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प्रिय मित्रो,

इस वर्ष मेरे जन्मदिवस पर मेरी छोटी पुत्रवधू ऋतु ने मुझे उपहार देने का मन बना लिया। वह जानती है कि मैं उपहार इत्यादि नहीं लेता, पर इस बार उसने ठान लिया कि वह मुझे कुछ ऐसा देगी जिसे मैं अस्वीकार नहीं कर पाऊँगा।

उसका सहायक बना मेरा साढ़े चार वर्ष का पोता—युवान। ऋतु ने उसीसे पूछा कि युवान दादू को जन्मदिवस पर क्या दें? युवान ने पहले पक्का किया कि क्या उसे खाने को केक मिलेगा? जब यह तय हो गया कि चॉकलेट केक मिलेगा तो उसने सुझाव दिया जो कि उसकी उम्र के हिसाब से बहुत सटीक था। युवान ने कहा, “मॉम, कुछ ऐसा ख़रीदो जो दादू को सच में पसन्द है। दादू हमेशा गार्डन में काम करते रहते हैं या फिर हिन्दी की पुस्तकें पढ़ते रहते हैं। हमें  खुरपा और पुस्तक देनी चाहिए।” 

समस्या अब हिन्दी की पुस्तक ख़रीदने की थी। अंत में सुमित, ऋतु, युवान और एक वर्षीय मायरा शाम को उपहारों और केक के साथ अचानक आ गए। ख़ैर मोमबत्ती भी लगाई गई और उपहार भी दिया गया। खुरपा एक बढ़िया से कपड़े बैग में बंद था और पुस्तक अपनी पन्नी में। उपहार मेरी रुचि के अनुसार तो थे ही पर उपहार ख़रीदने की कहानी मुझे और अधिक रोचक लगी।

समय न मिल पाने के कारण इंग्लिश का उपन्यास “द ऐलकेमिस्ट” पिछले सप्ताह तक मेरे सिरहाने नाईट टेबल पर पड़ा रहा। इस उपन्यास का केवल नाम सुन रखा था, इसके बारे में जानता कुछ भी नहीं था। मुझे भेंट में मिली पुस्तक 25वें वर्ष का विशेष संस्करण था। उपन्यास के पन्ने पलटते हुए पता चला कि यह एक अनूदित पुस्तक है। उन दिनों मैं साहित्य कुञ्ज में भी अपने सम्पादकीयों में अनुवाद पर ही लिख रहा था। यह स्वाभाविक था कि अनुवाद के मूल्यांकन के लिए पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई। उपन्यास के लेखक का पूरा नाम पॉलो कोएल्हो ड सूज़ा (Paulo Coelho) है और उनका जन्म ब्राज़ील में हुआ। ब्राज़ील की भाषा पुर्तगाली है। यह उपन्यास भी मूल रूप से पुर्तगाली में ही लिखा गया था। इसका इंग्लिश में अनुवाद ऐलन आर. क्लार्क ने किया है।

इस पुस्तक के लेखन की कहानी भी रोचक है और लेखक की कहानी भी उतनी ही रोचक है। लेखक के बारे में अगर आप जानना चाहें तो वीकिपिडिया में आप पढ़ सकते हैं। यहाँ मैं पुस्तक की ही बात करूँगा क्योंकि इस पुस्तक के प्रकाशन की कहानी भी लगभग वैसी ही है, जैसी कि हिन्दी के लेखकों की पुस्तक प्रकाशन के अनुभव की होती है। 

लेखक पॉलो कोएल्हो लिखते हैं, “मैंने इस पुस्तक का पहला संस्करण ब्राज़ील में एक छोटे-से प्रकाशक से प्रकाशित करवाया। उपन्यास की पहली प्रति उस दिन ही बिक गई और अगली प्रति छह महीने के बाद बिकी। रोचक बात यह है कि दूसरी प्रति भी उसी व्यक्ति ने ख़रीदी जिसने पहली ख़रीदी थी। तीसरी प्रति कब बिकी यह बस भगवान ही जाने! वर्ष का अंत आते-आते यह स्पष्ट था कि पुस्तक नहीं बिक रही। प्रकाशन ने सब कुछ मुझे लौटा कर अपने हाथ धो लिए और बिना शर्त के अनुबंध भी निरस्त कर दिया।

