प्रिय मित्रो,
पिछले सप्ताह मैं न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) एक सप्ताह के लिए गया था। लगभग हर तीसरे या चौथे महीने अपने बड़े पुत्र, पुत्रवधू और पोते, पोती से मिलने जाता हूँ। मिसिसागा (ओंटेरियो, कैनेडा) से वेस्टफ़ील्ड (न्यू जर्सी) जाने के तीन दो मुख्य रास्ते हैं। पहला मार्ग इंटरस्टेट हाइवे का मार्ग है और दूसरा इंटरस्टेट और ग्रामीण प्रांतर के स्थानी सड़कों का मिला-जुला मार्ग है। आश्चर्यजनक बात यह है कि इंटरस्टेट हाइवे का मार्ग लम्बा भी है और समय भी अधिक लगता है। दूसरा मार्ग जो मैं लेता हूँ, वह मेरे घर से हाइवे से होता हुआ यू.एस.ए. की सीमा में प्रवेश करने के बाद लगभ तीस किलोमीटर के बाद ग्रामीण क्षेत्र की ओर मुड़ जाता है। लगभग साठ-सत्तर ग्रामीण सड़कों के बाद पुनः इंटरस्टेट हाइवे में मिला देता है। यह मार्ग लगभग एक सौ किलोमीटर छोटा है और यात्रा में भी लगभग चालीस मिनट की बचत होती है। सोने पर सुहागा है की यह मार्ग सुन्दर भी अधिक है। न्यू यॉर्क एक एपलेशन पर्वत शृंखला की छोटी-छोटी पहाड़ियों और घाटियों में छोटे-छोटे गाँवों से गुज़रता मार्ग छोटी, बड़ी नदियों के समानान्तर चलता है। रास्ते के गाँवों में पुराने बाज़ार हैं, पुराने रेस्त्रां और होटल हैं। पहाड़ियों की चोटियों पर पवन चक्कियों से विद्युत उत्पादन होता दीखता है तो किसी गाँव में मक्का के खेत हैं तो कहीं डैरी फ़ार्म हैं। इक्का दुक्का जगह पर घोड़े भी घास चरते दिखाई देते हैं। यानी सफ़र सुहाना है।
इस बार पहली बार जुलाई के प्रथम सप्ताह यानी दो तारीख़ को सफ़र आरम्भ किया था। बफ़लो (न्यू यॉर्क राज्य) के बाद पहले ही गाँव में से गुज़रने वाली सड़क के हरेक बिजली के खम्बे पर यू.एस.ए. के झण्डे को लगा देख कर याद आया कि यह 4 जुलाई को होने वाले यू.एस.ए. के स्वतंत्रता दिवस की तैयारियाँ चल रही हैं। यू.एस.ए. की एक विशेषता यह है कि गाँवों में आमतौर पर लोग अपने घर पर यू.एस.ए. का झण्डा लगाते हैं। इस बार यह भी देखा कि हरेक खंबे पर अभी तक हुए युद्धों के स्थानीय शहीदों के चित्र लगाए हुए थे। और ऐसा पूरे रास्ते के सभी गाँवों में था। एक रोमांच-सा अन्तर्मन में अनुभव हुआ कि इस देश में शहीदों को किस प्रकार याद किया जाता है! प्रत्येक गाँव का बच्चा क्या, व्यस्क क्या तो बूढ़ा क्या—अपने गाँव के उन बेटों को नहीं भूलता जिन्होंने देश के लिए अपने प्राण न्योछावर किए हैं।
यह स्वाभाविक ही था कि मेरा मन भारत के गाँवों के उन बेटों का सोचने लगा जिन्होंने भारत-माँ की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है। क्या उन्हें प्रत्येक सामाजिक अवसर पर इस तरह से पूरा गाँव याद करता है? जब तक मैं भारत में था तब तक तो ऐसा नहीं था। आज का पता नहीं परन्तु एक बात पर आश्चर्य अवश्य होता है कि राजनैतिक दलों ने अपने-अपने स्वतन्त्रता संग्रामियों को अवश्य बाँट