आज दोपहर के बाद लगभग तीन बजे घर लौट रहा था। आमतौर पर गाड़ी चलाते हुए मैं केवल समाचार ही सुनता हूँ। मेरा प्रिय स्टेशन सीबीसी (कनेडियन ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन) है, यह ठीक वैसे ही है जैसे कि ‘आकाशवाणी’। आज, उस समय सीबीसी रेडियो पर तीन वार्ताकार एक नई टीवी सिरीज़ की चर्चा कर रहे थे। यह सीरिज़ ‘अंडर द ब्रिज’ नाम पुस्तक पर आधारित है जिसे रेबेक्का गॉडफ़्री ने लिखा है। वार्ताकारों में एक भारतीय मूल का कनेडियन भी था। इस चर्चा के दौरान अचानक एक नाम सुनकर मैं चौंक गया। बात एक चौदह वर्षीय भारतीय मूल की लड़की रीना विर्क की हो रही थी। इस लड़की की हत्या १० मार्च १९८३ को कैनेडा के ब्रिटिश कोलम्बिया प्रांत के एक छोटे से क़स्बे सांइच में हुई थी। लड़की का शव एक पुल के नीचे मिला था। मृतका की हत्या से पहले उसे यातनाएँ देने के शरीर पर चिह्न थे। माथे पर जलती सिगरेट से बिन्दी का चिह्न बना दिया गया था।
उन दिनों पूरा कनेडियन समाज इस हत्या के तथ्यों से चौंक गया था। इस अपराध के लिए छह किशोरावस्था की लड़कियों को हिरासत में लिया गया। मुक़द्दमे के बाद उन्हें दोषी पाया गया और उन्हें सज़ा सुना दी गई।
कनेडियन समाज में शायद यह पहली ‘टीनएजर’ लड़कियों के गैंग द्वारा ऐसी भयंकर हिंसा की घटना थी।
चर्चा के दौरान, लगभग ४० वर्ष पहले घटी इस घटना के रेडियो क्लिप भी सुनाए गए। एक क्लिप में पुलिस के के दो वक्ताओं से एक पत्रकार ने प्रश्न पूछा कि क्या इस अपराध में नस्लयी भेदभाव भी कारण हो सकता है? पुलिस के दोनों वक्ताओं के अलग-अलग उत्तर थे। पहले वक्ता ने बड़े दृढ़ स्वर में प्रश्न को खारिज करते हुए कहा, “एक अपराध हुआ है। एक लड़की हत्या हुई है, नस्लवाद कहाँ से आ गया?” जबकि दूसरे वक्ता ने दबे स्वर में कहा कि सम्भावनाएँ देखी जाएँगी। इस वक्तव्य के अर्थ बहुत गहरे हैं क्योंकि पहला वक्ता गौर वर्ण का कनेडियन था और दूसरा वक्ता कनेडियन इंडियन (मूलनिवासी/आदिवासी) था, संभवतः जिसने स्वयं नस्लवाद झेला हुआ था।
घर लौटने के बाद भी मैं इस एक मिनट के रेडियो-क्लिप और वार्ता के विषय पर सोचता रहा। मुझे घटना भी याद है और उस समय मन में उठीं भावनाएँ भी याद हैं। समय ने कुछ भी धुँधला नहीं किया है।
जहाँ तक मुझे याद है रीना विर्क का घरेलू जीवन ठीक वैसे ही था जैसा कि एक नए प्रवासी परिवार का होता है। माता-पिता नए समाज में पाँव जमाने करने के लिए संघर्षरत होते हैं और परिवार के किशोर बच्चे अपने समाज में अपनी नई पहचान बनाने के संघर्षरत होते हैं और कई बार विद्रोही हो जाते हैं। यह संघर्ष महानगरों में अलग होता है और सीमित जनसंख्या वाले क़स्बों में अलग। रीना विर्क ऐसी ही एक किशोरी थी जो हम-उम्र समाज में स्वीकृति चाहती थी और शायद यही उसकी हत्या का कारण था।
अब मेरे विचार नस्लवाद की ओर बढ़ चले। याद आने लगा मेरे पिछले घर का पड़ोसी। वह एक कृष्णवर्णी चार्टेड एकाउंटेंट था। उसके माता-पिता वेस्ट-इंडीज़ से थे। एक दिन उसके साथ नस्लीय भेदभाव की चर्चा हो रही थी। उसने हँसते हुए बताया कि सीए पूरी करने के बाद पहली नौकरी ढूँढ़ने के लिए उसे बहुत कठिनाई हुई। उसका रिज़्युमे पढ़कर उसे इंटरव्यू के लिए बुला लिया जाता परन्तु इसके बाद उसे रिजेक्शन ही मिलती। इसका कारण वह भली-भाँति जानता था। कहने लगा, “सुमन, देखो मेरा नाम व्हाइट लोगों वाला है ‘एंड्र्यू स्मिथ’ इसलिए मुझे इंटरव्यू के लिए बुला लिया जाता है। जब मैं कमरे में जाता हूँ तो शायद इंटरव्यू लेने वाले किसी ब्लॉण्ड गोरे के लिए तैयार होते हैं; किसी काले के लिए नहीं।” नस्लीय भेदभाव कनेडियन समाज की वास्तविकता है जिसे आज भी समाज में छिपाया जाता है। किसी बीमारी के निदान से पहले उसे होने को स्वीकार करना पड़ता है।