“इसके बाद फिर से दौर शुरू हुआ एक प्रकाशक से दूसरे प्रकाशक तक भटकने का। अन्ततः एक अन्य प्रकाशक मिला, और इसके बाद उपन्यास धीरे-धीरे एक दूसरे की देखा-देखी बिकने लगा। पहले एक हज़ार प्रतियाँ, तीन हज़ार और फिर दस हज़ार प्रतियाँ एक वर्ष में बिक गईं।

“आठ महीने के बाद एक अमेरिकन व्यक्ति ब्राज़ील आया और उसने  उपन्यास ख़रीदा। उसने उपन्यास का अनुवाद करने की मुझसे अनुमति माँगी। उसने मुझे भरोसा दिलाया कि वह यू.एस.ए. में कोई प्रकाशक खोजने में सहायता भी करेगा। हार्पर-कॉलिन्ज़ ने पुस्तक को बहुत धूम-धड़ाके से प्रकाशित किया। न्यूयॉर्क टाइम्स और अन्य समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में विज्ञापन दिए गए। टीवी और रेडियो पर साक्षात्कार आयोजित किए गए। यू.एस. में भी पुस्तक ब्राज़ील की तरह ही केवल देखा-देखी ख़रीदी और पढ़ी गई और बाज़ार में कोई विशेष पैठ नहीं बना सकी।

“और फिर एक दिन व्हाइट हाउस में एक फोटो खींची गई जिसमें प्रेसीडेंट बिल क्लिंटन के हाथ में “द ऐलकेमिस्ट” दिखी। फिर “वैनिटी फ़ेयर” पत्रिका में मैडोना ने उपन्यास की प्रशंसा के पुल बाँधे। अचानक राजनीतिज्ञों से लेकर अभिनेताओं तक और विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों से लेकर गृहणियों तक सभी के ओंठों पर “द ऐलकेमिस्ट” की ही चर्चा थी।”

अभी तक पॉलो कोएल्हो आठ उपन्यास लिख चुके हैं। औसतन वह एक उपन्यास दो वर्ष में लिखते हैं। अभी तक उनकी पुस्तकों की 320 मिलियन (एक मिलियन दस लाख का होता है) प्रतियाँ बिक चुकी हैं। “द ऐलकेमिस्ट” का 80 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और 150 देशों में अपने पाँव जमा चुका है। अब उपन्यास का कथानक क्या है, वह इस सम्पादकीय का उद्देश्य नहीं है। 

उद्देश्य है एक स्वस्थ प्रकाशन बाज़ार की स्थापना की चर्चा करने का। उद्देश्य है बाज़ारवाद की शक्ति का उचित उपयोग करके साहित्य को विश्व के कोने-कोने में प्रकाशित करने का। हिन्दी के साहित्य को अनूदित करके विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाने का। इस 182 पृष्ठ के उपन्यास की कहानी बहुत सरल है, आशापूर्ण है, सुखान्त है। रंक से राजा तक बनने की कहानी है। पुरुषार्थ, विश्वास और आस्था की कहानी है। कहना चाहता हूँ कि हिन्दी के लेखकों के लेखन के लिए कुछ भी असम्भव इस उपन्यास में नहीं है। लिखा जा सकता है। यह भी सम्भव है कि ऐसा ही साहित्य भारत में कोई लेखक लिख भी रहा हो। तो फिर कौन-सी कमी है कि आजकल आम लेखक की 300 पुस्तकें प्रकाशक पैसे लेकर और एहसान करते हुए प्रकाशित करता है। प्रकाशक पुस्तकों को बेचने का कोई प्रयास करता भी है या नहीं, यह भी नहीं मालूम। पुस्तक की वास्तव में कितनी प्रतियाँ छपीं और कितनी बिकी कोई नहीं जानता। हाँ, पिछले कुछ वर्षों से जगह-जगह पुस्तक मेले अवश्य लगने लगे हैं। विश्व की अन्य भाषाएँ तो दूर की बात है, अच्छे अँग्रेज़ी अनुवादक भी प्रकाशकों की पहुँच से परे हैं। विदेशों  के प्रकाशकों के साथ अनुबंध तो दूर की कौड़ी ही है।

