प्रिय मित्रो,
इन दिनों भारत में मानसून के प्रकोप के समाचार हर माध्यम पर छाए हुए हैं। पहले तो गरमी के क़हर से जन-जीवन त्रस्त था अब जीवनदायनी वर्षा जीवन लीलने के लिए छमा-छम बरस रही है। अभी तो बाढ़ का पानी उतरने के बाद विपदा की नई लहर उठेगी। न जाने किस किस का घर टूटा होगा, किस किस के खेत बह गए होंगे। गृहस्थियाँ उजड़ गई होगी। मवेशियों की फूली लाशों को ठिकाने लगाते हुए न जाने कितने लोगों के आँसू बहेंगे। जो जीवन इस बाढ़ में बह गए उनके साथ और न जाने कितने जीवित लोग भी निर्धनता में खो जाएँगे। अति गरमी के बाद अति बरसात!
सावन के महीने के गीत, त्योहार, मल्हार सब पर बादल बरस गए। गीत झूठे हो गए। कल्पना के रंग बाढ़ में बह गए। सौंधी मिट्टी कीचड़ बन गई। और मैं सोच रहा था कि साहित्य में सावन या सावन में साहित्य मेरे सम्पादकीय का विषय होगा। इस बार भी वही हो रहा है जो सदा होता है। लेखनी के अपने विचार हैं, अपना लेखन है जिसे मैं नियन्त्रित नहीं कर पाता। जिस लहर में बह गई सो बह गई। इस बार लेखनी जमुना में बह रही है। उत्तराखण्ड की नदियों के किनारे तोड़ते प्रवाह में प्रवाहित हो रही है।
लेखक की लेखनी प्रत्येक परिस्थिति में चलती है। इसीलिए तो संभवतः जितना हिन्दी साहित्य सावन के बादलों की सुन्दरता को बखान करने के लिखा गया है, उतना ही बाढ़ की विभीषिका को भी साहित्य ने समेटा है। आधुनिक भारत में कम से कम बाढ़ के बाद पीड़ितों को राहत देने की क्षमता तो है। पहले अच्छे भले ग्रामीण परिवार भीख माँगने के लिए विवश हो जाते थे। यह सब मैंने बचपन में अपनी आँखों से देखा है। माँ इन परिवारों को आँगन में बैठा कर भोजन करवाती थीं।
मुझे याद आ रहा है “मदर इंडिया” में बाढ़ का सीन। जब १९५७ में यह फ़िल्म आई थी तो मैं चार-पाँच वर्ष का था। पूरी कहानी तो समझ नहीं सका था परन्तु त्रासदी पर त्रासदी की मार अवश्य समझ आ रही थी। बाढ़ में सब कुछ बह जाना तो अभी तक जब भी याद आता है तो एक ठंडी सिरहन सी शरीर में दौड़ जाती है। मुझे याद है कि घर आकर भी रात के समय आँखें बंद करते ही बाढ़ दिखाई देती थी। सिनेमा कितना शक्तिशाली माध्यम है कहानी सुनाने का! उपन्यासों, कहानियों और कविताओं में बाढ़ का चित्रण भी होता रहा है।
इसे प्रकृति की विडम्बना कहें या संयोग की वर्षा की जितनी प्रतीक्षा रहती है उतना ही भय भी मन में होता है। कई बार तो सोचता हूँ कि बेचारे किसान का भाग्य विश्व भर में पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर करता है। बाढ़ें पहले भी आती थीं, गरमी का मौसम भी होता था परन्तु ऐसी तीक्ष्णता नहीं होती थी। मानव ने पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ दिया है। यह वैश्विक समस्या है। पर्यावरण के प्रदूषण ने कान उमेठ कर पृथ्वी के वासियों को समझा दिया है कि आप सभी एक परिवार के सदस्य हो। अगर एक बिगड़ेगा तो उसका प्रभाव सम्पूर्ण परिवार पर पड़ेगा। परन्तु मानव इतना ढीठ प्राणी है कि समझते हुए भी नहीं समझता। यूएसए जैसे विकसित देश में भी जनता के कुछ चयनित प्रतिनिधि ग्लोबल वार्मिंग को मिथक कहते हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्र का तापमान बढ़ रहा है, द्वीप डूबने की कगार पर खड़े हैं और यह लोग आँख मूँदकर कह रहे हैं, “सब ठीक है।”
