में लौट आएगा, हम सब का तो अप्रैल अंत में ही आएगा। आपको बसन्त के पहले लौटने की बधाई! हाँ, यह और पता लगा कि आप अनेक कामों में पारंगत होने के साथ ही कृषि विभाग में भी सबसे आगे हैं। इस बार फिर आपकी सलाह से ही पौधे लगाऊँगी।
Sarojini Pandey 2022/03/01 03:35 PM
आदरणीय संपादक जी मैंने किशोरावस्था में कुछ रचनाएं लिखी और पत्रिकाओं को भेजी थी ।,परंतु वे सभी 'भविष्य में मेरे लिए सफलता की शुभकामना," लेकर लौट आती थी, अतः संपादक के प्रति मन में एक भय उत्पन्न करने वाला भावही आता था। लगता था संपादक एक पैनी छुरी लिए बैठा है और हर व्यसना को चीर फाड़ कर देखता और फिर उन्हें प्रकाशन योग्य अथवा अयोग्य करार देता है ।आज का आपका संपादकीय पढ़कर आनंद आ गया आज समझ में आया कि संपादक के हृदय में भी कोमलता और रोमांस होता है। सुन्दर ।
महेश रौतेला 2022/03/01 09:45 AM
"शिवरात्रि" की शुभकामनाएं। सुन्दर कृषि अनुभव का वर्णन आपने किया है। कक्षा ८ तक पहले कृषि एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता था। गाँव के जीवन का कृषि एक अभिन्न अंग होता था। यादें ताजा हो गयीं।
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अनिल कुमार 2022/03/10 10:37 PM
आदरणीय यह संपादकीय किसी कहानी के रोमांच से कम आनन्द देने वाला नहीं है। इसे पढ़कर आनंद आ गया।