कुल मिला कर कहें तो भारत में प्रकाशन उद्योग अभी पाषाण युग में ही है। एक मुट्ठी भर प्रकाशक हैं, जो इस क्रांतिकारी प्रयास करने की क्षमता रखते हैं और वह दिल भर कर हिन्दी के लेखक का आर्थिक शोषण करने और अपनी जेबें भरने में व्यस्त हैं। 

टिप्पणियाँ

मधु 2022/10/13 05:45 PM

सुमन जी, आपको जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनाएँ। हम कोई उपहार तो नहीं दे सकेंगे, लेकिन प्रभु से यही प्रार्थना करते हैं कि आपके अथक परिश्रम द्वारा सींची गई आपकी साहित्य-कुन्ज रूपी बगिया की महक दुनिया के रहते तक और भी फैले।

Padmavathi 2022/10/11 09:17 AM

बहुत रोचक और सार्थक सटीक संपादकीय ।जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

डॉ. आरती स्मित 2022/10/03 09:45 PM

संपादकीय पठनीय, रोचक और सार्थक ...हर बार की तरह!

इला प्रसाद 2022/10/01 11:13 PM

सबसे पहले तो जन्मदिन की हार्दिक बधाई | पुस्तक और पौधे - ये दो चीजें मुझे भी सवश्रेष्ठ उपहार लगती हैं , किसी भी अवसर के लिए | आपको खुरपी मिली यह और भी अच्छा है | साहित्य कुंज के पेड़ की भी खुदाई - निराई होती रहे और सर्वश्रेष्ठ सामने आता रहे | हार्दिक शुभकामनाएँ |

सविता अग्रवाल "सवि " 2022/10/01 09:32 AM

सुमन जी आपको जन्मदिवस पर मिले उपहार के लिए बधाई | इस उपहार ने हम सबकी आँखें खोल दीं | अति सुन्दर |

राजनन्दन सिंह 2022/10/01 06:46 AM

भारत में प्रकाशन सचमुच अभी पाषाण युग में ही है। और इसका परिणाम है कि भारतीय लेखन वैश्विक नहीं बन पाता है। हमारे अपने देश अपनी मिट्टी की सभी भाषाओं बोलियों को मिलाकर देशभर में करोड़ों रचनाएँ अज्ञात है जिनके लेखक अथवा कवि का नाम ही पता नहीं है। ईमानदारी जताते हुए या विवशता वश उसे पारंपरिक अथवा लोक रचना के नाम से जाना जाता है। मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा रचित चारों वेद जिसे वैश्विक होना चाहिए था। मगर प्रकाशन अथवा अनुवाद की कमी के कारण अपने ही देश में सर्वत्र सुलभ नहीं है। इसी तरह हिन्दी से पहले अवधी मैथिली, भोजपुरी, मगही, अंगिका, बज्जिका, ब्रजभाषा हरियाणवी राजस्थानी इत्यादि जैसी देशी भाषाओं की अनगिनत महान रचनाएँ अप्राप्य हैं। हिन्दी की हज़ारों महान एवं वैश्विक रचनाएँ पुस्तकालयों अथवा संरक्षण गृहों में पड़ी पाठकों से वंचित है। एयरपोर्ट, कनाॅट पैलेस के शो रूमों के बरामदों से लेकर रेहड़ी पटरियों तक अँग्रेज़ी की पुस्तकें बिकती हुई नज़र आती है। मगर उन दुकानों पर भी हिन्दी की पुस्तकें या तो होती नहीं है और यदि होती है तो एक प्रतिशत से भी कम। अन्य भाषाओं से अनूदित अँग्रेज़ी की पुस्तकें यदि हमारी रेहड़ी पटरियों पर बिक सकती हैं तो हमारी पुस्तकें भी अँग्रेज़ी अथवा अन्य भाषाओं में अनूदित होकर दुनिया के बड़े बड़े शो रूमों में बिक सकती हैं। यह सम्भव है। ज़रूरत है भारत की कोई कॉर्पोरेट कंपनी प्रकाशन एवं अनुवाद के इस व्यवसाय में उतरे और धन लगाए।

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