प्रिय मित्रो,
पिछले दिनों प्रसिद्ध कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा ने फ़ेसबुक पर प्रश्न पूछा था - हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ हैं? सैंकड़ों लोगों ने उनके प्रश्न पर प्रतिक्रिया प्रकट की। मैंने भी एक टिप्पणी की। पर तेजेन्द्र जी के इस प्रश्न ने मन में उस संदेह को शब्द दे दिये जो कि हिन्दी के लेखक वर्षों से मन ही मन पूछते रहे हैं।
निःस्संदेह यह एक गंभीर प्रश्न है और इसका कोई सीधा उत्तर हो ही नहीं सकता। सदियों की उपेक्षा के इतिहास को कौन एक वाक्य, एक आलेख और एक संपादकीय में व्यक्त कर सकता है। फिर भी एक चर्चा आरम्भ करना चाहता हूँ और आप सभी को आमंत्रित कर रहा हूँ - इस विषय पर सोचें और अपनी प्रतिक्रिया लिख भेजें।
भारत के पारिवारिक जीवन में साहित्य की आजकल क्या भूमिका है - इससे मैं बिल्कुल अनिभिज्ञ हूँ। मैं तो अभी भी उस काल में अटका हुआ हूँ, जिस काल में मैं प्रवासी बना था। शायद हमारे लिए या मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए साहित्य मनोरंजन के सीमित साधनों के कारण महत्वपूर्ण था।
हो सकता है कि कोई तर्क दे, आज मनोरंजन के नए साधनों की बाढ़ है। इंटरनेट, सोशल मीडिया टी.वी. को पीछे छोड़ता जा रहा है। इस दौर में साहित्य कौन बैठ कर पढ़ेगा? यह तर्क ठोस नहीं है। पश्चिमी देशों को देखते हुए, जहाँ मैं जी रहा हूँ , साहित्य अभी भी जीवित है। साहित्य का ख़रीददार भी जीवित है। पुस्तकों का प्रारूप अवश्य बदल गया है या कहें प्रारूप के नये विकल्प हो गये हैं। पेपरबैक से लेकर ई-पुस्तकों के उतने ही ख़रीददार उपस्थित हैं जितने कि पिछली सदी में थे। बल्कि बढ़े ही हैं कम नहीं हुए। भारत में ऐसा क्या हो गया कि साहित्य के पाठकों की कमी हो गयी?
आज भारत या कम से कम महानगरीय समाज की तुलना पश्चिमी देशों के महानगरीय समाजों से करें तो दोनों एक ही स्तर पर हैं। पर यह समानता केवल ऊपरी सतह तक ही है। थोड़ा कुरेदो और समझो तो पश्चिमी देशों के समाज की सांस्कृतिक गहराई भारत की महानगरीय संस्कृति से कहीं अधिक है। क्योंकि पश्चिमी समाज की जड़ें पश्चिम की मिट्टी में पनपी हैं। इस मिट्टी की परतें ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हैं। भारत की महानगरीय संस्कृति आयातित है - भारतीयता का पुट तो है, जड़ें भारतीय हैं और ऊपर पौधा पश्चिमी संस्कृति की कलम बाँध कर विकसित हो रहा है। तो गहराई कैसे होगी। इसका सीधा प्रभाव साहित्य पर होगा ही विशेषकर हिन्दी साहित्य पर। पाठक एक ऐसा जीवन जी रहा है जिसकी जड़ें ऊपरी सतह पर ही फैली हैं और उसका जीवन विदेशी भाषा से सींचा जा रहा है; लेखक बेचारा क्या करे? कुछ हद तक उसकी रचनाएँ महानगरीय बाज़ार के अनुसार तो लिखी जा सकती हैं परन्तु भारत केवल महानगरों में ही तो नहीं बसता। जब घर में, स्कूल में, समाज में और काम पर भाषा ही भारतीय नहीं होगी तो भारतीय भाषाओं को पढ़ेगा कौन? विशेषकर जब भारत में भारतीय भाषा बोलने वाले को सामाजिक दृष्टिकोण से कमतर समझा जाता हो। कहते हुए बुरा तो लगता है, जब तक हिन्दी की पुस्तकें पढ़ना "फ़ैशनेबल" नहीं हो जाता महानगरों में हिन्दी साहित्य को संघर्ष करना ही पड़ेगा।
अब देखते हैं कि साहित्य का क्रेता/ख़रीददार कौन है? कहाँ रहता है? उसकी आर्थिक क्षमता क्या है? हालाँकि पिछले कुछ दशकों से मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं में वृद्धि हुई है। यह उपभोक्ता पुस्तकें खरीदने की आर्थिक क्षमता रखते हैं पर शायद खरीदते नहीं है। क्यों? यह एक विचारणीय प्रश्न है।
क्या मध्यवर्गीय समृद्धता के लक्षणों में हिन्दी साहित्य की पुस्तकें हाथ में होना या ड्राइंगरूम के टेबल पर दिखना पिछड़ेपन का चिह्न तो नहीं समझा जाता?
