प्रिय मित्रो,
आप सभी हिन्दी प्रेमियों को ‘हिन्दी दिवस’ की बधाई एवं शुभकामनाएँ!
एक और हिन्दी दिवस बीत गया। यह स्वाभाविक है कि इस दिन के महत्त्व, उद्देश्य और इसकी सफलता के विषय पर मैं इस दिवस की संध्या पर मनन कर रहा हूँ। हिन्दी की मुख्य धारा से अलग-थलग सदूर देश में अपने लैपटॉप के आगे बैठा विचार मग्न हूँ। इंटरनेट पर ‘हिन्दी दिवस’ पर जानकारी खोजनी आरम्भ की और इतिहास पता चला—यह दिन 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा लिए गए निर्णय के कारण हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाने का प्रतीक है।
मन में विचारों की तरंगे उठने लगीं। कोई कोमल तरंग कलाई पर चूड़ियों की खनखनाहट सी प्रतीत होती और कोई उद्दंड तरंग, तट की शिला से टकराती हुई छिन्न-भिन्न हो जाती। हिन्दी साहित्य का प्रेम मन-मानस पर एक फुहार सा बरसता और सरस भावों से भिगो देता। दूसरी ओर दिवस की परिभाषा कठोर, निर्जीव, और सत्ता के गलियारों में रची-बसी ठण्डक की वास्तविकता का बोध कराती। हिन्दी को भारत की आधिकारिक भाषा घोषित किए हुए 75 वर्ष बीत चुके हैं और आज भी हम हिन्दी की दिशा और दशा के प्रति चिंतित हैं। यह चिंता अकारण नहीं है।
आज सम्पादकीय लिखते हुए सोच रहा हूँ—जितने बरस मैं भारत में रहा, पढ़ा-लिखा मुझे पता ही नहीं चला कि हिन्दी भाषा के लिए कोई दिवस भी होता है। न तो कभी स्कूल में मनाया गया और न ही किसी पत्रिका या समाचार पत्र के पन्नों पर मैंने पढ़ा। यहाँ आने के वर्षों बाद इंटरनेट पर हिन्दी के पदार्पण के बाद पता चला कि हिन्दी दिवस भी कुछ होता है। मन में एक शंका यह भी है कि मैं पंजाब में पला-बढ़ा हूँ और हिन्दी भाषी नहीं हूँ इसलिए इस दिवस से अनभिज्ञ हूँ। यह सच है कि घर में पंजाबी बोली जाती थी, परन्तु घर का वातावरण तो हिन्दी साहित्य का था। बच्चों के लिए चन्दामामा, पराग और राजा-भैया पत्रिकाएँ आती थीं। माँ धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सरिता, मनोरमा, सारिका निरन्तर पढ़ती थीं। फिर भी हिन्दी दिवस छिपा रहा, कभी देखा-सुना नहीं।
दूसरा विचार यह आ रहा है कि वास्तव में हिन्दी दिवस दो नौकाओं पर सवार है। एक तो हिन्दी प्रेमियों के मन में, दूसरा सत्ता की पीठ पर। इस तरह से हिन्दी दो आयामों में दो समानन्तर दुनियाओं में जीती प्रतीत होती है और दोनों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। भाषा किसी पर थोपी नहीं जा सकती परन्तु आधिकारिक भाषा थोपी जा सकती है। अनमने मन से जब किसी भाषा को ढोना पड़ता है तो उस भाषा की वही दशा होती है जो आज हिन्दी की है। अँग्रेज़ों के काल से जो स्थापित प्रशासन तन्त्र हमें स्वतंत्रता के बाद थाती में मिला उसे ज्यों का त्यों भारत ने स्वीकार कर लिया। प्रशासन की परम्पराएँ ज्यों कि त्यों रहीं। अन्तर केवल यह आया कि प्रशासन की पोषाक खद्दर की हो गई। आत्मा अभी भी पश्चिमी लिबास ओढ़े रही। ऐसे में हिन्दी कहाँ पनप पाती—बेचारी सूती धोती में लिपटी अबला सी। दूसरी ओर हिन्दी पुत्र साहित्यकार माँ को सजाते शृंगारते रहे पर अपने ही घर में उपेक्षित रही भारती माँ। कुछ सबल हिन्दी पुत्रों ने माँ पर अपना अधिकार ऐसा जमाया कि माँ का दम घुटने लगा और पुत्र भी वर्गों में बँट गए। कोई दिल्ली वाला हो गया तो कोई उत्तर प्रदेश का। कोई राजस्थानी, मराठा हो गया तो कोई पंजाबी। जो दिल्ली से जितना दूर, उतना ही उसका अधिकार माँ पर कम। वर्षों तक परम्परा चलती रही। इंटरनेट पर आने के बाद ऐसी खलबली मची कि स्थिति सम्भाले नहीं सम्भल रही है। यह तो हिन्दी प्रेमियों की दुनिया है।