मेरी विचार शृंखला और पीछे की ओर जा रही थी; जब मैं भारत में था। मुझे भारत छोड़े हुए पचास वर्ष हो चुके हैं। समाज में बहुत कुछ बदल चुका होगा। मेरे उदाहरण तो स्वयं के भोगे हुए यथार्थ के ही हैं। पंजाब में पला बड़ा हुआ हूँ। बचपन से लेकर किशोरावस्था तक तो यही विश्वास था कि ‘पंजाबियों की तुलना में तो कोई खड़ा ही नहीं हो सकता।’ सभी दक्षिण भारतीय (साउथ इंडियन) मद्रासी थे। सभी बंगाली ‘भूखे बंगाली’ थे और बिहार या पूर्वी यू.पी. के प्रवासी ’भइये’ थे। युवा होते-होते समझ आने लगा कि जैसे विचार हम पंजाब में अन्य प्रांत के लोगों के लिए रखते हैं, वैसे ही वह भी तो पंजाबियों के लिए रखते होंगे! इसका पहली बार आभास एक घटना से हुआ, जिसने मुझे झकझोर के रख दिया था। मैं शायद सातवीं या आठवीं में था। दूर के रिश्ते में मेरे मामा थे। पढ़ने लिखने में इतने अच्छे थे कि हमें उनकी उदाहरण दी जाती थी। उन दिनों कलकत्ता में कोई मैनेजमेंट का इंस्टीट्यूट था जिसमें हर वर्ष बहुत सीमित संख्या में छात्र चयनित होते थे। हमारे सतीश मामा भी उस वर्ष चुने गए। पूरे परिवार में ख़ुशी का माहौल छा गया। दिल्ली की ख़बर हमें लुधियाना में भी मिली। उस वर्ष कुछ महीने के बाद दिल्ली जाना हुआ तो सतीश मामा को देख कर आश्चर्य हुआ। पता चला कि जिस दिन वह कलकत्ता पहुँचे तो छात्रावास में पहुँचने पहले एक बंगालियों का समूह लाठियाँ लेकर पहुँच गया कि बंगाल के इंस्टीट्यूट में भारत के किसी अन्य प्रान्त का विद्यार्थी कैसे आ गया? उल्टे पाँव वह वापिस लौट आए।
विदेश में रहते हुए हम प्रायः भारत में हुए भेदभाव को भूल जाते हैं। अन्य वर्ण के लोगों द्वारा किया गया भेदभाव अधिक अखरता है। वैसे भी पंजाबी की कहावत है, “आपणा बड्डू/मारू छाँवे सिट्टू” अर्थात् अगर कोई अपना काट कर फेंकेगा तो लाश को छाया में फेंकेगा।
भारत में अब लोग अपने मूल प्रान्त को छोड़कर अन्य प्रान्तों में बसने लगे हैं। आशा है कि धीरे-धीरे यह प्रान्तीय भेदभाव समाप्त हो जाएगा।
अब प्रश्न यह कि इस भेदभाव को दूर करने के लिए साहित्य क्या भूमिका निभा रहा है या निभा सकता है?
वैसे यह सम्पादकीय भी रेडियो पर एक पुस्तक की चर्चा के कारण ही तो लिखा गया है।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
शैली 2024/06/15 11:40 AM
जब इंसान दूसरों को भी अपनी तरह हाड़-मांस का बना मानने लगेगा तब 'शायद' यह भेदभाव खत्म हो। शायद भेदभाव तो हमारी मूल प्रवृत्त (basic instinct) है। लड़की लड़के में भेद, सुंदर और कुरूप में भेद, यहां तक कि हम अपने शरीर के अंगों में भेदभाव करते हैं, चेहरे के लिये अलग तौलिया, अलग क्रीम,पांव के लिए केलिये अलग। बाँये हाथ से पानी नहीं देते, पूजा नहीं करते ये सब दाँये हाथ से करते हैं। जब सोच इतनी सीमित हो तो बड़ी बातों के लिए सोचना भी मानसिक विलास है। वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा आदर्श मात्र है, हम निजी और बहुत छोटे-छोटे स्वार्थों में फँसे रहते हैं। लेकिन शुभकामना कर सकते हैं कि समानता आये, मानव समाज समदर्शी हो सके। आपके संपादकीय व्यष्टि से समष्टि का दिग्दर्शन कराने वाले होते हैं, हार्दिक बधाई और शुभकामना।
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महेश रौतेला 2024/06/18 07:48 PM
यथार्थ वर्णन। हम "बसुधैव कुटुम्बकम" कहते हैं या "सत्यमेव जयते" कहते हैं क्योंकि दूसरे पक्ष की बहुतायत है। यह अवगुण हममें क्रोध, ईष्या, द्वेष आदि भावों की तरह है। बहुत कम मनुष्य समानता की ऊँचाई तक पहुँच पाते हैं।