प्रिय मित्रो,
त्योहारों की ऋतु की सभी मित्रों, साहित्य प्रेमियों और साहित्य कर्मियों को हार्दिक शुभकामनाएँ!
संभवतः यह शुभकामना अनूठी लगेगी क्योंकि किसी विशेष त्योहार का नाम न लेकर ‘त्योहारों की ऋतु’ कह रहा हूँ। बात सीधी-सी है। साहित्य कुञ्ज का अगला अंक पहली नवम्बर को प्रकाशित होगा और तब तक दो-तीन त्योहार बीच में निकल जाएँगे। वास्तविकता तो यह है कि हमारी संस्कृति ही त्योहारधर्मी/उत्सवधर्मी है।
हमारे बहुत से त्योहार भारत की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति की देन हैं और बहुत से हमने आयात किये हैं या किये जा रहे हैं। जो त्योहार हमने कुछ शताब्दियों पहले अपनाए वह तो शुद्ध भारतीय त्योहारों में सम्मिलित हो गए हैं और कुछ को हम इस समय अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। समाज के कुछ तत्त्व हैं जो इन त्योहारों के पक्ष में हैं तो कुछ तत्त्व इन्हें अपनाने के घोर विरोधी। आप समझ ही गए होंगे मैं किन त्योहारों की बात कर रहा हूँ।
त्योहार की परिभाषा क्या है? त्योहार एक विशेष दिन होता है जिसे किसी धार्मिक, सामाजिक या सांस्कृतिक कारण से सामूहिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। यह उत्सव हमारी मान्यताओं को सुदृढ़ करते हैं। सामाजिक सौहार्द बढ़ाते हैं या इतिहास को याद दिलाते हैं। कुछ त्योहार क्षेत्रीय ऋतुओं से सम्बन्धित होते हैं जैसे कि पोंगल, वैसाखी, ओणम, बिहू इत्यादि। बिहू तो वर्ष में तीन बार मनाया जाता है।
त्योहार हम आदि काल से मनाते आ रहे हैं। प्रत्येक युग, सभ्यता और संस्कृति में इनका प्रचलन रहा है। भारतीय संस्कृति में अधिकतर त्योहारों का उद्भव किसी पौराणिक कथा में निहित होता है। क्योंकि हमारी सभ्यता इतनी पुरातन है इसलिए पौराणिक नींव भी गहरी होना सामान्य सी बात है। परन्तु वह सभ्यताएँ क्या करें जिन्होंने धर्मांधता के कारण पुरातन सभ्यता को क्षीण कर दिया; अपनी सभ्यता के पुराने इतिहास को या तो नष्ट कर दिया या नकार दिया। प्रायः इन संस्कृतियों में देखा जाता है कि वह पुरातन त्योहारों का स्वरूप बदल कर मनाते हैं। यानी पुरानी धार्मिक आस्थाओं को नए धर्म के अनुसार ढाल कर सामाजिक मुखौटा पहना दिया गया है। इन संस्कृतियों में ऐसा भी देखा जाता है कि पुरानी संस्कृति के त्योहार आज आम-जन मनाता है जबकि धार्मिक संस्थाएँ इनका अनुमोदन नहीं करतीं। इसके कई उदाहरण पश्चिमी जगत मिल जाते हैं।
एक उदाहरण है—हैलोविन। यह त्योहार 31अक्तूबर को मनाया जाता है। ईसाई धर्म से पहले जो धर्म पश्चिमी देशों में थे उन्हें ईसाई सिद्धांत में सामूहिक रूप से ‘पेगन’ कहा गया। यह लोग ग्रीष्म ऋतु की फ़सल काटने के बाद त्योहार मनाते थे—जैसा कि भारत में भी होता है। ईसाई धर्म में इससे लगभग एक माह पहले “थैंक्सगिविंग” होता है जो कि अच्छी फ़सल के लिए भगवान को धन्यवाद करने के लिए मनाया जाता है। हैलोविन, जो पेगन त्योहार था, उसे चर्च ने जादू-टोने-डायनों इत्यादि के साथ जोड़ कर बंद करने का प्रयास तो किया किन्तु इसे समाज ने मिटाना स्वीकार नहीं किया। आज भी इसे बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। एक परिवर्तन