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प्रिय मित्रो,

इस बार के सम्पादकीय का शीर्षक पढ़ कर क्षण भर के लिए आप ठिठके तो होंगे ही। सोचा होगा क्या बेतुकी बात है। आदर्शवाद मूर्खता कैसे हो सकता है? मैं भी यही सोचता था। शैशवकाल से इस परिपक्व अवस्था तक पहुँचने की यात्रा के हर चरण पर आदर्शवाद का पाठ पढ़ाया जाता रहा है और मैं उसे आत्मसात करता रहा हूँ। संभवतः आप भी करते रहे होंगे। इस अवस्था के चरम का सोपान नवयौवन के आगमन के दुंदभि नाद के साथ घोषित होता है। फिर आरम्भ होता है दो पीढ़ियों का धर्मयुद्ध क्योंकि आदर्शों की परिभाषा भी काल के अनुसार बदलती रहती है। इसलिए शाश्वत काल से ही पीढ़ियों का संघात भी उतना ही निश्चित है जितना की पूर्व से सूर्य का उदय होना।

जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता है तो वास्तविकता के थपेड़े आदर्शवाद के महल को खंडहर में बदलने के लिए सक्रिय हो जाते हैं। ईंट-दर-ईंट सरकती जाती है और हम सही-ग़लत के निर्णय से दिन-प्रतिदिन उलझते रहते हैं। इस दार्शनिक वक्तव्य का कारण आज-कल की वैश्विक परिस्थितियाँ हैं। यह राजनैतिक और नैतिक दोनों प्रकार की परिस्थितियाँ हैं जो विवेक को अलग-अलग दिशाओं में खींच रही हैं।

मानवजनित कोरोनाकाल के प्रकोप से अभी उबरे भी नहीं थे कि रूस और युक्रेन के मध्य युद्ध की विभीषिका ने पूरे विश्व की अर्थ व्यवस्था को गर्त की ओर धकेलना आरम्भ कर दिया। पुरानी सोच वाले राजीतिज्ञ वही पुराने ढर्रे के अनुसार प्रतिबंध लगाने की ओर अग्रसर हो गए। वह वर्तमान वैश्विक पारस्परिक-निर्भरता की वास्तविकता समझ ही नहीं पाए। इस काल में विश्व के किसी भी कोने में होने वाले घटनाक्रम की प्रतिक्रिया तुरंत विश्व के हर कोने में गुंजित होने लगती है। युरोप की अर्थ व्यवस्था चरमराई तो चीन की यूरोपियन मंडियाँ बंद हो गईं। चीन का उद्योग धीमा हुआ तो यू.एस.ए. का शेयर बाज़ार डाँवाडोल होने लगा। बैंक फेल होने लगे। ब्याज दर बढ़ने लगी, मुद्रास्फीति का राक्षस जागने लगा। आमजन पिसने लगा। युद्ध का कारण क्या था? दोनों देशों के आदर्शों की दिशा अलग थी। रूस का कहना था कि मेरे पड़ोसी को नाटो-संधि में शामिल होने की क्या आवश्यकता है? दोनों देशों की संस्कृति एक है, भाषा भी लगभग एक है। व्यापार यू.एस.एस.आर. भंग होने से पहले से एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। युक्रेन का कहना था कि मुझे नाटो का प्रतिभागी बनने रोकने का प्रयास करना मेरी संप्रभुता पर अंकुश लगाना है। पड़ोसी होकर भी आदर्श एक से न हुए। फलतः युद्ध छिड़ गया।

युवा वर्ग अभी रूस-यूक्रेन के युद्ध की वास्तविकता को समझ ही रहा था कि इज़रायल और हमास की समस्या पैदा हो गई। हमास ने इसका आरंभ आतंकवाद से किया। इस तथ्य से अवगत होते हुए भी विश्व भर के आदर्शवादी हमास/फिलिस्तीन के समर्थन के लिए सड़कों पर उतर आए। है न अजीब बात। आदर्शवादी युवा आतंकवादी संगठन हमास का समर्थन कर रहा है (हमास फीलिस्तीन के पल्लू के नीचे ही तो पला-बढ़ा है)। चाहे युवावर्ग ने झण्डे फिलिस्तीनी समर्थन के उठाए हुए हैं परन्तु वह यह नहीं समझ रहे कि हमास के लड़ाके/आतंकवादी न तो किसी अन्य देश से आए हैं और न ही आसमान से उतरे हैं। वह उन्हीं माता-पिता की औलाद हैं, जिन पर अब बम बरस रहे हैं। कहने को तो कहा जाता है कि “चोर को नहीं चोर की माँ को पकड़ो” परन्तु यहाँ पर मानवाधिकार से लेकर मौलिक स्वतन्त्रता के हनन की दुहाई दी जा रही है। लगता है कि विश्व भर में युवा अपने ही आदर्शों को समझ नहीं पा रहा है।

