प्रिय मित्रो,
भारत के 75वें स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर “अमृत महोत्सव” की हार्दिक बधाई। मातृभूमि से सहस्त्रों किमी दूर इस अवसर पर भावों, विचारों की उर्मियाँ मानस पटल पर उठ रही हैं। स्वतन्त्रता के 75 वर्ष के बाद भारत विश्व पटल पर जिस स्थान पर स्थापित हुआ है, हम सब भारतीय/भारतीय मूल के व्यक्तियों के लिए गर्व का स्रोत है। इस गर्व का कारण भारतीय शासन का कुशल प्रशासन और सोची-समझी नीतियाँ हैं। आज भारत वैश्विक शक्तियों के समक्ष सिर झुका कर नहीं आँख में आँख डाल कर बात करने में सक्षम है। यद्यपि मैं एक प्रवासी भारतीय हूँ जिसकी नागरिकता भी कनेडियन है, फिर भी भारत की बढ़ती समृद्धता मुझे संतोष देती है। कई बार मन में प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों होता है? क्या नागरिकता त्यागने से ही गर्भनाल भी कट जाती है? नहीं, यह कभी संभव ही नहीं हो पाता। वर्षों के बाद, लगभग पूरा जीवन विदेश में जीने के पश्चात भी मेरा अंतर्मन भारतीय ही है। अन्य लोगों के लिए भी, जो मेरे लिए अजनबी हैं, मैं भारतीय ही हूँ, क्योंकि देखने में भारतीय लगता हूँ। शायद वह मेरे भारतीय-कनेडियन होने तक भी नहीं पहुँच पाते। मेरी चमड़ी के रंग पर ही रुक जाते हैं।
पिछ्ली बार जब मैं भारत गया तो मुझे अनुभव हुआ कि समाज में कई वर्ग पैदा हो चुके हैं। एक वर्ग है, जो भारत में रहते हुए भी भारत में नहीं रहता। वह मानसिक स्तर पर अपने आपको पश्चिमी जगत से जोड़ कर देखता है। जीवन की प्रत्येक गतिविधि में वह पश्चिमी संस्कृति, भाषा, रहन-सहन और खान-पान को अपनाना चाहता है। त्रासदी यह है कि उन्होंने कभी विदेश देखा ही नहीं। अगर देखा भी है तो केवल एक पर्यटक बनकर या सोशल मीडिया द्वारा। उनका विदेशी अनुभव वैसा ही था जैसा—तालाब में उतरे बिना तैरना सीखे तैराक जैसा। यह वर्ग प्रायः मुझे हास्यास्पद भी लगता था। न तो इनकी इंग्लिश सही थी न ही कपड़े पहनने का ढंग। इन पर वही धोबी और गधे वाला मुहावरा सही बैठता है। क्योंकि न तो इन्हें हिन्दी आती है और न ही इंग्लिश।
दूसरा वर्ग अजीब-से बुद्धिजीवियों का है। यह वर्ग भारत की किसी भी उपलब्धि पर गर्व नहीं करना चाहता। यह वर्ग अपने आपको प्रशासन से अधिक बुद्धिमान समझता है। उन्हें पूरा विश्वास है कि वर्तमान प्रशासन कोई भी काम ठीक नहीं कर सकता। यह कॉफ़ी टेबल पर बैठे-बैठे भारत की संस्कृति से लेकर जन-मानस तक की निन्दा खुले मन से करते हैं। इन लोगों की विचारधारा वामपंथी होती है पर व्यक्तिगत आचार-व्यवहार पूँजीवादी होता है। संभवतः वामपंथी विचारधारा का प्रदर्शन अपने जैसे लोगों से सामाजिक स्वीकृति लेने के लिए होता है। मुझे हिन्दी का कोई शब्द नहीं मिल रहा परन्तु इंग्लिश में कहेंगे कि वह अपनी मित्र मंडली में ‘कूल’ दिखना चाहते हैं। इन्हें भारत में जन्मे हर धर्म में दोष दिखाई देते हैं और मुक्त कंठ से उन पर व्यंग्य कसते हैं। कई बार तो लगता है कि इनके लिए यह लज्जाजनक है कि वह भारतीय हैं और ऐसे धर्म में पैदा हुए हैं जो आयातित नहीं