पश्चिमी देशों में साहित्य का पाठक स्कूल प्रणाली तैयार करती है क्योंकि यहाँ पर पाठ्यक्रम के अतिरिक्त पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। सिनेमा की टिकटों के लिए अगर लम्बी लाईन लगती है तो चर्चित पुस्तकों खरीदने वालों की भी उतनी ही लम्बी लाईन लगती है। इन देशों में न तो मनोरंजन के साधन सीमित हैं और न ही स्वदेशी भाषा के साहित्य को पढ़ना गँवारपन का प्रतीक समझा जाता है। इसका हो सकता है कि ऐतिहासिक कारण रहा हो। मध्यकालीन युग में क्योंकि पुस्तकें हस्तलिखित होती थीं तो यह केवल अभिजात्य वर्ग या धार्मिक मठों तक ही सीमित रहती थीं। छापेखाने का अविष्कार होने के बाद, समाज में उच्चवर्ग के लोगों में प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए हर घर में लाइब्रेरी का अलग कमरा होना अनिवार्य सा था। मध्यवर्गीय आर्थिक विकास के पश्चात यह पुस्तकें समाज के अधिकतर लोगों की पहुँच में हो गयीं। पुस्तकों की खरीदने, उन्हें पढ़ने और उन पर विचार करने की रीत अभी तक चली आ रही है।
मित्रो यह चर्चा की शुरूआत है। हो सकता है कि मेरे विचारों से आप सहमत न हों और उससे बढ़कर कुछ विचार चुभें परन्तु मेरे अनुभव के अनुसार जो मैंने कहा वह सच है। आशा है कि आप इस विचार शृंखला को न केवल आगे बढ़ायेंगे बल्कि अन्य मित्रों को भी इस दिशा की ओर प्रोत्साहित करेंगे।
- सादर
सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
2025
2024
- अपने ही बनाए नियम का उल्लंघन
- सबके अपने-अपने ‘सोप बॉक्स’
- आप तो पाठक के मुँह से केवल एक सच्ची आह या वाह सुनने…
- आंचलिक सिनेमा में जीवित लोक साहित्य, संस्कृति और भाषा
- अंग्रेज़ी में अनूदित हिन्दी साहित्य का महत्त्व
- कृपया मुझे कुछ ज्ञान दें!
- मैंने कंग फ़ू पांडा फ़िल्म सिरीज़ देखी
- मित्रो, अपना तो हर दिवस—हिन्दी दिवस होता है!
- गोल-गप्पे, पापड़ी-भल्ला चाट और यू.एस.ए. का चुनाव
- जिहदी कोठी दाणे, ओहदे कमले बी सयाणे
- बुद्धिजीवियों का असमंजस और पूर्वाग्रह
- आरोपित विदेशी अवधारणाओं का खण्डन करना होगा
- भाषा में बोली का हस्तक्षेप
- पुस्तक चर्चा, नस्लीय भेदभाव और विचार शृंखला
- हींग लगे न फिटकिरी . . .