नवम्बर के पहले सप्ताह में यू.एस.ए. गया और वहाँ यहूदी समाज को समीप से देखने का अवसर मिला। दूर का नहीं, रिश्ता तो मेरा बहुत पास से है। मेरी बड़ी पुत्रवधू यहूदी है। उसके माता-पिता मॉन्ट्रेयाल (कैनेडा) में हैं और बहन न्यूयॉर्क में। जब वह सड़कों हज़ारों की भीड़ को यहूदियों को दोषी मानते हुए नारेबाज़ी करते सुनते हैं तो भयाक्रान्त होना स्वाभाविक है। हज़ारों मील दूर का घटनाक्रम दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली देश के नागरिकों को भयभीत कर रहा है। आदर्शवादी जब आतंकवादी के समर्थन में उतर आएँ तो इस भय की परिस्थिति के लिए विस्मित मत हों।

भारत की ही बात कर लेते हैं। पाकिस्तानी आतंकवाद का मुक़ाबला जब तक हम आदर्शवाद के नियमों के अनुसार करते रहे, दुश्मन का साहस बढ़ता चला गया। इस समय क्योंकि भारत में ईंट का जवाब पत्थर से देने वाला दल सत्ता में है इसलिए आतंकवाद भी छिप गया है।

अभी तक तो चर्चा राजनीति की थी। सामाजिक व्यवहार में भी आदर्शवाद एक सीमा तक ही अच्छा रहता है। अगर आप आदर्श समाज का अंग हैं तो आदर्शवादी होना सद्गुण है। अगर आपके चारों तरफ़ के लोग धूर्त हों तब आदर्शवादी होना मूर्खता ही है। बचपन में जब भी पंजाब से दिल्ली अपने मामा के घर आते तो जान-पहचान के लोग हमें अज्ञानी मूर्ख ही समझते थे, क्योंकि हम झूठ नहीं बोलते थे। हम चालाक नहीं थे इसलिए हमें बुद्धू समझा जाता था। ऐसा नहीं है कि हम चालाकी समझते नहीं थे, बस शिष्टाचार निभाते हुए चालाकी करने वाले को मुँह तोड़ उत्तर नहीं देते थे—इसलिए मूर्ख थे। ऐसा अब भी है।

विदेशों में भी ऐसा ही है। महानगरों में आदर्शवाद व्यवहारिक नहीं है। विशेषकर ग्रामीण लोग महानगरीय संस्कृति में खप नहीं पाते। बहुत पहले 80 के दशक में मुझे अपनी नौकरी के कारण प्रांत के दूरस्थ अंचलों में भी जाना पड़ता था। कई बार कुछ दिन रुकना भी पड़ता था। क़स्बाई संस्कृति भारत के क़स्बों की संस्कृति से अधिक अलग नहीं है। वही आत्मीयता और वही सरलता। वही सहायता के लिए तत्परता और निष्कपटता देखने को मिलती। प्रायः मुझे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए टैक्सी लेनी पड़ती। मैं इन परिस्थितियों से टैक्सी ड्राइवर से खुल कर बात करता, उनके अनुभव जानने का प्रयास करता। एक बात मुझे हर अंचल में सुनने को मिली कि उनमें से अधिकतर ड्राइवर टोरोंटो में बेहतर जीवन की तलाश में भटकने के बाद वापिस अपने दूरस्थ क़स्बे में लौट चुके थे। एक बात उनके मुँह से अक़्सर सुनता, “आई डू नॉट वांट टू बी ए पार्ट ऑफ़ अ रैट-रेस. नेवर अगेन, आई विल नेवर गो बैक अगेन. (मैं चूहा-दौड़ का प्रतिभागी नहीं बनना चाहता। फिर कभी नहीं, मैं वापिस कभी नहीं जाऊँगा।) क़स्बाई संस्कृति का निर्वहन महानगरीय संस्कृति में नहीं हो पाता क्योंकि दोनों समाजों के आदर्श अलग-अलग होते हैं। दोनों एक दूसरे को मूर्ख समझते हैं।

