प्रिय मित्रो,
इस वर्ष पहली बार कैनेडा में हिन्दी राइटर्स गिल्ड कैनेडा ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया। अगर हम इस दिवस के इतिहास को देखें तो एक रोचक तथ्य सामने आता है। वास्तव में 1952 से बंगलादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) मातृभाषा आन्दोलन दिवस मनाता आ रहा था। 17 नवम्बर 1999 को यूनेस्को ने स्वीकृति दी कि 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाए। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य था कि विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले।
यूनेस्को द्वारा अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अन्तरराष्ट्रीय स्वीकृति मिली, जो बांग्लादेश में सन् 1952 से मनाता आ ही रहा था। बांग्लादेश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश होता है।
2008 को अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा वर्ष घोषित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने अन्तरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्व को फिर दोहराया। (संदर्भ: विकिपीडिया)
हिन्दी राइटर्स गिल्ड ने इस वर्ष कैनेडा में रह रहे विभिन्न भाषाओं के 20 कवियों को मंच प्रदान किया और उन्होंने भारत की 16 भाषाओं में काव्य पाठ किया। गिल्ड द्वारा हम लोग पहले भी विभिन्न भाषा के साहित्य को मंच प्रदान करते रहे हैं; उत्तर से कश्मीरी भाषा से लेकर दक्षिण में मराठी तक और पश्चिम में गुजराती से लेकर पूर्व में बंगाली तक। हम कभी कविताओं और कभी लोक गीतों द्वारा भारत की अनेकता में एकता की झाँकी प्रस्तुत करते रहे हैं। यह सब हम अपनी मासिक गोष्ठियों या अपने वार्षिक कार्यक्रमों में संयोजित करते थे। इस वर्ष, पहली बार, हिन्दी राइटर्स गिल्ड कैनेडा ने 24 फरवरी की संध्या को इंटरनेट के माध्यम से ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ का आयोजन किया और इस बार हम दक्षिणी भारत की भाषाओं को भी सम्मिलित करने में सफल रहे। उड़िया, मलयालम, कन्नड़ और तमिल में भी काव्य पाठ संभव हो पाया।
यह साहित्यिक संध्या बहुत मनोरंजक रही। हालाँकि कई भाषाओं को समझना कठिन था (प्रस्तुतकर्ता काव्यपाठ से पहले अपनी कविता के सारांश को हिन्दी या अंग्रेज़ी बता रहे थे) परन्तु हम फिर भी कविता से जुड़ सके—ऐसा मैंने अनुभव किया। बाद में भी इसके बारे में सोचता रहा। ऐसा क्या है कि मलयालम न जानते हुए भी मैं संस्कृत के शब्दों के माध्यम से समझ पा रहा था। उड़िया में प्रशांत भूयाँ जिस तरह से उड़ीसा की प्राकृतिक सुन्दरता, ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व को बताते हुए रोमांचित हो रहे थे तो मैं भी रोमांचित हो रहा था। आशा बर्मन जी के बंगाली गीत की मधुरता को आत्मसात कर रहा था। राजस्थानी के रणबांकुरों के नाम सुन, धोरों की तरह छाती उन्नत हो रही थी। पंजाबी तो ख़ैर मेरी मातृभाषा है ही। कृष्णा वर्मा जी और सुरजीत कौर जी पंजाबी की कविताएँ भी अच्छी रहीं। मराठी की हास्य कविता सुनाई मंच की कुशल और पुरस्कृत अभिनेत्री रमा जोशी ने अपने ही अंदाज़ में। यहाँ हास्य की गुदगुदाहट में भाषा आड़े नहीं आई। कश्मीरी की कविता में भी बचपन के खेल और अनुभव अपने-से ही लगे। भोजपुरी, बृजभाषा, गुजराती की कविता भी वही कह रही थी जो हिन्दी में कहती है।