है। इनका हाल गाँधी जी के तीन बन्दरों जैसा है पर इन्हें भी अपनी विचारधारा के अनुसार ही स्वीकार करते हैं। यह केवल वही सुनते हैं, जो सुनना चाहते हैं। वही बोलते हैं, जो उनके स्वार्थ को सिद्ध करता है। और वह केवल वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं। यानी इनमें दिन में रात और रात में दिन देखने की भरपूर क्षमता होती है। हाँ, एक विशेषता इनमें और भी है। यह एक अपनी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के अभिन्न अंग भी हैं। तभी तो कोई घटना या कोई मुद्दा भारत का होता है परन्तु इनके आर्टिकल (लेख शब्द इन्हें स्वीकार नहीं हो शायद) न्यूयॉर्क टाइम्स या वाशिंगटन पोस्ट इत्यादि में प्रकाशित होते हैं।
यहाँ मुझे एक बहुत पुरानी बात याद आ गई। यह उस समय की घटना है जब नर्मदा बांध बनना आरम्भ हुआ था। एक अमेरिकन चैनल पर एक वृत्तचित्र धड़ल्ले से दिखाया जा रहा था कि किस तरह से यह बांध जन-जीवन को तहस-नहस कर देगा। अपने तर्क को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने एक विरोध प्रदर्शन का क्लिप दिखाया। जिसमें मेधा पाटकर (उस समय युवती थीं) विरोध-प्रदर्शन कर रहीं थी। उनके साथ मुश्किल से दस लोग ही थे। नारों के बीच वह प्रदर्शन की वीडियो खींचने वाले को निर्देशन भी दे रही थीं। दो मिनट की नारेबाज़ी के बाद इस समूह ने अपना सामान इकट्ठा करना आरम्भ किया और मेधा बार-बार वीडियो खींचने वाले लो आदेश दे रहीं थीं, “यह ख़बर कल तक यू.एस.ए. में अवश्य छपनी चाहिए।” मेधा अपने उद्देश्य में सफल रहीं क्योंकि वह क्लिप डाक्युमेंटरी का अंश बना, जो मैं देख रहा था। यह बात अलग है कि मेधा के निर्देशों को वीडियो की सम्पादन प्रक्रिया में निकाला नहीं गया था जिससे विरोध-प्रदर्शन का वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट हो गया था। मैं इस बुद्धिजीवी वर्ग की मानसिकता पर विस्मित हूँ। यह प्रशासन के दोष तो गिनाते हैं, परन्तु कोई विकल्प सुझाना इनकी बौद्धिक क्षमता से परे है। इन्हें मोदी नहीं चाहिए परन्तु ‘मोदी के स्थान पर कौन?’ पूछने पर बग़लें झाँकने लगते हैं।
तीसरा वर्ग असहिष्णु लोगों का था। उन दिनों शाहीन बाग़ और मुस्लिम दंगे चल रहे थे। वातावरण में गर्मी थी। मुझे लगा कि समाज दो ध्रुवों में बँट रहा था। गढ़े मुर्दे खोदे जा रहे थे। भारत का यह चेहरा विकृत और वीभत्स था। इस दशा के लिए केवल राजनैतिक स्वार्थ और धर्म की कट्टरवादिता ही ज़िम्मेदार थी। मध्य मार्गीय लोग चुप थे और आज भी चुप हैं।
अमृत महोत्सव पर अंत में कामना करता हूँ कि भारतवासियों में राष्ट्र के प्रति अनुराग पैदा हो। समाज में सद्भावना का उदय हो। सब वर्गों में राष्ट्रीयता का गर्व हो। पिछले एक दशक में भारत ने जो उन्नति की है उसे प्राप्त करने के लिए अन्य देशों में कई-कई दशक लग जाते हैं। जिस गति से भारत अपनी निर्धारित दिशा की ओर अग्रसर हो रहा है, उस पर हम सब भारतवंशियों को मान होना चाहिए। क्योंकि सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान निहित है!