पश्चिमी और भारतीय देशों की महानगरीय समाजों में एक समानता और देखने को मिलती है। अंग्रेज़ी समाज में कहा जाता है कि—युवतियों को बुरे युवक पसंद आते हैं (Good girls like bad boys)। यह मैंने भी देखा और भोगा है। आदर्शवादी, शिष्ट लड़कों को लड़कियाँ, भाई या दोस्त बनाने के लिए तो तत्पर रहती हैं, परन्तु ऐसे युवकों को वह प्रेमी के रूप में स्वीकार नहीं करतीं। विडम्बना यह है कि जब विवाह की बात आती है तो युवतियों को यही ‘भाई’ क्वालिटी वाले ही जीवन-साथी की तलाश होती है। जो झूठा न हो, शिष्टापूर्वक बात करता हो, माता-पिता का आदर करता हो। मीठा बोलता हो।

अब आप ही बताइये कि आदर्शवाद को मूर्खता का पर्याय समझूँ या नहीं।

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

Bhishm sharma 2023/11/30 02:24 PM

सच्चाई को कोई आदर्शवाद नहीं होता। मान्यवर अच्छा लेख है।

हेमन्त 2023/11/22 10:16 PM

शब्द 'आदर्शवाद' का अर्थ इस विस्तृत लेख में भिन्न-भिन्न है ।कहीं वह व्यक्तिगत के लिए प्रयुक्त हुआ है कहीं समूह के लिए। कोई संगठन के नियम से आप्लावित की ओर संकेत है, कहीं यह शब्द नैतिक मूल्य, शिष्ट की भाषा का चित्र बन कर आया है। लेख कई स्थानों की खोज में है। केवल एक-एक पैरा इंगित करता है, निशाना भर है जिसे पूरा खोलकर प्रस्तुत किया जा सकता है। केवल संपादकीय तक सीमित करने पर विस्तार का, व्याख्या का लेखन बच जाता है। अलग शब्द का उपयोग किया जा सकता था ।आतंकवाद- बलात् अपने विचार थोपना, 'मैं ही सर्वश्रेष्ठ' यह कुछ समूह का आदर्श रहा है। यहाँ 'आदर्श' शब्द की उच्चता निकृष्टता में परिवर्तित हो जाती है ।उन्हें एक मत को मानने वाले कहें- मतवाले। मत को मानने वाले मतवाले ही होते हैं, उन्मादी। और पीढ़ीयों के संघर्ष में भी आदर्श का लोप या भिन्नता का राग शाश्वत रहा है ।सदियों पुराना एक झगड़ा रहा है। पुराने को सर्वश्रेष्ठ, नया अगर सही भी हो तो उसे हाशिए पर रखने का एक हुनर यहाँ सब की धमनियों में रहा है। घुमंतू जाति के भीतर पुराने समय में वृद्धो को बोझ समझकर उनसे छुटकारा पाने का विचार कोई सर्वश्रेष्ठ तो नहीं था ।वह आदर्श शब्द से क्या विवेचित होगा ? कस्बे, गांव और शहर- यहाँ व्यक्ति ही रहते हैं और मानव ईमानदार ,बेईमान, सच्चा झूठा ,मक्कार और श्रेष्ठ , निकृष्ट, अशिष्ट -शिष्ट आदि सभी तो है। मात्रा में कम ज्यादा हो सकता है। प्रकृति की गोद में भौतिकता कम ही जागेगी ।पर विवशता अधिक है, स्वभाव नहीं ।'आई एम द स्टेट' आई एम द लाॅ ' यह भावना सबके मन में छुपी रहती है। भौतिकवाद की खाद पानी उसे बढ़ा देते हैं और मानव दूसरों के अधिकारों में अड़ंगी डालने लगता है ।अब जितनी भी विषमताएं समाज , समूह, व्यक्ति में फैली है- वह अपने को दूसरों से सर्वश्रेष्ठ मानने के कारण ही हैं। मैं राम-राम कहूँ वह अल्लाह अल्लाह। सब अपने मुताबिक जी सकें। कोई नमाज में, कोई संध्या में संतुष्ट है -उसे स्वतंत्रता हो अपने जीने की शैली में ।कोई कैसे केवल अपने को उच्च प्रकट करने का साहस करता है। सभी तो एक कारीगर की इजाद हैं । आदर्शवाद की कसौटी क्या है? तभी टिप्पणी का औचित्य होगा फिर भी जितना समझ आया उतना कहता हूॅं। विद्वानों में नैतिक मूल्य निर्धारण में एक मत अभी तक नहीं है। सम्प्रदाय के अनुसार जीने वाले आदर्शवादी बहुतेरे है।- हेमन्त