दक्षिणी अमेरिका में जंगल काटे जा रहे हैं तो भारत में गाँवों के तलाबों को पाट कर घर बन रहे हैं। १९६० के दशक में पंजाब के खेतों में बोर करके पानी से सिंचाई शुरू हो गई थी। फ़सलों का उत्पादन तो बढ़ गया था पर पानी का स्तर नीचे गिरता चला गया। बोर गहरे होते गए और पानी और नीचे गिरता गया। अत्यधिक रासायनिकों से बचाखुचा पानी भी विषैला कर दिया। प्रशासन ने पंजाब में हरियाली बढ़ाने के लिए सड़कों के आसपास यूक्लिप्टिस के पेड़ लगाए। कुछ वर्षों के बाद पता चला कि यह पेड़ इतना पानी सोख जाते थे कि बाक़ी की वनस्पती सूखने लगी।
दूसरी ओर कैलिफ़ोर्निया में लॉस वेगास रेगिस्तान में बसाया गया। जलपूर्ति लेक (झील) से की गई जिसे कोलोरैडो रिवर भरती है। पानी का इतना बरबाद किया जाता है कि अब अनुमान लग रहे हैं कि झील कब तक सूख जाएगी। कैसिनों और होटलों में पानी की आवश्यकता से अधिक पंप करके फ़व्वारे चलाए जाने लगे। जहाँ पहले ही पानी की कमी थी, आप अनुमान लगा सकते हैं कि क्या हुआ होगा! अगर भारतीय इतिहास में इसकी उदाहरण ढूँढ़े तो मुहम्मद तुगलक़ द्वारा राजधानी को दिल्ली से देवगिरि ले जाने के समकक्ष रख सकते हैं।
पिघलते गेल्शियर, फैलते रेगिस्तान, समुद्र का बढ़ता तापमान और स्तर, ऋतुओं में परिवर्तन, कहीं बाढ़ तो कहीं सूझे की वभीषिका! कब जागेगा मानव और फिर से लिखेगा वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
सरोजिनी पाण्डेय 2023/07/15 09:57 AM
आदरणीय संपादक महोदय इस अंक के संपादकीय का विषय मेरे चिंतन का विषय बना रहता है। एक सामान्य ग्रहणी हूं, आत: चिंतन के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकती परंतु विचारों की श्रृंखला पीड़ा, उद्विग्नताऔर उलझन अवश्य देती है ।फिर मन को समझाने के लिए न जाने कितने वाक्य भी हृदय में आते रहते हैं जैसे 'मूरख मरै पराई फिकरीं', 'जैसी होय होतव्यता वैसी उपजै बुद्धि '! मन को समझाने के लिए सबसे अधिक अपने सनातन धर्म की मान्यताओं पर ही विश्वास कर लेने को मन होता है जिसके अनुसार कलयुग चल रहा है और यह युग के अंत में पृथ्वी पर महाप्रलय हो सब सृष्टि नष्ट हो जाएगी। कभी-कभी 'रहिमन चुप ह्वै बैठिए देख दिनन को फेर ,जब नीके दिन आइहैं ,बनत न लगिहैं बेर' भी सोच कर मन को प्रकृतस्थ करती हूॅं। हां यह अवश्य है कि अपने स्तर पर प्रकृति के संरक्षण का पूर्ण प्रयास कभी छोड़ती नहीं हूं। भावनात्मक संपादकीय के लिए धन्यवाद।
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मधु 2023/07/15 07:12 PM
साधुवाद। यह संपादकीय भी सदा की भाँति हमारी करनी को झँझोड़ता हुआ। दस मनुष्य यदि प्रकृति से खिलवाड़ कर भी रहे हैं तो हाथ की अंगुलियों की तरह हम-आप जैसे पाँच लोग मिलकर उनके द्वारा पहुँचाई जा रही क्षति का प्रभाव कम कर सकते हैं। अपने घर व मोहल्ले में स्वयं की उदाहरण स्थापित करें। वह आदत स्वतः ही मोहल्ले से चलकर साथ वाले मोहल्ले तक और फिर वहाँ से पूरे गाँव/शहर/देश तक में कुछ तो अच्छा परिणाम लायेगी। मेरी दोनों बेटियाँ मुझे देख-देख कर recycling व यातायात के साधनों का कुछ-कुछ सही प्रयोग करने लगी हैं, और उनके समझाने पर उन दोनों के परिवार भी उनका पूरा साथ दे रहे हैं।