बहुत आसानी से समझ आ गया कि साहित्य, सामाजिक अनुभव की अभिव्यक्ति होती है। और सामाजिक अनुभव, संस्कृति, सभ्यता की थाती होते हैं। सभ्यता और संस्कृति इतिहास से जन्म लेते हैं। इतिहास पर भौगोलिक परिस्थितियों का प्रभाव होता है। इन तथ्यों के आधार पर विकसित साहित्य इस उप-महाद्वीप का साझा अनुभव है। इसीलिए विभिन्न भाषाओं में होते हुए भी हम इससे जुड़ पाते हैं। अन्ततः हम चाहे विश्व में कहीं पर भी जाकर बस जाएँ रहते तो भारत की माटी के पुत्र और पुत्रियाँ ही।
एक और बात बाद में सताती रही। भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य का अनुवाद अँग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध हो जाता है। यह अनुवाद अधिकतर मूल रचना के भाव को प्रकट नहीं कर पाता। इसका कारण यह है कि अँग्रेज़ी भाषा का उद्भव स्थल यूरोप है, भारतभूमि नहीं। जैसा कि ऊपर मैंने कहा है कि यूरोप के अनुभव, उनकी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और भूगोल हम से अलग है। कैनेडा में रहते हुए प्रायः मैंने पाया है कि हमारी भारतीय संस्कृति पश्चिमी जगत की अपेक्षा पूर्वी एशिया के देशों से अधिक मिलती है। इस के कारण भी वही हैं जो ऊपर मैंने लिखे हैं।
जो साहित्य भारतीय भाषाओं से अँग्रेज़ी में अनूदित होता है, वह साहित्य विदेशों में विदेशियों द्वारा कम पढ़ा जाता है। समस्या है कि शब्दों और भावों का अनुवाद तो हो सकता है पर सामाजिक अनुभव का अनुवाद कैसे होगा? गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ? भारत की किसी भी भाषा में गोधूलि को अनूदित किया जा सकता है जो सभी को समझ भी आएगा क्योंकि यह दैनिक अनुभव उसे ही हो सकता है जिसने गोधूलि की महक को आत्मसात किया है।
मैं यह नहीं कहना चाह रहा कि भारतीय साहित्य अँग्रेज़ी में अनूदित न हो। मैं यह कह रहा हूँ, कि भारतीय साहित्य भारतीय भाषाओं में भी अनूदित होना चाहिए। निस्संदेह इन पुस्तकों की साहित्यिक जगत में स्वीकृति अधिक होगी। उदाहरण है बंगाली के लेखकों के साहित्य का हिन्दी अनुवाद कितना लोकप्रिय है! मैं अपनी माँ के लिए पुस्तकालय से उपन्यास लाया करता था। मुझे मालूम था कि किसी भी बंगाली लेखक का उपन्यास मेरी माँ को अच्छा लगेगा। चाहे बंगाली संस्कृति की कई रीतियाँ पंजाबी संस्कृति से भिन्न थीं, परन्तु इनमें कोई ज़मीन-आसमान का अन्तर नहीं था। दूसरी ओर अगर मैं उनको कोई भी अँग्रेज़ी क्लासिक उपन्यास की अनूदित पुस्तक थमा देता तो क्या वह उस संस्कृति को समझ पातीं, संभवतः नहीं। दैनिक जीवन के सूक्ष्म अंतर तो बिलकुल नहीं। यही कारण है कि अँग्रेज़ी के उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद खोखला-सा लगता है। विशेषकर हम प्रवासियों को जो दशकों से पश्चिमी संस्कृति को समीप से देख रहे हैं, और कुछ सीमा तक जी भी रहे हैं। चाहे हम भी अनुवाद करें क्योंकि हमने पश्चिमी संस्कृति को करीब से देखा है, तो भी कई बार कई शब्द संस्कृतियों के अपने होते हैं, जो दूसरी संस्कृति में होते ही नहीं। उनका अनुवाद कैसे होगा?
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
सरोजिनी पाण्डेय 2023/03/01 08:13 AM
भाव, भूमि और भाषा के गहरे सम्बन्ध को अनुभव करने के लिए उसी माटी में खेलना आवश्यक है,और भावानुवाद भी तभी सम्भव है। जब एक ही भाषा के पर्यायवाची शब्दों की छुवन, स्वाद, संचरण भिन्न होते हैं तो दूसरी भाषा के बारे में सोचना ही क्या!! भावभीना संपादकीय, बधाई !
नरेंद्र ग्रोवर 2023/03/01 06:52 AM
बहुत सुन्दरता से आप ने सभी भाषाओं और बोलियों से जुड़े सांस्कृतिक महत्व को अपने लेख में लिखा।
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देवचंद्र भारती प्रखर 2023/03/14 08:29 AM
महोदय! कृपया अपना सम्पर्क सूत्र प्रदान करें। मुझे भी अपना शोध आलेख प्रकाशित कराना है ।