सुमन कुमार घई 2023/11/19 03:48 PM

मैं आप सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद करता हूँ। आपने सम्पादकीय पढ़ा, मनन किया और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देकर प्रोत्साहित किया!

Surya Kant Sharma 2023/11/19 11:30 AM

सुमन घई साहाब, एक सार्थक सारगर्भित यथार्थ परक संपादकीय सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई। संपादकीय सभी समीचीन संदर्भों को रेखांकित यथा रूस युक्रेन युद्ध,भारत पाक छद्म युद्ध और अब इजरायल हमास युद्ध ,,,इस सभी को एक मापदंड से आंकता है। और सही मायनों में यह संपादकीय मन और आत्मा से संवाद करता है।

Surya Kant Sharma 2023/11/19 11:20 AM

बेहद खूबसूरत सार्थक और सारगर्भित ज्वलंत मुद्दा है। मानव मेधा और आत्मा से संवाद करता संपादकीय।

चन्द्र मणि 2023/11/17 10:03 PM

कोरा आदर्शवाद अच्छा हो, जरुरी नहीं। व्यवहारिकता के पैमाने पर परखना चाहिए; और उसी के अनुसार अपनी नीति रखना चाहिए। आदर्श और व्यवहारिकता के बीच संतुलन रहना चाहिए।

धर्मपाल महेंद्र जैन 2023/11/16 08:06 PM

सटीक और यथास्थिति बताता संपादकीय। समकाल में आदर्शवाद एक सैद्धांतिक शब्द रह गया है। युवा पीढ़ी अब ‘प्रैक्टिकल’ होने में अधिक विश्वास रखती है। आदर्शवाद मूर्खता न भी हो तो कई बार अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा लगता है। महानगर और ग्रामीण परिवेश की संस्कृतियों के बारे में आपका विश्लेषण बेबाक है। इसे वे लोग अधिक महसूस कर पाते हैं जिनकी पृष्ठभूमि ग्रामीण अंचलों से रही है।

सुनीता आदित्य 2023/11/16 03:06 PM

सर, बहुत विलम्ब से प्रतिक्रिया दे पा रही हूं... दरअसल भ्रमण पर हूं। सर विषय व्यापक है और सामयिक भी। मैंने विशुद्ध आदर्शवादी माता पिता से आदर्श को अभाव के साथ घुट्टी में पिया है। कठिन परीक्षाओं से अपने माता-पिता को गुजरते देखा है... स्वयं भी आर्थिक अभाव को जिया है पर वैचारिक स्तर पर भी रास्ते का भटकाव आया ही नहीं। आदर्श क्या है, हर एक ने अपनी अपनी सहूलियत के साथ परिभाषा बदल दी... फिर भी मुझे हमेशा लगता है कि यदि परिस्थितियों ने आपके आदर्श की परिभाषा में बदलाव लाना शुरू कर दिया है तो यह मिलावट है। राजनीति की जरूरत और आदर्श सामाजिक आदर्श से भिन्न लगता है.... जहां देश समाज और व्यापक हित जुड़ा है वहां शठे शाठ्यम् समाचरेत् भी उचित लगता है... एक गहन विषय में आपने गहनता से विचार किया... उसके विभिन्न पहलुओं को छुआ... सर बहुत बहुत आदर के साथ प्रणाम एवम् बधाई।