अवश्य हुआ है कि यह त्योहार मुख्यतः बच्चों का त्योहार बनकर रह गया है और अपना धार्मिक संदर्भ खो चुका है। बच्चे विभिन्न पोशाकें पहन या रूप धारण करके द्वार-द्वार कैंडी माँगने जाते हैं। इसी प्रकार दक्षिणी अमेरिका के देशों में कुछ ऐसे ही त्योहार मनाए जात हैं। मैक्सिको में “डे ऑफ़ द डेड” (मृतकों का दिन) मनाते हैं। परिवार, मृत परिजनों को याद करते हुए, बहुत धूमधाम से क़ब्रिस्तान में क़ब्रों पर जाते हैं। मृत व्यक्ति के मनचाहे खाने बनाए जाते हैं और क़ब्र के पास बैठ कर पार्टी की जाती है। गाना, बजाना, डरावने मुखौटे लगा कर नाचना भी होता है। मृतक की मनपसंद मदिरा का पान भी किया जाता है और क़ब्र पर इसे छिड़का भी जाता है—लगभग श्राद्ध जैसा ही यह त्योहार है। यह त्योहार पहली-दूसरी नवम्बर को मनाया जाता है।
हो सकता है कि सनातन धर्म में भी ऐसे कुछ आंचलिक त्योहार हों जो मूल रूप से वनजातियों के त्योहार हों। ज्यों-ज्यों वनजातियाँ सनातन की मुख्यधारा में आईं अवश्य ही ये समाज अपनी सामाजिक रीतियों को भी अपने साथ लाए होंगे। समय के साथ इन रीतियों में कुछ परिवर्तन हुए होंगे और इस मिश्रण से रीतियाँ बदली होगी। कई त्योहार इन्हीं रीतियों का ही तो उत्सव होते हैं।
पश्चिमी सभ्यता में जिस दिन क्रिसमस मनाई जाती है, उस दिन यीशु का जन्म तो हुआ ही नहीं था। ईसाई धर्म अपना कैलेंडर बदल चुका है। कुछ चर्च पुराने कैलेंडर को अब तक मानते हैं। इसलिए ऑर्थोडेक्स चर्च की क्रिसमस, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्च के बाद आती है। कहना यह चाहता हूँ कि त्योहार में उत्सव—मूल कारण से अधिक—महत्त्वपूर्ण हो जाता है और धार्मिक आस्था के साथ समझौते हो जाते हैं।
एक और तथ्य है कि जहाँ उत्सव होगा वहाँ, उत्सव का आर्थिक पक्ष भी होगा। वस्तुओं का क्रय-विक्रय होगा और यह सहस्त्राब्दियों से होता रहा है, यह बात अलग है कि इन दिनों इसे “बाज़ारवाद” कह कर नकारात्मकता से जोड़ दिया जाता है। इससे मैं बिलकुल सहमत नहीं हूँ। त्योहार या उत्सव समाज की अर्थ व्यवस्था में नव-प्राण फूँकते हैं, समाज को समृद्ध करते हैं और समाज में विपन्नता से जूझ रहे लोगों को धनोपार्जन का अवसर प्रदान करते हैं। धार्मिक त्योहारों के धार्मिक पक्ष को पूरी आस्था के साथ निभाएँ परन्तु त्योहार के उत्सव को भी मनायें ताकि समाज की अर्थ व्यवस्था स्वस्थ रहे। यह सच है कि हमारी पीढ़ी से पहले की पीढ़ी सादा जीवन का उपदेश देती रही है। उन्होंने हमें उपदेश इसलिए दिया कि उन दिनों दासता के कारण, आय बस इतनी ही होती थी कि सादा जीवन व्यतीत हो जाए। दूसरी छिपा कारण यह भी है कि पैसा ख़र्च करने का अर्थ स्वदेशी पैसे को विदेशों को भेजना। वर्तमान में यह परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। जब तक आप सजग हैं कि आप स्वदेशी वस्तुओं का उपभोग कर रहे हैं, सादा जीवन नहीं बल्कि अपने सामर्थ्य के अनुसार अधिकाधिक धन ख़र्च कर जीवन का उत्सव मनाएँ। आप अपने समाज, देश को अधिक समृद्ध करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँ। हमारे त्योहार—जीवन का उत्सव हैं!
अंत में पुनः आप सभी को सभी त्योहारों की शुभकामनाएँ!