दूसरी आधिकारिक दुनिया है जो हिन्दी माँ को राजनीति बिसात पर मोहरे की तरह बिठा रहै और उठा रही है। हिन्दी के संस्थान तो स्थापित हो गए हैं, परन्तु अभी तक कोई ऐसा आधिकारिक शब्दकोश नहीं दे पाए हैं जो सर्वमान्य हो और जन-जन तक की पहुँच में हो। अभी तो हिन्दी वर्तनी के मानकीकरण पर बार-बार उलझ रहे हैं। कहीं हिन्दी का अपना व्याकरण उचित ठहराते हैं तो कहीं संस्कृत का व्याकरण मान्य हो जाता है। एक ही शब्द की अलग-अलग वर्तनी उचित ठहरा दी जाती है।
इंटरनेट पर हिन्दी अभी भी व्यक्तिगत प्रयासों से टिकी हुई है। सरकारी वेबसाइट्स बनती हैं और बासी हो जाती हैं। हर चार वर्ष के बाद वैश्विक सम्मेलन में इंटरनेट पर उपस्थिति को बढ़ाने की योजनाएँ बनती है, समितियों का गठन होता है और उसके बाद कहाँ क्या होता है, किसी को पता नहीं चलता, अगले सम्मेलन तक कुम्भकर्ण की नींद में सो जाती हैं।
आज इस निष्कर्ष पर पहुँच रहा हूँ, हिन्दी, भाषा प्रेमियों के हृदय में जीवित थी और रहेगी। प्रशासन की भाषा फ़ारसी हो, उर्दू हो, अँग्रेज़ी हो या आज की जो भी भाषा है . . . वो हो! हिन्दी दिवस आते भी रहेंगे, जाते भी रहेंगे और आधिकारिक स्तर पर हर १४ सितम्बर को मनाए भी जाते रहेंगे। मित्रो, अपना तो हर दिवस—हिन्दी दिवस होता है! आप सभी को पुनः हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएँ
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2024/09/15 08:39 PM
साहित्य कुन्ज के माध्यम से सम्पादक जी प्रतिदिन मुझ जैसे सैंकड़ों पाठकों व लेखकों के मन में हिन्दी के प्रति सोया हुआ प्रेम जगा रहे हैं। पिछले चालीस से भी ऊपर वर्षों से विदेश में निवास करते हुए यहाँ की अंग्रेज़ी सहित पंजाबी, उर्दू व अन्य भाषाओं को जाने-अनजाने में अंगीकार कर मैंने अपनी भाषा को खिचड़ी बनाकर परोसना आरम्भ कर दिया था। यहीं के जन्मे मेरे बच्चों का स्कूल जाना क्या हुआ कि मैंने अपनी रही सही मातृभाषा हिन्दी को भी लगभग भुला ही दिया था। परन्तु अप्रैल 2021 में जब से साहित्य कुन्ज से अचानक परिचय हुआ तो प्रेरित हुए बिन रहा न गया। भूले-बिसरे शब्दों की धड़ाधड़ वर्षा ने मस्तिष्क में जमे जंग को हटाना आरम्भ कर दिया। परिणाम स्वरूप मेरी लेखनी का स्वरूप स्वतः ही परिवर्तित होने लगा है। 'हर दिवस हिन्दी दिवस' का आभास दिलाने व मुझे मेरी मातृभाषा से पुनः जोड़ने के लिए आदरणीय सम्पादक सुमन जी का ढेरों आभार।
प्रतिभा राजहंस 2024/09/15 07:42 PM