मधु शर्मा 2023/11/15 10:08 PM

दुखती रग को छेड़ देने वाला सम्पादकीय। सामने से वार करने वाले इर्द-गिर्द ही मिल जाएँगे, व आदर्श का मुखौटा पहने हुए पीछे से वार करने वाले भी। परन्तु दोनों के वार का परिणाम विभिन्न होता है। 'दूध का जला छाछ को भी फूँक मार कर पीने' वाली कहावत यहाँ यथार्थ हो जाती है...एक सच्चे आदर्शवादी को भी तब हम संदिग्ध दृष्टि से देखने लगते हैं। मेरा स्वयं का प्रयोग किया हुआ है कि 'मेले में अकेला और अकेले में मेला' रहने में आनन्द ही आनन्द है। लेकिन अन्य आदर्शवादियों की परिस्थितियाँ मुझसे भिन्न होने के कारण उनके हित में मैं यह सुझाव कदापि न दूँगी। ऐसा आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय ही होगा...सम्पादकीय अनुसार यह शत प्रतिशत सही है।

प्रतिभा राजहंस 2023/11/15 09:34 PM

आदरणीय घईं साहब, संपादकीय बहुत महत्वपूर्ण है। समसामयिक भी। आपका इस महत्वपूर्ण संपादकीय पर प्रतिक्रिया मांगना भी अच्छा लगा। हम सभी आदर्शों पर चलने की सीख लेते हुए बडे़ हुए हैं। यह अत्यावश्यक भी था। इससे हम आदर्शों को जानने- समझने के काबिल हुए। सच है कि उम्र के बढने के क्रम में हमने उन्हें टूटते हुए भी खूब देखा। अनेक बार दुविधा ग्रस्त हुए। आज भी हो रहे हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में आदर्शों का टूटना कुछ हद तक बरदास्त भी किया जा सकता है। ( यद्यपि नियम भंग करने की प्रवृत्ति यहीं से शुरू होती है।) लेकिन, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आदर्शों/ नियमों का भंग होना संपूर्ण विश्व की परेशानी का सबब बनता है। वर्तमान समय के दोनों युद्धों में जान- माल की क्षति के साथ- साथ निकट भविष्य के संभावित ग्लोबल वार्मिंग की दुश्चिंता भी बढ़ रही है। यद्यपि इस सबके मूल में हमारी हिंसात्मक वृत्ति है। एक बात और भी है- दुनिया में जिस तरह आतंकवाद का नंगा नाच हो रहा है, वह भी सहनीय नहीं है। आज नहीं तो कल उससे दो चार होना ही पड़ेगा। वरना इंसान और इंसानियत --दोनों का अस्तित्व मिट जाएगा। यहाँ पर अर्जुन की दुविधा से उबर कर युद्ध की चुनौती को स्वीकार करना होगा। हम आदर्शवादी लोग भले ही मूर्ख समझे जाते हैं और समाज में मुट्ठी भर ही हैं, फिर भी, विवेकपूर्ण मत देने वाले कुछ लोग हैं तो। आपके संपादकीय से मैं प्रभावित हुई। प्रतिक्रिया हेतु आमंत्रित कर अपना मत देने का आपने अवसर प्रदान किया, इसके लिए आभारी हूँ।

अरुण कुमार प्रसाद 2023/11/15 09:27 PM

अनुभव तो यहीहै.

Pavan Tripathi 2023/11/15 08:37 PM

Bahut hi sunder baat hai

डॉ. शैलजा सक्सेना 2023/11/15 07:23 PM

आईने सा साफ़ लिखा आपने। आदर्शवाद की पट्टी पढ़ कर हम भी बड़े हुए और देखा कि हमें स्कूलों, कॉलेजों में ये सब सिखाने बालों ने ही आदर्शवाद को तोड़ा। प्रेमचंद का 'गोदान ' में गांधी के आदर्शवाद से मोहभंग होता है और होरी बिना गोदान के मर जाता है। यही आज की स्थिति है। अपने सत्य को न बोलना भी असत्य का साथ देना है पर कठिनाई यह है कि असत्य इतना बड़बोला हो गया है कि वह सत्य के विरोध में नारे लगाता सड़कों पर उतर आया है। इस सारे अंतर्विरोध में एक अच्छी बात यह है कि आतंक और असत्य का चेहरा लोगों को दिख गया है, वह अब छुपा नहीं रह सकता। आपके इस संपादकीय ने बातचीत के अनेक आयाम खोले हैं और कर्म की सही संभावना भी दिखाई है। बहुत बधाई।