लिया है और वह एक दूसरे के शहीदों के बलिदानों को कमतर आँकने में लगे रहते हैं। कुछ राजनैतिक दल तो वर्तमान में सीमा पर हो रहे शहीदों की शहादत और वीरता पर भी प्रश्न चिह्न लगाने से नहीं चूकते। उनके लिए राष्ट्रवादी होना चरित्र का एक दोष है। खेद तो इस बात है कि यह विचार भारतीय नहीं है बल्कि विदेशी शक्तियों द्वारा भारतीय मन-मस्तिष्क में रोपा गया है और निरंतर रोपा जा रहा है। विडम्बना तो यह है कि यू.एस.ए. के प्रेसिडेंट ‘अमेरिका फ़र्स्ट’(अमेरिका प्रथम) की नीति का खुल कर समर्थन करते हैं परन्तु अगर यही नीति भारत अपनाता है तो वह भारतियों को राष्ट्रवादी कह कर नीचा दिखलाते हैं। मानो राष्ट्रवादी होना एक गुण न होकर एक गाली हो गया—केवल भारतीयों के लिए। भारत के प्रधानमंत्री वसुधैव कुटुम्बकम् की बात कर रह हैं तो यू.एस.ए. का राष्ट्रपति अभी भी प्रत्येक भाषण के बाद कहता है—गॉड ब्लैस अमेरिका यानी परमात्मा अमेरिका को वर दे/आशीर्वाद दे! बाक़ी के देश . . .?
अभी भी जो पाठक विदेशी प्रचार से सहमत हैं उनके लिए राष्ट्रवादी की परिभाषा बता रहा हूँ—जो व्यक्ति, संस्था, दल आदि को राष्ट्र की एकता, संपन्नता आदि हितों को सर्वोपरि मानता है और उसे प्रमुखता देता है। राष्ट्रवादी अक्सर अपने राष्ट्र को दूसरों से श्रेष्ठ मानते हैं और अन्य देशों या अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के ऊपर अपने हितों और लक्ष्यों को प्राथमिकता देते हैं।
आप बताएँ इस परिभाषा के अनुसरण करने में ग़लत क्या है? क्या किसी भी देश के प्रशासन का आचरण ऐसा नहीं होना चाहिए? सभी पश्चिमी देश स्वयं तो ऐसा ही करते हैं। यह अलग बात है कि अगर कोई दूसरा ऐसा करता है तो यह गुण अवगुण हो जाता है। इतना ही नहीं वह अन्य देशों पर फासीवादी होने का आरोप भी लगाने लगते हैं। कुछ स्वदेशी प्रत्येक आयतीत विचार का आँख मूँद कर समर्थन करने लगते हैं।
अब फासीवाद को भी देख लेते हैं। फासीवाद की परिभाषा में और राष्ट्रवादी की परिभाषा में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं, जिन्हें यह पश्चिमी आर्थिक शक्तियाँ भारत का आकलन करते हुए अनदेखा कर देती हैं।
फासीवादी व्यक्ति वह होता है जो फासीवाद का समर्थन करता है—एक ऐसे सरकारी तंत्र का, जिसमें एक तानाशाह नेता द्वारा आमतौर पर विरोध और आलोचना को बलपूर्वक और अक्सर हिंसक रूप से दबाया जाता है, सभी उद्योग और वाणिज्य को नियंत्रित किया जाता है, और अक्सर राष्ट्रवाद और अक्सर जातिवाद को बढ़ावा दिया जाता है।
वास्तव में आप अगर यू.एस.ए. के राष्ट्रपति की शक्तियों की विवेचना करें तो वह एक ‘चयनित तानाशाह’ ही लगता है। वह सभी सेनाओं का कमांडर-इन-चीफ़ होता है। उसके पास वीटो की शक्ति है। वह कुछ क़ानून बिना कांग्रेस के भी लागू कर सकता है। वह किसी भी दोषी को अदालतों द्वारा दंडित करने के बाद भी माफ़ कर सकता है, इत्यादि इत्यादि!