आदरणीय संपादक महोदय , प्रणाम! आपका लिखा संपादकीय पढकर आपकी चिंताओं से सहमत हूँ मैं। हमारी इच्छाशक्ति पर हमारा वश है। हम चाहें तो शासकों पर दबाव बना सकते हैं। परंतु, पहले सबों की सोच तो एक हो। हममें से अधिकांश जन ( भारतीय) इसी बात से खुश हो रहे हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेजीदां हैं और विदेश में बस कर मौज कर रहे हैं। यह कहते नहीं अघाते हैं कि हमारे नाती- अंग्रेजी में ही बतियाते हैं। उन्हें हिन्दी नहीं आती है। भला ऐसे में हम हिन्दी भाषा के लिए क्या सोचेंगे और क्या करेंगे? अभी अगर हम भारतीय एक जुट होकर सरकार पर दबाव बनाएं तो काम बन सकता है। वर्तमान सरकार ने नयी शिक्षा नीति में भाषा संबंधी मजबूत कदम उठाए हैं। वैसे तो वोट की राजनीति में भाषा का हितचिंतन संभव नहीं होता है। फिर भी हमें सोचना होगा कि हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं है। यह हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती है। आप देश से दूर होकर भी हिन्दी के लिए प्रयत्नशील हैं। यह हमारा मनोबल बढाता है और लिखने- पढने के लिए प्रेरित करता है। आभार
सरोजिनी पाण्डेय 2024/09/15 10:09 AM
आदरणीय संपादक महोदय बहुत ही बढ़िया संपादकीय, "टेढ़ी है या मेढ़ी है मेरी भाषा मेरी है!! यदि आप सुदूर कनाडा में बैठे हुए इस बात पर गर्व करते हैं कि आपका हर दिन हिंदी दिवस है, तो फिर भारत में बैठा हुआ हिंदी मातृभाषी अथवा हिंदी प्रेमी जो ऐसा न सोच उसके लिए तो यह डूब मरने जैसी बात है। 'हिंदी मीडियम' होना जब गाली न समझी जाएगी वह सुबह कभी तो आएगी, वह सुबह कभी तो आएगी।।
निर्मल कुमार दे 2024/09/15 10:04 AM
सर,आपकी संपादकीय टिप्पणी पढ़ी।बहुत ही सारगर्भित और सटीक लिखा है आपने।आपकी मातृभाषा पंजाबी है यह जानकर सुखद अहसास हुआ। सुदूर कनाडा में रहकर आप नियमित रूप से पत्रिका का संपादन करते आ रहे हैं।इस पत्रिका में भारत के अलावे अन्य देशों के रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ने को मिल जाती हैं। आपका हिंदी -प्रेम और हिंदी -सेवा अप्रतिम है। मेरी दो लघुकथाओं को इस अंक में स्थान दिया गया है। सादर नमस्कार। आभार व्यक्त करता हूँ। निर्मल कुमार दे जमशेदपुर 15/9/24
महेश रौतेला 2024/09/15 10:02 AM
सुन्दर। मैंने भी विद्यार्थी जीवन में कभी हिन्दी दिवस का नाम नहीं सुना। न ही अपने जन्मदिन का पता था। समय के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं। हमारी पृथ्वी लगभग 6 अरब वर्ष पुरानी है। जिसमें लाखों- करोड़ों परिवर्तन हुये। मैंने कहीं पढ़ा जिसमें अमीबा से मनुष्य बनने की कथा लिखी है लेकिन प्राण कैसे आये यह नहीं लिखा है। ऐसा ही भाषा का होना भी है।
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शैली 2024/09/30 07:59 AM
वस्तुस्थिति का सटीक लेखा जोखा दिया है आपने। गांधी के कारण जैसी बीमार स्वतंत्रता (?) भारत को मिली और नेहरू जैसे राजनयिक तो भारत का और हिन्दी का भविष्य ऐसा ही होना था। काश भारत के सच्चे भारतीय क्रांतिकारियों की क्रांति के बाद यदि स्वतंत्रता मिलती तो एक देशगत अभिमान और सम्मान देसवासियों में आता तब अपनी हिंदी भाषा को राष्ट्र भाषा का सम्मान और स्थान मिलता। हिंदी में व्याप्त खेमेबाज़ी ने भी कम हानि नहीं की है हिंदी की। बस आशा है आप जैसे कुछ तटस्थ और शुद्ध हिंदी प्रेमियों से कि हिंदी का अस्तित्व कुछ वर्षों तक बना रहेगा। बाकी एक दो पीढियां बीतते बीतते भारत में अंग्रेज़ी ही रह जायेगी। एक स्थानीय भाषा की तरह हिंदी रह जायेगी, ऐसा अंदेशा नहीं विश्वास सा है। एक अच्छे संपादकीय के लिए हार्दिक धन्यवाद।