डॉ पदमावती 2023/11/15 03:50 PM

नमस्कार आदरणीय, आज की पीढ़ी का सच । एक कहानी याद आ गयी प्रेमचंद की -सभ्यता का रहस्य जिसमें आदर्शों को होम कर परंपराओं की बलि चढ़ाकर शक्ति और बल का दंभ भरने वाले धूर्त पाखंडी जज राय साहब जो समाज में अपना मान बचाए रखने के लिए रिश्वत लेकर एक ख़ूनी रईस को बरी कर देता है और वहीं उनका नौकर दमडी चोरी से “चारा “काटने के जुर्म में राय साहब द्वारा ही सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है ग़रीब ,ईमानदार ,न्यायप्रिय ,सत्यवादी ,मूर्ख, किसान ,दमड़ी । सभी ने यह कहानी पढ़ी होगी । अब संदर्भ यहाँ यह है कि जब भी ये कहानी कक्षा में पढ़ाई जाती है और छात्रों से पूछा जाता है कि आपके आदर्श कौन है ??तो दस में से नौ छात्र कहते हैं “राय साहब”और बचा हुआ एक अकेला हमारा मन रखने के लिए “कुछ देर के लिए “कह देता है दमडी । कहने का अर्थ ये है की जो धर्म या आदर्श त्रेता में था वो द्वापर में ना था और जो द्वापर में था वो कलियुग में नहीं है । पश्चिम में जिस शराब को पीना शरीर की गर्माहट के लिए दवा माना जाता है वहीं हमारे देश में व्यसन माना जा सकता है । तो आदर्श समय काल और भौगोलिक सीमाओं पर आधारित रहता है । खरा सच । आज की पीढ़ी का सच जो नकारा तो जा सकता है लेकिन झुठलाया नहीं जा सकता । आपकी लेखनी यूँ ही अनवरत चलती रहे । बढ़िया संपादकीय । शुभकामनाएँ

डॉ सुषमा देवी 2023/11/15 03:39 PM

आदर्श की परिभाषा देश, काल तथा परिवेश के अनुसार बदलती रहती है। आदर्श नहीं बदलता है, यह बात तो तय है आदरणीय सुमन जी

Anima Das 2023/11/15 02:53 PM

दुःखद! आदर्शवाद के नाम पर केवल मिथ्या नाटक एवं स्वार्थ का खेल....आपका संपादकीय हृदय में एक रहस्यमय छवि अंकित किया है..... युवावर्ग की समस्या बहुत बड़ी होने वाली है.... क्योंकि अंधे दौड़ में है युवावर्ग.... और सबसे महत्वपूर्ण विषय यह है कि हमारा वर्ग अब उनके समक्ष कुछ महत्व नहीं रखता....

सरोजिनी पाण्डेय 2023/11/15 11:20 AM

आदरणीय संपादक महोदय, मानव की मूल प्रकृति पर अंकुश लगाने के लिए ही आदर्शवाद का जन्म हुआ होगा। यदि संसार को नृशंसता से सुरक्षित रखना है ,चाहे कुछ अंशों में ही सही तो आदर्शवाद का प्रतिपादन तो करना ही होगा। हिंसा तो मानव का मूल स्वभाव और सर्वाइवल इंस्टिंक्ट है।

महेश रौतेला 2023/11/15 08:38 AM

शायद यह स्थिति आदिकाल से ही रही है। इसलिए कहा गया है," सत्यमेव जयते" और "असतो मा सदगमय---"। बढ़िया विवेचना।

शैली 2023/11/15 08:13 AM

इतने सच्चे दिल से सम्पादकीय लिखने के लिए बधाई। मन की बात लिखी है आपने। मेरे मन भी अक्सर ये द्वंद्व चलता है। शायद सभी के मन में ऐसे विचार जीवन के किसी मोड़ पर किसी कटु अनुभव के बाद ज़रूर आते होंगे। हमास को संरक्षण देने वाले फिलिस्तीनियों से सहानुभूति रखने वालों पर हैरानी होती है। जब बबूल बोयोंगे तो काँटों के लिए तैयार रहना चाहिए। वास्तव में आदर्श मात्र आदर्शवादी समाज और व्यक्तियों के साथ ही चल सकता है। क़िताबी बातें ही लगती है अब, कि सच्चे और अच्छे की जीत होती है। जब उम्र छोटी थी तो आदर्श बहुत आकर्षक लगता था। उम्र के अनुभवों ने सिखा दिया जो आपका अन्तिम वाक्य है। सुबह-सुबह इतना सच्चा सम्पादकीय पढ़ने को मिला। हार्दिक आभार।

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