प्रिय मित्रो,
यद्यपि मेरा सदा प्रयास रहता है कि मैं साहित्य और राजनीति को अलग-अलग रखूँ और साहित्य कुञ्ज को केवल एक साहित्यिक मंच की तरह ही संचालित करूँ। परन्तु समाज में रहते हुए यह बहुत कठिन संघर्ष है। क्या साहित्य में समाज के आधार की एक महत्त्वपूर्ण शिला को अनदेखा किया जा सकता है—नहीं, बिलकुल नहीं। तो क्या इसका अर्थ यह है कि साहित्य पर राजनीति हावी हो जाए, क्योंकि राजनीति का मूल उद्देश्य ही ‘राज’ करने की नीति है। अन्य शब्दों कहें कि राजनीति अपनी धर्मिता को निभाते हुए साहित्य पर आधिपात्य स्थापित करने में अन्ततः सफल हो जाएगी और सम्पूर्ण साहित्य पर राजनीति की परछाई दिखाई देगी।
अगर हम साहित्य के इतिहास का अध्ययन करें तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि हर युग में साहित्य और राजनीति का चोली-दामन का साथ रहा है। पौराणिक साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य में राजनीति उपस्थित रही है—कहीं राजनीतिज्ञ नायक है तो कहीं खलनायक। फिर साहित्य कुञ्ज को राजनीति से दूर रखने का प्रयास करना एक संघर्ष जैसा ही तो होगा। अगला प्रश्न उठता है कि इस संघर्ष में रत रहूँ या समाज की वास्तविकता के साथ समझौता कर लूँ।
मेरी अपनी समझ है कि राजनीति के भी दो पक्ष हैं। एक प्रकार की राजनीति का उद्देश्य समाज को प्रगतिशील बनाना, उन्नत समाज का निर्माण करना, मानवीय वृत्तियों की रक्षा करना और प्रवर्तन करना होता है और दूसरी राजनीति का उद्देश्य केवल सत्ता की भूख को मिटाना और समाज को बंधक बनाने का होता है। यह लेखक और संपादक का निर्णय होता है कि वह साहित्य में कितनी और कैसी राजनीति को लिखता है और प्रकाशित करता है।
आज सम्पादकीय लिखते हुए मेरे मन में साहित्य और राजनीति और संघर्ष की बात कहाँ से आई? इस समय भारत में चुनाव पूरे यौवन पर है। विश्व के सबसे बड़े प्रजातन्त्र में चुनाव की प्रक्रिया को सुचारु रूप से पूर्ण करना ही भागीरथी प्रयास है। इन दिनों बहुत-सी रचनाएँ जो मुझे मिल रही हैं या प्रकाशित हो रही हैं, उनका झुकाव राजनीति की ओर है। इनमें जो रचनाएँ केवल नारेबाज़ी तक ही सीमित रहती हैं, उन्हें मैं प्रकाशित नहीं करता। कुछ रचनाएँ ऐसी होती हैं जो केवल के दल विशेष का दृष्टिकोण, अ-साहित्यिक शैली में प्रकट करती हैं, वह भी प्रकाशित नहीं होती। अगर कोई रचना आधारहीन दोषारोपण के उद्देश्य से लिखी गई हो, उसे साहित्य कुञ्ज के मंच पर स्थान नहीं मिलेगा। साहित्य कुञ्ज में उन रचनाओं को स्थान मिलता है जो कि संतुलित राजनीति को प्रस्तुत करती हैं। एक दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर आप अपने आसपास घट रही घटनाओं के दुष्प्रभावों को शहद में लिपटा कर लिखें तो वह भी साहित्य के साथ अन्याय होगा। जब तक रचना पाठकों को हिंसा करने के लिए नहीं उकसाती, वास्तविकता को साहित्य गुणों की कसौटी पर परख कर लिख गई हो वह प्रकाशित होगी।
पाठकों से भी निवेदन है कि वह ऐसी रचनाओं को संकीर्ण दृष्टिकोण से नहीं देखें बल्कि यह सोच कर पढ़ें कि आपके दृष्टिकोण से अलग भी दूसरा दृष्टिकोण हो सकता है और ऐसे साहित्य का भी प्रकाशित होने का अधिकार है। अन्य शब्दों में दृष्टिकोणों में मैत्रीपूर्ण व्यवस्था की अपेक्षा है।
—सुमन कुमार घई
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सरोजिनी पाण्डेय 2024/05/15 09:25 AM
संपादक जी, बहुत सहजता से साहित्य और राजनीति के अपेक्षित संबंध को अपने बताया है। साहित्य को राजनीति से दूर रखा ही नहीं जा सकता शायद महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथ भी राजनीति से ही प्रेरित हुए होंगे। वैसे मैं यदि सत्य कहूं तो आज तक मुझे साहित्य की परिभाषा ही समझ में नहीं आई है। व्याकरण से अनुशासित भाषा जन कल्याण के विषय ,अपने विचारों को लिखना ही में साहित्य समझती हूं ।शायद यह तकनीकी दृष्टि से पूर्णता गलत हो। क्या मूर्धन्य साहित्यकारों के द्वारा यह विषय स्पष्ट किया जा सकेगा?