आप चाहे किसी भी राजनीतिक दल के समर्थक हों, सच्चे मन से अपने हृदय पर हाथ रख कर बताएँ उपर्युक्त परिभाषाओं को समझते हुए, भारत में आजकल राष्ट्रवाद की लहर चल रही है या फासीवाद की? उत्तर देने से पहले आपको अपने मन में आरोपित विदेशी अवधारणाओं का खण्डन करना होगा।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
राजनन्दन सिंह 2024/07/28 12:57 PM
माननीय संपादक जी, इस अंक का संपादकीय एक अत्यंत हीं जटिल विषय है। राष्ट्रवाद को समझना या परिभाषित करना मेरे लिए एक कठिन काम है। अतः टिप्पणी लिखने में मुझे पुरे बारह दिनों का समय लग गया। आज के विश्व में, "राष्ट्रवाद" और "जनवाद" दो मुख्य विचारधारा है। इसे क्रमशः पूँजीवाद और साम्यवाद के समानांतर भी मान सकते हैं। विश्व के कुछ देशों में राष्ट्रवादी विचारधारा सफल है तो कुछ देशों में जनवादी। राष्ट्रवाद में राष्ट्र के नाम पर व्यक्ति व समाज का शोषण दमन व वंचन संभव है तो दुसरी तरफ जनवाद मे व्यक्ति व समाज के नाम पर राष्ट्र की प्रगति प्रभावित अथवा अवरोधित हो सकती है। भारत में अब तक मिश्रित व्यवस्था के तहद दोनों व्यवस्था का लाभ लेने के लिए संतुलन बनाने का प्रयास जारी था। इसका कितना लाभ या हानि हुआ। कहना राजनीतिक विवाद या पक्षपात के आक्षेप को जन्म दे सकता है। इसलिए सही सही कहा नहीं जा सकता। क्योंकि आज का भारत दो बड़े एवं कट्टर पूर्वाग्रही ध्रुवों में बँटा हुआ है। आगे भारत के लिए कौन सा मार्ग (राष्ट्रवाद, जनवाद, या मिश्रित को ही जारी रखना ) सही होगा यह विशेषज्ञों के फैसले का विषय है। इसलिए भारत के लिए राष्ट्रवाद, अनुकूल है या प्रतिकूल, यह हमारे देश की जनता, चुने हुए कर्णधारों की नीतियाँ , विशेषज्ञों की दूरदर्शिता व आनेवाला समय हीं बतायेगा। मगर इतना तो तय है कि विजयी कोई एक ही होगा। या तो पाँच सौ रुपये लीटर पेट्रोल खरीदने का ताल ठोकने वाला ध्रुव एक दिन सचमुच पाँच सौ रुपये लीटर पेट्रोल खरीदेगा। या फिर महंगाई व बेरोजगारी के विरुद्ध आवाज उठाने वाला ध्रुव एक दिन रोजगार का सृजन व क्रय शक्ति के अनुसार, बेरोजगारी व महंगाई पर नियंत्रण करेगा। फैसला समय व भविष्य के हाथों में है। आग्रिम रूप से कुछ भी कहना वर्तमान भारत के किसी एक ध्रुव को नाराज करने के समान होगा।
विजय विक्रान्त 2024/07/17 06:51 AM
सुमन जी: सच्चे मन और हृदय से तो यही कहूँगा कि आजकल भारत में राष्ट्रवाद की लहर चलाने की भरपूर कोशिश की जा रही है लेकिन कुछ नेता लोग अपनी ख़ुदगर्ज़ी रोटियाँ सेंकने के लिये इस लहर को बदनाम करने के लिये सब कुछ करने को तैयार बैठे हैं।
प्रतिभा राजहंस 2024/07/15 07:01 PM
विचारोत्तेजक संपादकीय। समयानुकूल प्रश्न।
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शैली 2024/07/28 03:05 PM