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
प्रदीप श्रीवास्तव 2022/08/15 10:29 PM
संपादकीय में आपकी भावनाओं से यह स्पष्ट है कि भले ही आप दूर देश कैनेडा में बसे हैं, बरसों-बरस से वहीं के नागरिक हैं, लेकिन मन-प्राण से आज भी पूर्णतः भारतीय हैं, भारतीय मूल का होने , मूल देश भारत पर आपको आज भी गर्व है, यह किसी भी सच्चे भारतीय के लिए प्रेरणा और गौरव की बात है. आजादी के बाद तथाकथित समाजवादी व्यवस्था, सेकुलर वाद, वामपंथियों ने इस सनातन देश, सनातन संस्कृति की जड़ों में मट्ठा डालने का अनवरत प्रयास न किया होता तो आज भारत से 2 वर्ष बाद आजाद होने वाला चीन प्रगति में कई दशक आगे ना हुआ होता, तिब्बत सहित भारत की हजारों वर्ग मील जमीन ना ले पाता. आपने प्रसंग वश एक देशद्रोही मेधा का वर्णन किया लेकिन यहां गली गली में ऐसे गद्दारों के झुंड हैं. अभी जल्दी ही देश द्रोही मेधा की जांच शुरू हुई तो केवल एक दो मामले में ही करीब पंद्रह करोड़ रुपये के घोटाले उनके सामने आए हैं. बाहरी देशों से अकूत धनराशि गैर कानूनी तरीके से प्राप्त करने के आरोप हैं. काम केवल भारत की सभी विकास परियोजनाओं को रोकना. आपने शाहीन बाग मामला उठाया, यह बात भी अब खुलकर सामने आ गई है कि यह विशुद्ध रूप से कांग्रेस और कई अन्य राजनीतिक पार्टियों ने , विदेशी शक्तियों के सहारे, भाड़े के टट्टूओं के जरिए भारत में अराजकता पैदा करने का प्रयास किया था. इसी कड़ी में अगला कदम तथाकथित किसान आंदोलन था. आप दूर देश में बैठकर अपने मूल देश की चिंता कर रहे हैं संपादकीय लिख रहे हैं लेकिन दुखद यह है कि देश में ही साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग आश्चर्यजनक रूप से चुप रहता है. ऐसे में आपका काम और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. इसके लिए आप की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है. दुनिया में कोई भी भारत की वर्तमान स्थिति को थोड़े समय में ही जानने का इच्छुक हो तो उसे इस संपादकीय को पढ़ना चाहिए. आपने पूरी तस्वीर ही उकेर दी है. आपको बहुत बहुत धन्यवाद.
Praveen kumar sharma 2022/08/15 09:57 PM
वास्तवमें इस सम्पादकीय के माध्यम से आपने भारत की वर्तमान उप्लब्धियों का गर्वित वर्णन कर दिया है ।इसके साथ साथ भारत के अंदर लोगों में उपज रही वैमनस्यता को उजागर करते हुए भविष्य में यहां के लोगों को किसी भी वैमनस्यता के भयंकर परिणामों की चेतावनी भी दे दी।बहुत सुंदर।
सरोजिनी पाण्डेय 2022/08/15 04:27 PM
आदरणीय संपादक महोदय भारत से हजारों मील दूर रहकर भी आपने जो भारत की सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है ,एकदम सटीक है ।इस तरह का मानसिक विभाजन समाज तो क्या ,एक परिवार में ही देखने को मिलता है,,। जिस मानसिकता को आपने अंग्रेजी के कूल शब्द से परिभाषित करने किया है उसके लिए भारत में सेक्युलर और प्रबुद्ध शब्दों का प्रयोग होने लगा है । पिछले कुछ वर्षों में इस मानसिकता में थोड़ा कमी आई है ,परंतु वह कितनी स्थाई और व्यापक होगी वह तो समय बताएगा । सामयिक और भावपूर्ण संपादकीय के लिए बधाई
आशा बर्मन 2022/08/15 12:50 PM
अत्यंत प्रभावपूर्ण सम्पादकीय लेख सुमन जी , मैं पूर्णरूप से आपसे सहमत हूँ ,बधाई ! आशा बर्मन
राजनन्दन सिंह 2022/08/15 10:34 AM
सधी हुई संपूर्ण संपादकीय। भारत, भारतीय और भारतीय विचारों का एक चित्र हीं उपस्थित हो गया। बहुत से लोग भारत में रहते हुए भी भारतीय नहीं हैं और बहुत से वर्षों पूर्व भरत छोड़ चुके लोग आज भी भारतीय हैं। वे सदा भारतीय हीं रहेंगे। भारतीयता का संबंध भारत में रहने या न रहने से नहीं बल्कि भारत से प्रेम से है। जय हिन्द जय भारत
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महेश रौतेला 2022/08/17 07:36 PM
सुन्दर विवेचना। गीता के अनुसार कहें तो" सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण " में सभी समाहित है।