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
लखनलाल पाल 2025/10/15 07:33 PM
अंतरराष्ट्रीय पत्रिका साहित्य कुंज का संपादकीय-'हमारे त्योहार - जीवन का उत्सव ' त्योहारों पर केंद्रित है। आपने खासकर इस महीने यानी शरद ऋतु के त्योहारों पर इसकी विशद चर्चा की है। भारत में वैसे तो हर महीने त्योहार मनाए जाते हैं। लेकिन शरद ऋतु (क्वार-कार्तिक) के प्रमुख त्योहार दशहरा और दीपावली है। ये त्योहार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। आपकी इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि इन त्योहारों का विशेष उद्देश्य होता है। सामाजिक और धार्मिकता के साथ वैज्ञानिक उद्देश्य भी है। यही कारण है कि जिस तरह की ऋतु होती है त्योहार उसी के अनुकूल निर्धारित किए गए हैं। और यह निर्धारण आज भी जस का तस बना हुआ है। दीपावली का धार्मिक कारण भगवान राम द्वारा रावण को मारकर अयोध्या वापस लौटना था। इस खुशी में लोगों ने घर की सफाई करके खुशियों के दीप जलाए थे। हमारे ऋषि मुनियों ने इसे त्योहार ही बना दिया। इसे हर वर्ष मनाकर राम को याद रखा जाए, उनके आदर्शों पर चला जाए। दूसरा वैज्ञानिक कारण यह है कि चौमासे की सीलन में न जाने कितने हानिकारक कीटाणु पनप जाते हैं, जो हमारे लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं। साफ सफाई एवं चूना की पुताई से ये कीटाणु मर जाते हैं। आपने संपादकीय में हैलोविन त्योहार का जिक्र किया है जो पश्चिम में मनाया जाता है। यद्यपि इसको विलुप्त करने की कोशिश की गई है लेकिन उस त्योहार ने थोड़ा सा बदलाव करके अपने को बचाया ही नहीं बल्कि बालकों का सहारा लेकर फल-फूल भी रहा है। बच्चे विभिन्न रंग की पोशाक पहनकर घर-घर जाकर कैंडी मांगते हैं। इसी तरह का त्योहार बुंदेलखंड तथा ब्रज क्षेत्र में बच्चे और बच्चियों के द्वारा झिंझिया और टेसू के रूप में मनाया जाता है। यह त्योहार क्वार (अश्विन) माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। दशहरा के ठीक बाद बच्चे और बच्चियां द्वारे द्वारे गीत गाती हैं और अनाज या पैसा लेकर आगे बढ़ जाती हैं। ये बच्चे एकादशी से लेकर चौदस तक प्रतिदिन शाम को समूह में घर-घर जाते हैं। वे सस्वर टेसू गीत गाते हैं और पैसे या अनाज मांगते हैं। उनके कुछ गीत इस प्रकार है - 1- टेसू आए बानवीर, हाथ लिए सोने का तीर, एक तीर से पत्ते झाड़े, कान्हा जी देखत रहे ठाड़े कान्हा जी की बन्सी बाजी, राधा छून छनाछन नाची, एक घुँघरू टूट गया, दूध का मटका फूट गया या तो जल्दी मटका जोड़ो, या फिर अपना बटुआ खोलो, रुपया धेली जो कुछ हो, टेसू बीर के नाम पे दो। 2- मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे दही बड़ा। दही बड़े में पन्नी, धर दो झट अठन्नी। हमारे यहां ऐसे बहुत से त्योहार है जो क्षेत्र विशेष में मनाए जाते हैं। मनुष्य ने कामकाज के साथ अपने आनंद के लिए इन पर्वों को ईजाद किया था। कम से कम इसी बहाने सब लोग मिल-बैठ लेंगे। अच्छे से अच्छा भोजन बना खा लेंगे। व्यापार से भी इन त्योहारों को जोड़ दिया गया है। जिससे देश की अर्थव्यवस्था में मजबूती आती है। लोग अपने सामानों को बेचकर रोजगार कमाते हैं। बाजारीकरण शब्द खटकता तो है,पर इसमें सच्चाई भी है। आपने इन त्योहारों को नई दृष्टि से देखा है। और उनके वास्तविक स्वरूप को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। भारतीय पर्वों पर आपकी यह संपादकीय बढ़िया है। इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई सर ????????
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सुमन कुमार घई 2025/10/15 09:09 PM
लखन लाल जी, आपका हार्दिक धन्यवाद कि आपने सम्पादकीय पर विस्तृत टिप्पणी की। सच्चाई तो यह है अगर हम विश्च भर के त्योहारों को समीप से देखें तो बहुत समानताएँ मिल जाती हैं। हैलौविन के बराबर का त्योहार पंजाब में लोहड़ी है, जब बच्चों के समूह लोहड़ी के गीत गाते हुए द्वार-द्वार जाते हैं। जहाँ रेवड़िया, मूँगफली और गच्चक(गज्जक) इत्यादि मिल जाती है तो बच्चे गीत गा कर आशीर्वाद देते हैं अगर को घर दुत्कार दिए जाते हैं तो आवाज़ उठती है—हुक्का बई हुक्का, एह घर भुक्खा! अंबाला (हरियाणा) में मैं पेदा हुआ और चार वर्ष का होते होते हम खन्ना आ गए। मुझे तो याद नहीं परन्तु बड़े भाइयों को याद है कि अंबाला में हैलोविन जैसा ही क्षेत्रीय त्योहार था जो खन्ना में नहीं था। बच्चे मिट्टी के लोटे जैसे छेद दार बर्तन में दिया जलाकर और रस्सी से लटका कर घर घर गाते हुए माँगने जाते थे। हैलोविन के दिन घर के मुख्य द्वार के बार संतरी रंग के सीताफल (कद्दू) में डरावनी सूरत बनाने के लिए छेद करके और बीच में मोमबत्ती जला कर बाहर रखा जाता है। बच्चे कैंडी माँगने के लिए गाते हैं "ट्रिक और ट्रीत, गिव अस समथिंग स्वीट तो ईट" यानी हमें मीठा खाने को दो नहीं तो हम आपके साथ कोई शरारत करेंगे। एक बार पुनः आपका धन्यवाद!