- दृष्टिकोणों में मैत्रीपूर्ण व्यवस्था की अपेक्षा
- आधुनिक समाज और तकनीकी को समझना ही हिन्दी साहित्य के…
- स्मृतियाँ तो स्मृतियाँ हैं—नॉस्टेलजिया क्या, वास्तविकता…
- दंतुल मुस्कान और नाचती आँखें
- इधर-उधर की
- सनातन संस्कृति की जागृति एवम् हिन्दी भाषा और साहित्य…
- त्योहारों को मनाने में समझौते होते हैं क्या?
- आओ जीवन गीत लिखें
- श्रीराम इस भू-भाग की आत्मा हैं
2023
- टीवी सीरियलों में गाली-गलौज सामान्य क्यों?
- समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन?
- क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?
- क्या आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय है?
- दर्पण में मेरा अपना चेहरा
- मुर्गी पहले कि अंडा
- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित…
- जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ
- संभावना में ही भविष्य निहित है
- ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही
- प्रवासी लेखक और असमंजस के बादल
- वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
- कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती
- मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है
- मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी सिनेमा
- पेड़ की मृत्यु का तर्पण
- कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
- कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित ‘साहित्यिक’ मजमेबाज़ी
- गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ?
- मेरे पाँच पड़ोसी
- हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ
- गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता
- आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने…
- अरुण बर्मन नहीं रहे
2022
- अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही…
- आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ हैं!
- हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट…
- देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता
- भारत में प्रकाशन अभी पाषाण युग में
- बहस: एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म
- हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद का महत्त्व
- आपके सपनों की भाषा ही जीवित रहती है
- पेड़ कटने का संताप
- सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान
- अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
- बात शायद दृष्टिकोण की है
- साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!
- राजनीति और साहित्य
- कितने समान हैं हम!
- ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना के घोडे़
- भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी . . .!
- कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन
- बसंत अब लौट भी आओ
- अजीब था आज का दिन!
- कैनेडा में सर्दी की एक सुबह
- इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री
- नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प
- क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?
2021
- आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण रचनाओं की
- नींव नहीं बदली जाती
- सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी साहित्य में महत्व
- क्या इसकी आवश्यकता है?
- धैर्य की कसौटी
- दशहरे और दीवाली की यादें
- हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ
- विमर्शों की उलझी राहें
- रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट या सोशल मीडिया के मंच?
- सामान्य के बदलते स्वरूप
- लेखक की स्वतन्त्रता
- साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के साहित्य जगत में एक ख़ालीपन
- मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है
- शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा
- साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ
- कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य
- समीक्षक और सम्पादक
- आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास की और संगठित होने…
- अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही…
- राजनीति और साहित्य का दायित्व
- फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य की पुस्तकें क्यों…
- स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी
- सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’ फ़िल्म
2020
- यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता
- क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल का सूर्य
- शोषित कौन और शोषक कौन?
- पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण
- साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप समूह आरम्भ
- साहित्य का यक्ष प्रश्न – आदर्श का आदर्श क्या है?
- साहित्य का राजनैतिक दायित्व
- केवल अच्छा विचार और अच्छी अभिव्यक्ति पर्याप्त नहीं
- यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी!
- हिन्दी साहित्य को भविष्य में ले जाने वाले सक्षम कंधे
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 2
- पहले मुर्गी या अण्डा?
- कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 1
- लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी और संरक्षक
- यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने की भूख का सकारात्मक पक्ष
- एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा
- अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग
- आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं
- हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक
- लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत लौटना
- वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम और गुरु अर्जुन देव जी…
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- काठ की हाँड़ी केवल एक बार ही चढ़ती है
2019
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- कितना मीठा है यह अहसास
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
2018
2017
2016
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- लघुकथा की त्रासदी
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- मेरी प्राथमिकतायें
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- भाषा में शिष्टता
- साहित्य का व्यवसाय
- उलझे से विचार