आपने अमेरिका या अन्य विकसित देशों के जिस दोगलेपन को रेखांकित किया है, वह आजीवन दुःख का कारण रहा है, मेरे लिए और संभवतः सारे देश के लिए भी। दूसरों को कठघरे में खड़ा करना बहुत आसान है। गोरे जिस तरह से white men's burden के तहत, काले और भूरे लोगों के साथ discrimination करते रहे हैं उसकी तुलना में भारत की जातिप्रथा बहुत मासूम है, लेकिन उसे ऐसा मुद्दा बनाया गया जैसे सबसे ज्यादा वहशी भारतीय सवर्ण रहे हैं। भारतीय जनता के कुछ धड़े और राजनीतिज्ञ अपने को बेहद बुद्धिमान और प्रगतिवादी दिखाने के अहंकार में, जयचंद बने रहे और दुःख इस बात का है कि जनता उनका अनुमोदन और अनुसरण करने में अपने को गौरवान्वित महसूस करती रही और अपने ही देश का विनाश करती रही। एक सुधी पाठक ने गरीबों और गरीबी का मुद्दा उठाया और उसे राष्ट्रीयता के बगल में खड़ा कर दिया। इस तरह के disguised statments देने वालों को अपने दृष्टिकोण पर अथाह विश्वास ही नहीं अहंकार भी है। भारत की सबसे बड़ी विडंबना है गांधी, प्रेमचन्द, निराला और मार्क्सवाद का पैदा किया "गरीब" । इस गरीब को मोहरा बना कर यहां का राजनितिक दुष्कृत्य खूब फूला फला। गरीब को गरीब बनाए रखना यहां फ़ैशन है और गरीब होना यहां status symbol है। एक बात के सभी गवाह हैं कि विभाजन के बाद पंजाबी और बंगाली ही बहुसंख्यक रहे विस्थापितों में। इन्हीं दोनों हिस्सों ने विभाजन की पीड़ा सबके अधिक सही। विस्थापितों की दशा कमोबेश एक सी ही थी। कोई ज़मीन जयजाद लेकर नहीं आया था। सरकार ने इनके रहने के लिए refugee accomodations बनवाए थे। यह भारत के विभिन्न हिस्सों में बने। आज 75 वर्षों बाद पंजाबी, सिंधी आदि विस्थापित कोई भी उन घरों में नहीं रह रहें हैं, सभी ने मेहनत की और अपनी कमाई के ज़रिए बना कर अच्छे आवासों का प्रबन्ध ही नहीं किया बल्कि भारत की अर्थव्यस्था में योगदान दे रहे हैं। जबकि बंगाल में बने refugee accomodations आज भी वही लोग पीढ़ी दर पीढ़ी रहते आ रहे हैं, क्योंकि वहां गरीबी को celebrate किया जाता है। मार्क्सवादी और तृणमूल दोनों ही एक ही नीति अख्तियार किए रहे। एक समय में कलकत्ता भारत के महत्वपूर्णतम शहर में था आज उजड़ कर बीमार हो गया है क्योंकि वहां गरीबों को मुद्दा बना कर चलने वाली सरकार है। यही हालत देश की भी है, गरीब और गरीबी को लेकर गन्दी राजनीति और उन्हें सब्सिडी, अनुदान आदि भीख देकर गरीब बनाए रखा जा रहा है। ये गरीब वास्तव में निकम्मे हैं, जिन्हें मेहनत करनी ही नहीं है, बस अपनी गरीबी दिखा कर समाज और सरकार को emotionally black male करना है और कुछ नेताओं को इनकी आड़ में सत्ता सुख लूटना है। राष्ट्रवादी और परिश्रमी होने से ही देश का उद्धार होगा। सभी विकसित देश यही कर रहे हैं भारत भी इसी राह पर चल कर सशक्त होगा। बेहद विचारणीय संपादकीय के लिए हार्दिक बधाई और धन्यवाद।